आचार्य श्रीराम शर्मा >> नामकरण संस्कार विवेचन नामकरण संस्कार विवेचनश्रीराम शर्मा आचार्य
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नामकरण संस्कार विवेचन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नामकरण संस्कार-विवेचन
नामकरण संस्कार जन्म के दशवें दिन किया जाता है। सूतक निवृत्ति या गृह
शुद्धि के लिए जहाँ प्रजनन हुआ हो तथा जहाँ सूतिका रही हो उस स्थान, कमरे
को लीप-पोत कर स्वच्छ करना चाहिए। जो वस्त्र, पहनने, बिछाने, ओढ़ने के हों
उन सबको शुद्ध करना चाहिए।
प्राचीन समय में शिशु-जन्म के ठीक समय पर भी यज्ञादि कार्य होते थे। अब वह प्रक्रिया कठिन हो गई है। इसलिए जातकर्म और नामकरण दोनों को इकट्ठा ही करना होता है।
पुंसवन संस्कार के समय जिस प्रकार मण्डप, वेदी, कलश आदि का प्रबंधन किया गया था और गायत्री हवन के सामान्य विधान के अनुसार सारी व्यवस्था बनाई गई थी, उपकरण इकट्ठे किये गये थे, उसी प्रकार इस संस्कार में भी करना होता है।
उपस्थित लोगों को यथास्थान बिठाकर आसनों पर पति-पत्नी बैठें। पत्नी गोदी के बच्चे को लेकर दाहिनी और पति बाँई ओर बैठें। बैठते समय अक्षत वर्षा करते हुए मंगल मंत्र ‘ॐ भद्रं कर्णेभि’ बोला जाय।
अभिषेक-अन्य कृत्य करने से पूर्व इस संस्कार में सबसे पहले अभिषेक होता है। बालक और उसकी माता यद्यपि स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर आये हैं, तब भी उनका आना सूतिका ग्रह से ही हुआ है, इसलिए उनकी अभिमन्त्रित जल से शुद्धि की जाती है।
बालक तो अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ, मानव शरीर में आया है, इसलिए उसके मन पर पाशविक संस्कारों की छाया रहनी स्वाभाविक है। इसको हटाया जाना आवश्यक है। यदि पशु -प्रवृत्ति ही बनी रही हो मनुष्य शरीर की विशेषता ही क्या रही ? जिसके अन्त:करण में मानवीय आदर्शों के प्रति निष्ठा, भावना है उसी को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है। इन्द्रिय-परायणता, स्वार्थपरता, निरुद्देश्यता, भविष्य की न सोचना, असंयम जैसे दोषों को पशु-प्रवृत्ति कहते हैं। इनका जिनमें बाहुल्य है, वे नर-पशु हैं। अपना नवजात शिशु नर-पशु नहीं रहना चाहिए। उसके चिर संचित कुसंस्कारों को दूर किया जाना चाहिए। इस परिशोधन के लिए संस्कार मण्डप में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम बालक का अभिषेक किया जाता है।
दश दिन के सूतक की निवृत्ति के लिए दश अभिसिंचन कलश बनाये जायें। दश लोटों में जल भरकर उनमें थोड़ा-थोड़ा गंगाजल डालें। उनकी गरदनों पर कलावा बाँधें। रोली-चन्दन से स्वस्तिक काढ़ दें। पानी में आम्र पल्लव रखें जो लोटे के मुँह से बाहर निकलते हुए दीखते रहें। एक पुष्प गुच्छ जल छिड़कने के लिए रखें। इन दशों कलशों को एक सुसज्जित चौकी पर रखा जाय। इनका पूजन ‘कलशस्य मुखे विष्णु:....’ मंत्रों से करें।
