आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरणोत्तर संस्कार विवेचन मरणोत्तर संस्कार विवेचनश्रीराम शर्मा आचार्य
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मरणोत्तर संस्कार विवेचन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मरणोत्तर संस्कार विवेचन
हिन्दू धर्म की मान्याताओं के अनुसार मरने के बाद भी दिवंगत आत्मा का घर
के प्रति मोह-ममता का भाव बना रहता है। यह ममता उसकी भावी प्रगति के लिए
बाधक है जिस प्रकार पुराने वस्त्र को उतार कर या किसी वस्तु, पदार्थ को
बेचकर उसकी ममता से छुटकारा मिल जाता है, उसी प्रकार जीव के लिए यही उचित
है कि पहले परिवार की ममता छोड़े और प्रत्येक प्राणी जिस प्रकार अपने
भले-बुरे कर्मों का भोग भोगने और नये भविष्य का निर्माण करने में संलग्न
है, उसी प्रक्रिया के अनुरूप अपना जीवनक्रम भी ढाले।
अनावश्क ममता कर्तव्य पथ में सदा बाधक रहती है, जीवनकाल काल में जो लोग अधिक मोह-ममता से ग्रसित रहते हैं, वे अपनी बहुमूल्य शक्तियों को जिनका सदुपयोग करने पर अपनी आत्मा का, परिवार का तथा समाज का भारी हित हो सकता था, ऐसे ही खेल-खिलवाड़ में निरर्थक खो डालते हैं। शरीर के बाद मनुष्य कुटुम्बियों को ही अपना समझता है। बाकी सारी दुनियाँ उसके लिए बिरानी रहती है। बिरानों के लिए कुछ सोचने और करने की इच्छा नहीं होती। सारा ध्यान अपनों के लिए ही लगा रहता है और जो कुछ कमाता, उगाता है, उस सबका लाभ इस छोटे से दायरे के लिए ही बाँधकर रखता है।
इस अज्ञान मूलक ममता से घर वाले आत्म-निर्भरता एवं स्वावलम्बन खोकर बिना परिश्रम किये प्राप्त की कमाई पर मौज करने के आदी हो जाते हैं। इच्छित मौज-शौक के साधन जुटाने पर गृह स्वामी पर कुद्ध होते हैं, उसका तिरस्कार करते है एवं शतुत्रा बरतते हैं। इसके मूल में गृह स्वामी की अवांछनीय मोह ममता ही है। यदि घर के लोगों के प्रति कर्तव्य पालन करने तक का ही भाव रखे, तो वे भी स्वावलम्बी बनें और गृहपति को भी अपने आध्यात्मिक एवं सामाजिक कर्तव्य पालन करने का अवसर मिले, पर यह हत्यारी मोह-ममता कुछ करने नहीं देती। सारा जीवन अनावश्यक, नीरस, निरर्थक गोरखधन्धों में उलझाकर बर्बाद कर देती है।
अनावश्क ममता कर्तव्य पथ में सदा बाधक रहती है, जीवनकाल काल में जो लोग अधिक मोह-ममता से ग्रसित रहते हैं, वे अपनी बहुमूल्य शक्तियों को जिनका सदुपयोग करने पर अपनी आत्मा का, परिवार का तथा समाज का भारी हित हो सकता था, ऐसे ही खेल-खिलवाड़ में निरर्थक खो डालते हैं। शरीर के बाद मनुष्य कुटुम्बियों को ही अपना समझता है। बाकी सारी दुनियाँ उसके लिए बिरानी रहती है। बिरानों के लिए कुछ सोचने और करने की इच्छा नहीं होती। सारा ध्यान अपनों के लिए ही लगा रहता है और जो कुछ कमाता, उगाता है, उस सबका लाभ इस छोटे से दायरे के लिए ही बाँधकर रखता है।
इस अज्ञान मूलक ममता से घर वाले आत्म-निर्भरता एवं स्वावलम्बन खोकर बिना परिश्रम किये प्राप्त की कमाई पर मौज करने के आदी हो जाते हैं। इच्छित मौज-शौक के साधन जुटाने पर गृह स्वामी पर कुद्ध होते हैं, उसका तिरस्कार करते है एवं शतुत्रा बरतते हैं। इसके मूल में गृह स्वामी की अवांछनीय मोह ममता ही है। यदि घर के लोगों के प्रति कर्तव्य पालन करने तक का ही भाव रखे, तो वे भी स्वावलम्बी बनें और गृहपति को भी अपने आध्यात्मिक एवं सामाजिक कर्तव्य पालन करने का अवसर मिले, पर यह हत्यारी मोह-ममता कुछ करने नहीं देती। सारा जीवन अनावश्यक, नीरस, निरर्थक गोरखधन्धों में उलझाकर बर्बाद कर देती है।
कष्टकारक मोह-ममता
यही ममता मरणोत्तर काल में भी जीव के लिए बड़ी कष्टकारक होती
है।
उसका शोक-संताप प्रपंच के कारण बढ़ा रहता है। कई बार भूत-प्रेत की योनियाँ
उसे इसी ममतावश लेनी पड़ती हैं। कई बार घर के मोह आकर्षण में ही वह
छिपकली, छछूँदर, चूहा, कुत्ता, जुँआ, चींटी, मक्खी, झींगुर आदि की योनि
धारण कर परिवार के लिए मरता-गिरता गुजर करता है। सद्गति एवं प्रगति की
आकांक्षा को मोह-ममता दबाये रहती है।
इससे आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं मिलता, उसी दुर्दशाग्रस्त अवस्था में पड़ा दिन काटता रहता है। वह मोह-ममता ही प्राणी के लिए वास्तविक भव-बन्धन है। इससे छुटकारा भी उसे अपने जीवनकाल में ही प्राप्त कर लेना चाहिए, ताकि अपने भविष्य निर्माण तथा कर्तव्य पालन के लिए भी कुछ कर सके। पर यदि अज्ञानी इस संकीर्णता की कीचड़ में लोटते रहना ही श्रेयकर समझता है, तो और कोई उसके लिए करे भी क्या ? जिन्दगी तो हर आदमी अपनी इच्छानुसार ही बिताता है, पर मरने के बाद परिवार के व्यक्तियों का काम है कि उसे अनावश्यक मोह-ममता के कुसंस्कार से छुड़ाने के लिए मरणोत्तर संस्कार का प्रबन्ध करें।
इससे आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं मिलता, उसी दुर्दशाग्रस्त अवस्था में पड़ा दिन काटता रहता है। वह मोह-ममता ही प्राणी के लिए वास्तविक भव-बन्धन है। इससे छुटकारा भी उसे अपने जीवनकाल में ही प्राप्त कर लेना चाहिए, ताकि अपने भविष्य निर्माण तथा कर्तव्य पालन के लिए भी कुछ कर सके। पर यदि अज्ञानी इस संकीर्णता की कीचड़ में लोटते रहना ही श्रेयकर समझता है, तो और कोई उसके लिए करे भी क्या ? जिन्दगी तो हर आदमी अपनी इच्छानुसार ही बिताता है, पर मरने के बाद परिवार के व्यक्तियों का काम है कि उसे अनावश्यक मोह-ममता के कुसंस्कार से छुड़ाने के लिए मरणोत्तर संस्कार का प्रबन्ध करें।
बन्धन मुक्ति कैसे हो ?
इस संस्कार का उद्देश्य दिवंगत जीव को अपने भविष्य की तैयारी में लगने के
लिए और वर्तमान कुटुम्ब से मोह छोड़ने के लिए प्रेरणा देना है। बन्धन
टूटने पर ही मुक्ति होती है। अन्यथा जीव जन्म-मरण की फाँसी में ही फँसा
रहता है। परिवार वाले मृतक के लिए अधिक कुछ न कर सकें तो कम से कम इतना तो
करना ही चाहिए कि उसे अवांछनीय ममता से छुटकारा दिलाने में सहायता करें।
यह प्रयोजन मरणोत्तर संस्कार से होता है।
होना तो यह चाहिए कि वयोवृद्ध व्यक्ति जब कमाने की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जायें, बड़े बच्चे घर को संभालने लगें तो छोटे भाई-बहनों के लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा आदि की जिम्मेदारी उनके कन्धों पर सौंप कर स्वयं वानप्रस्थ आश्रम के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करें। आत्म-कल्याण और लोक मंगल की साधना में संलग्न हों। इस कार्य में घर के लोगों को भी सहायता करना चाहिए। मोह जंजाल में फँसे पड़े घरघुस बूढ़े को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष से यह प्रेरणा देते रहना चाहिए कि वह मोह बन्धनों से छुटकारा पाने और जीवन के अन्तिम अध्याय का अधिक उपयुक्त उपयोग करने में संलग्न हो। भले ही बूढ़ा बुरा माने पर उसका हित उसी में है।