भावना की जाय कि जल में तीर्थों तथा देव-शक्तियों का निवास हो गया। यह जस भरे लोटे मात्र न रहकर देव सत्ता के प्रतीक कलश हो गये। दश व्यक्ति बाँयें हाथों पर कलश लेकर पीछे की ओर पंक्तिबद्ध खड़े हों। बच्चे का शरीर बाहर रखा जाय जिस पर छींटे पड़ते रह सकें। कुशाओं से अथवा पुष्प-गुच्छ से धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा जल तीनों के ऊपर छिड़का जाय। इसका मंत्र ‘ॐ हिरण्य गर्भ’ है। अभिषेक के बाद लोटे यथास्थान पर रख दिये जायें।
अभिषेक के समय माता-पिता की तथा उपस्थित सभी लोगों की भावना यह रहे कि बालक बड़ा आदमी नहीं, महापुरुष बने। जैसे हाथी, भैंसा, गेंडा, जिराफ, शुतुरमुर्ग, अजगर, मगर, ह्वेल, मछली आदि बड़े डील-डौल वाले होने पर भी तुच्छ जीवों में ही गिने जाते हैं, उसी प्रकार किसी के पास धन-दौलत, रूप, सौन्दर्य, शरीर, बल, शिक्षा, सत्ता, चतुरता, प्रतिभा, कला-कौशल आदि विशेषतायें कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हों यदि वह गुण-कर्म-स्वभाव की दृष्टि से निकृष्ट स्तर का है, तो उसे बड़ा आदमी भले ही कहा जाय, पर वह रहेगा नर-पशु ही। महापुरुष वे हैं जो भले ही निर्धन हों, सामान्य, सादगी का जीवन जीते हों, पर जिनके विचार, आदर्श एवं मनोभाव ऊँचे हैं, चरित्र शुद्ध है और लोक-सेवा के लिए जिनका योगदान है, वह महापुरुष कहे जायेगे। अभिषेक की भावना यही है कि नवजात-बालक बड़ा आदमी नहीं महापुरुष बने। माता-पिता को भी बालक का लालन-पालन इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए।
अभिषेक के उपरान्त पवित्रीकरण, आचमन, शिखा-बन्धन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी, पूजन, षट् शुद्धि कर्म, स्त्री-पुरुष दोनों करें। पुरुष को नया यज्ञोपवीत दिया जाय। उभयपक्षीय वरण, तिलक के उपरान्त संकल्प किया जाय। हाथ धोंवें। संस्कार कार्य में प्रयुक्त होने वाली सभी वस्तुओं का कुशा या पुष्प से मार्जन किया जाय। इसके उपरान्त दीप, पूजन, कलश-पूजन, देव-पूजन, नमस्कार, षोडशोपचार पूजन, चन्दन धारण, स्वस्तिवाचन एवं रक्षा विधान की विधियाँ पूर्ण की जाती हैं। इनके मंत्र अभिनव संस्कार पद्धति में दिये गये हैं। जितना समय हो उसके हिसाब से संक्षिप्त या विस्तृत विवेचन भी उन क्रियाओं की करते जाना चाहिए ताकि उपस्थित लोगों को यह विदित होता रहे कि कौन किस उद्देश्य से कराई जा रही है।
प्राचीन समय में शिशु-जन्म के ठीक समय पर भी यज्ञादि कार्य होते थे। अब वह प्रक्रिया कठिन हो गई है। इसलिए जातकर्म और नामकरण दोनों को इकट्ठा ही करना होता है।
पुंसवन संस्कार के समय जिस प्रकार मण्डप, वेदी, कलश आदि का प्रबंधन किया गया था और गायत्री हवन के सामान्य विधान के अनुसार सारी व्यवस्था बनाई गई थी, उपकरण इकट्ठे किये गये थे, उसी प्रकार इस संस्कार में भी करना होता है।
उपस्थित लोगों को यथास्थान बिठाकर आसनों पर पति-पत्नी बैठें। पत्नी गोदी के बच्चे को लेकर दाहिनी और पति बाँई ओर बैठें। बैठते समय अक्षत वर्षा करते हुए मंगल मंत्र ‘ॐ भद्रं कर्णेभि’ बोला जाय।