इसलिए पितृ ऋण चुकाने के लिए जहाँ परिवार वाले अपने वयोवृद्धों की भोजन, वस्त्र, शरीर सेवा आदि की व्यवस्था रखें वहाँ उसके मोह-जंजाल को काटने का भी प्रयत्न करें, यह वास्तव में उस वृद्ध के साथ सच्चा उपकार है, भले ही वह उसका महत्व न समझता हो। घर के लोग यदि अपने वयोवृद्धों को विराट् ब्रह्म की साधना करने के लिए मंगल की, वानप्रस्थ तपश्चर्या में संलग्न रहने के लिए यदि आवश्यक प्रोत्साहन एवं साधन देते हैं तो यह निश्चित रूप से पितृ-ऋण चुकाना ही है। मरणोत्तर संस्कार का यह भी एक अंग है। मरने के बाद-मृतक भोज आदि में जो खर्च किया जाता है यदि उतना धन वृद्ध व्यक्तियों को घर में निश्चित रहकर आत्म-कल्याण की साधना में संलग्न होने के लिए दे दिया जाए तो यही कहा जाएगा कि परिवार के लोगों ने सच्चे अर्थों में पितृ-ऋण चुकाया और मरणोपरान्त संस्कार किया।
होना तो यह चाहिए कि वयोवृद्ध व्यक्ति जब कमाने की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जायें, बड़े बच्चे घर को संभालने लगें तो छोटे भाई-बहनों के लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा आदि की जिम्मेदारी उनके कन्धों पर सौंप कर स्वयं वानप्रस्थ आश्रम के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करें। आत्म-कल्याण और लोक मंगल की साधना में संलग्न हों। इस कार्य में घर के लोगों को भी सहायता करना चाहिए। मोह जंजाल में फँसे पड़े घरघुस बूढ़े को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष से यह प्रेरणा देते रहना चाहिए कि वह मोह बन्धनों से छुटकारा पाने और जीवन के अन्तिम अध्याय का अधिक उपयुक्त उपयोग करने में संलग्न हो। भले ही बूढ़ा बुरा माने पर उसका हित उसी में है।
इसलिए पितृ ऋण चुकाने के लिए जहाँ परिवार वाले अपने वयोवृद्धों की भोजन, वस्त्र, शरीर सेवा आदि की व्यवस्था रखें वहाँ उसके मोह-जंजाल को काटने का भी प्रयत्न करें, यह वास्तव में उस वृद्ध के साथ सच्चा उपकार है, भले ही वह उसका महत्व न समझता हो। घर के लोग यदि अपने वयोवृद्धों को विराट् ब्रह्म की साधना करने के लिए मंगल की, वानप्रस्थ तपश्चर्या में संलग्न रहने के लिए यदि आवश्यक प्रोत्साहन एवं साधन देते हैं तो यह निश्चित रूप से पितृ-ऋण चुकाना ही है। मरणोत्तर संस्कार का यह भी एक अंग है। मरने के बाद-मृतक भोज आदि में जो खर्च किया जाता है यदि उतना धन वृद्ध व्यक्तियों को घर में निश्चित रहकर आत्म-कल्याण की साधना में संलग्न होने के लिए दे दिया जाए तो यही कहा जाएगा कि परिवार के लोगों ने सच्चे अर्थों में पितृ-ऋण चुकाया और मरणोपरान्त संस्कार किया।
संस्कार का स्वरूप
शरीर समाप्त होने के तेरहवें दिन मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। यह
शोक-मोह की विदाई का विधिवत् आयोजन है। मृत्यु के कारण घर में शोक वियोग
का वातावरण रहता है। बाहर के लोग भी संवेदना सहानुभूति प्रकट करने आते
हैं। यह क्रम तेरह दिन में पूरा हो जाना चाहिए। ताकि इसी लकीर को पीटने
में समय और शक्ति का अपव्यय न होता रहे। शोक अज्ञान मूलक है।
मरना
सभी को है। जो सृष्टि का अनिवार्य नियम होता है, उसके विरुद्ध तूफान खड़ा
करने से क्या लाभ ? दिन के बाद रात होनी ही है। रात होते ही कोई
रोये-चिल्लाये और हाथ-पैर पीटे तो उसे अविवेकी ही कहा जायगा।
जो अनिवार्य है, सुनिश्चित है, उसके लिए तो सभी को पहले से ही तैयार रहना चाहिए और समय आने पर खुशी-खुशी उस ईश्वरेच्छा को पूरा होने देना चाहिए। मरने के बाद जितना कम शोक मनाया जाए, उतना ही विवेक की विजय मानी जाएगी। जो जितना शिर पीटते हैं वे उतने ही अविवेकी हैं। प्रचलित ढर्रे के अनुसार जन्म के समय हँसने और मरने के समय रोने की मान्यता है। हो तो यह भी सकता है के जन्मने के समय रोया और मरने के समय हँसा जाता। जीव किसी की गोदी खाली करके आया है, उसे रोना पड़ा होगा, जीव को भी प्रबुद्ध सुविकसित शरीर छोड़कर यह छोटा-सा अशक्त शरीर मिला है, इसमें यह बालक तथा उसके पूर्व परिवार की हानि ही हुई, इस पर सहानुभुति स्वरूप रोया जा सकता था।
और बूढा व्यक्ति अशक्त शरीर छोड़कर किसी नये सुकोमल शरीर में प्रवेश करेगा और वे आनन्द लेगा जो जरा-जीर्ण शरीर में सम्भव न थे, उसे अब की अपेक्षा आगे अधिक सुविधा ही मिलेगी, यह सोचकर मृत्यु के समय हँसा भी जा सकता था, पर जो ढर्रा चल पड़ा है, उसी पर लुढ़कना पड़ेगा। मृत्यु को शोक का विषय मान लिया गया है, तो यह मान्यता देर तक बनी ही रहेगी किन्तु इतना तो होना ही चाहिए कि शोक मनाने का लोकाचार एक नियत अवधि तक ही सीमित रखकर तत्पश्चात् उसे पूर्णतया समाप्त कर दिया जाय। यह अवधि तेरह दिन की पर्यात है। शोक-सन्ताप की विदाई का आयोजन मरणोत्तर संस्कार के रूप में मनाया जाता है।
मृतक के शरीर से अशुद्ध कीटाणु निकलते हैं। इसलिए मृत्यु के उपरान्त घर की पूरी सफाई करनी आवश्यक होती है। दीवारों की पुताई, जमीन की धुलाई, लिपाई, वस्त्र की गरम धुलाई, वस्तुओं की घिसाई, रंगाई आदि का ऐसा क्रम बनाना पड़ता है कि कोई छूत का अंश शेष न रहे। यह कार्य धीरे-धीरे न हो वरन् तेरह दिन में पूरा हो जाना चाहिए क्योंकि उस दिन दिवंगत आत्मा का मरणोत्तर संस्कार भी किया जाना है।
जो अनिवार्य है, सुनिश्चित है, उसके लिए तो सभी को पहले से ही तैयार रहना चाहिए और समय आने पर खुशी-खुशी उस ईश्वरेच्छा को पूरा होने देना चाहिए। मरने के बाद जितना कम शोक मनाया जाए, उतना ही विवेक की विजय मानी जाएगी। जो जितना शिर पीटते हैं वे उतने ही अविवेकी हैं। प्रचलित ढर्रे के अनुसार जन्म के समय हँसने और मरने के समय रोने की मान्यता है। हो तो यह भी सकता है के जन्मने के समय रोया और मरने के समय हँसा जाता। जीव किसी की गोदी खाली करके आया है, उसे रोना पड़ा होगा, जीव को भी प्रबुद्ध सुविकसित शरीर छोड़कर यह छोटा-सा अशक्त शरीर मिला है, इसमें यह बालक तथा उसके पूर्व परिवार की हानि ही हुई, इस पर सहानुभुति स्वरूप रोया जा सकता था।
और बूढा व्यक्ति अशक्त शरीर छोड़कर किसी नये सुकोमल शरीर में प्रवेश करेगा और वे आनन्द लेगा जो जरा-जीर्ण शरीर में सम्भव न थे, उसे अब की अपेक्षा आगे अधिक सुविधा ही मिलेगी, यह सोचकर मृत्यु के समय हँसा भी जा सकता था, पर जो ढर्रा चल पड़ा है, उसी पर लुढ़कना पड़ेगा। मृत्यु को शोक का विषय मान लिया गया है, तो यह मान्यता देर तक बनी ही रहेगी किन्तु इतना तो होना ही चाहिए कि शोक मनाने का लोकाचार एक नियत अवधि तक ही सीमित रखकर तत्पश्चात् उसे पूर्णतया समाप्त कर दिया जाय। यह अवधि तेरह दिन की पर्यात है। शोक-सन्ताप की विदाई का आयोजन मरणोत्तर संस्कार के रूप में मनाया जाता है।
मृतक के शरीर से अशुद्ध कीटाणु निकलते हैं। इसलिए मृत्यु के उपरान्त घर की पूरी सफाई करनी आवश्यक होती है। दीवारों की पुताई, जमीन की धुलाई, लिपाई, वस्त्र की गरम धुलाई, वस्तुओं की घिसाई, रंगाई आदि का ऐसा क्रम बनाना पड़ता है कि कोई छूत का अंश शेष न रहे। यह कार्य धीरे-धीरे न हो वरन् तेरह दिन में पूरा हो जाना चाहिए क्योंकि उस दिन दिवंगत आत्मा का मरणोत्तर संस्कार भी किया जाना है।
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