अभिषेक-अन्य कृत्य करने से पूर्व इस संस्कार में सबसे पहले अभिषेक होता है। बालक और उसकी माता यद्यपि स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर आये हैं, तब भी उनका आना सूतिका ग्रह से ही हुआ है, इसलिए उनकी अभिमन्त्रित जल से शुद्धि की जाती है।
बालक तो अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ, मानव शरीर में आया है, इसलिए उसके मन पर पाशविक संस्कारों की छाया रहनी स्वाभाविक है। इसको हटाया जाना आवश्यक है। यदि पशु -प्रवृत्ति ही बनी रही हो मनुष्य शरीर की विशेषता ही क्या रही ? जिसके अन्त:करण में मानवीय आदर्शों के प्रति निष्ठा, भावना है उसी को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है। इन्द्रिय-परायणता, स्वार्थपरता, निरुद्देश्यता, भविष्य की न सोचना, असंयम जैसे दोषों को पशु-प्रवृत्ति कहते हैं। इनका जिनमें बाहुल्य है, वे नर-पशु हैं। अपना नवजात शिशु नर-पशु नहीं रहना चाहिए। उसके चिर संचित कुसंस्कारों को दूर किया जाना चाहिए। इस परिशोधन के लिए संस्कार मण्डप में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम बालक का अभिषेक किया जाता है।
दश दिन के सूतक की निवृत्ति के लिए दश अभिसिंचन कलश बनाये जायें। दश लोटों में जल भरकर उनमें थोड़ा-थोड़ा गंगाजल डालें। उनकी गरदनों पर कलावा बाँधें। रोली-चन्दन से स्वस्तिक काढ़ दें। पानी में आम्र पल्लव रखें जो लोटे के मुँह से बाहर निकलते हुए दीखते रहें। एक पुष्प गुच्छ जल छिड़कने के लिए रखें। इन दशों कलशों को एक सुसज्जित चौकी पर रखा जाय। इनका पूजन ‘कलशस्य मुखे विष्णु:....’ मंत्रों से करें।
भावना की जाय कि जल में तीर्थों तथा देव-शक्तियों का निवास हो गया। यह जस भरे लोटे मात्र न रहकर देव सत्ता के प्रतीक कलश हो गये। दश व्यक्ति बाँयें हाथों पर कलश लेकर पीछे की ओर पंक्तिबद्ध खड़े हों। बच्चे का शरीर बाहर रखा जाय जिस पर छींटे पड़ते रह सकें। कुशाओं से अथवा पुष्प-गुच्छ से धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा जल तीनों के ऊपर छिड़का जाय। इसका मंत्र ‘ॐ हिरण्य गर्भ’ है। अभिषेक के बाद लोटे यथास्थान पर रख दिये जायें।
अभिषेक के समय माता-पिता की तथा उपस्थित सभी लोगों की भावना यह रहे कि बालक बड़ा आदमी नहीं, महापुरुष बने। जैसे हाथी, भैंसा, गेंडा, जिराफ, शुतुरमुर्ग, अजगर, मगर, ह्वेल, मछली आदि बड़े डील-डौल वाले होने पर भी तुच्छ जीवों में ही गिने जाते हैं, उसी प्रकार किसी के पास धन-दौलत, रूप, सौन्दर्य, शरीर, बल, शिक्षा, सत्ता, चतुरता, प्रतिभा, कला-कौशल आदि विशेषतायें कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हों यदि वह गुण-कर्म-स्वभाव की दृष्टि से निकृष्ट स्तर का है, तो उसे बड़ा आदमी भले ही कहा जाय, पर वह रहेगा नर-पशु ही। महापुरुष वे हैं जो भले ही निर्धन हों, सामान्य, सादगी का जीवन जीते हों, पर जिनके विचार, आदर्श एवं मनोभाव ऊँचे हैं, चरित्र शुद्ध है और लोक-सेवा के लिए जिनका योगदान है, वह महापुरुष कहे जायेगे। अभिषेक की भावना यही है कि नवजात-बालक बड़ा आदमी नहीं महापुरुष बने। माता-पिता को भी बालक का लालन-पालन इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए।
अभिषेक के उपरान्त पवित्रीकरण, आचमन, शिखा-बन्धन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी, पूजन, षट् शुद्धि कर्म, स्त्री-पुरुष दोनों करें। पुरुष को नया यज्ञोपवीत दिया जाय। उभयपक्षीय वरण, तिलक के उपरान्त संकल्प किया जाय। हाथ धोंवें। संस्कार कार्य में प्रयुक्त होने वाली सभी वस्तुओं का कुशा या पुष्प से मार्जन किया जाय। इसके उपरान्त दीप, पूजन, कलश-पूजन, देव-पूजन, नमस्कार, षोडशोपचार पूजन, चन्दन धारण, स्वस्तिवाचन एवं रक्षा विधान की विधियाँ पूर्ण की जाती हैं। इनके मंत्र अभिनव संस्कार पद्धति में दिये गये हैं। जितना समय हो उसके हिसाब से संक्षिप्त या विस्तृत विवेचन भी उन क्रियाओं की करते जाना चाहिए ताकि उपस्थित लोगों को यह विदित होता रहे कि कौन किस उद्देश्य से कराई जा रही है।
मेखला बन्धन
कमर में जो सूत का कई लड़ों का बँटा हुआ
रंगीन धागा बाँधा
जाता है, उसे मेखला कहते हैं। कहीं-कहीं इसे कौंधनी, करधनीं आदि भी कहा
जाता है। यह कटिबद्ध रहने का प्रतीक है। फौजी जवान, पुलिस के सिपाही कमर
में पेटी बाँधकर अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं। शरीर सुविधा की दृष्टि से भी
उसकी अनुपयोगिता हो सकती है, पर भावना की दृष्टि से कमर में बँधी हुई पेटी
चुस्ती, मुस्तैदी, निरा लस्यता, स्फूर्ति, तैयारी एवं कर्तव्य पालन के लिए
तत्परता का प्रतिनिधित्व करती है। यह गुण मनुष्य के प्रारम्भिक गुण हैं।
यदि इसमें कमी रही तो उसे गई-गुजरी, दीन-हीन स्थिति में पड़े हुए अविकसित
जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। आलसी, प्रमादी, हरामखोर, दीर्घसूत्री, असावधान,
लापरवाह व्यक्ति अपनी प्रतिभा एवं क्षमता को यों ही बर्बाद करते रहते हैं,
ढीला- पोला स्वभाव आदमी हो कहीं का नहीं रहने देता। उसके सब काम अधूरे,
लँगड़े, फूहड़ और अस्त-व्यस्त रहते हैं, फलस्वरूप कोई आशाजनक सत्परिणाम भी
नहीं मिल पाता। दूसरे परिश्रमी लोग जिन कामों में, जितने समय में, जितनी
साधना से जितनी सफलता प्राप्त कर लेते हैं आलसी, प्रमादी, लापरवाह लोग
उसका एक अंश भी प्राप्त नहीं कर पाते। जागरूकता का जल मिले बिना सारे
प्रयत्न सूखे मुरझाये ही बने रहते हैं।
इस दोष का बीजांकुर बच्चे में न जमने पाये इसकी सावधानी रखने के लिए जागरूकता एवं तत्परता का प्रतिनिधित्व करने वाली मेखला नामकरण संस्कार के अवसर पर कमर में बाँध दी जाती है। अभिभावक जब-जब उस मेखला को देखें तब-तब यह स्मरण कर लिया करें कि बच्चे को आलस्य-प्रमाद के दोष-दुर्गुणों से बचाये रखने के लिए उन्हें प्राण-प्रण से प्रयत्न करना है। जैसे-जैसे बच्चा समझदार होता चले वैसे-वैसे उसके स्वभाव में मुस्तैदी, श्रमशीलता एवं काम में मनोयोगपूर्वक जुटने का गुण बढ़ाते चलना चाहिए। इस संबंध में जो हानि-लाभ हो सकते हैं उन्हें भी समय-समय पर बताते, सिखाते, समझाते रहना चाहिए।
मेखला बन्धन का मंत्र ॐ इमं दुरुक्तं....है।
इस दोष का बीजांकुर बच्चे में न जमने पाये इसकी सावधानी रखने के लिए जागरूकता एवं तत्परता का प्रतिनिधित्व करने वाली मेखला नामकरण संस्कार के अवसर पर कमर में बाँध दी जाती है। अभिभावक जब-जब उस मेखला को देखें तब-तब यह स्मरण कर लिया करें कि बच्चे को आलस्य-प्रमाद के दोष-दुर्गुणों से बचाये रखने के लिए उन्हें प्राण-प्रण से प्रयत्न करना है। जैसे-जैसे बच्चा समझदार होता चले वैसे-वैसे उसके स्वभाव में मुस्तैदी, श्रमशीलता एवं काम में मनोयोगपूर्वक जुटने का गुण बढ़ाते चलना चाहिए। इस संबंध में जो हानि-लाभ हो सकते हैं उन्हें भी समय-समय पर बताते, सिखाते, समझाते रहना चाहिए।
मेखला बन्धन का मंत्र ॐ इमं दुरुक्तं....है।
मधुप्राशन
इसके बाद बालक को शहद चटाया जाता है। सोने
या चाँदी की चम्मच
से चटाने की विधि है पर यदि वैसी व्यवस्था न हो तो पिता अथवा आचार्य उँगली
से भी चटा सकता है। सम्मान देने की दृष्टि से यह कार्य उपस्थित लोगों में
से किसी सम्भ्रान्त व्यक्ति से भी कराया जा सकता है। शहद की मात्रा स्वल्प
ही रखनी चाहिए। मधु-प्राशन का मंत्र ‘ॐ प्रते
ददामि....है।’
शहद चटाने में मधुर भाषण की शिक्षा का समावेश है। सज्जनता की पहचान किसी व्यक्ति की वाणी से होती है। शालीनता की परख मधुर, नम्र, प्रिय, शिष्टता से भरी हुई बोलचाल देखकर ही की जा सकती है। इसी गुण के आधार पर दूसरों का स्नेह, सद्भाव एवं सहयोग प्राप्त होता है। वशीकरण मंत्र-मधुर भाषण होता है। कोयल की प्रशंसा और कौए की निन्दा, उनका रंग-रूप एक-सा होने पर भी वाणी संबंधी अन्तर के कारण ही होती है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उनका जीवन-क्रम 80 प्रतिशत दूसरों के सहयोग सहकार पर चलता है। इन्हें जिस मूल्य पर खरीदा जाता है उसमें मधुर भाषण का प्रथम स्नान है। पक्ष एवं आधार उतना सही न होने पर भी मधुर भाषण के साथ लोग उदार व्यवहार करते हैं। इसके विपरीत किसी का पक्ष औचित्य एवं न्यायानुमोदित ही क्यों न हो पर यदि वह कर्कश, अशिष्ट एवं उच्छृंखल ढंग से बोलता, बात करता है तो लोग उससे उदासीन, रुष्ट हो जाते हैं, कई बार तो विरोधी तक हो जाते है। कर्कश ढंग से बोलना दूसरों का अप्रत्यक्ष अपमान है, इससे ढीठता, उद्दण्डता, अहमन्यता एवं दुष्टता की गंध आती है। ऐसा कर्ण-कटु वचन किसी को नहीं सुहाता। भले ही बात सही या उचित कही जा रही हो, पर यदि उसमें कटुता, कर्कशता भरी हुई है तो कोई उसे सुनना नहीं चाहेगा।
शहद चटाने में मधुर भाषण की शिक्षा का समावेश है। सज्जनता की पहचान किसी व्यक्ति की वाणी से होती है। शालीनता की परख मधुर, नम्र, प्रिय, शिष्टता से भरी हुई बोलचाल देखकर ही की जा सकती है। इसी गुण के आधार पर दूसरों का स्नेह, सद्भाव एवं सहयोग प्राप्त होता है। वशीकरण मंत्र-मधुर भाषण होता है। कोयल की प्रशंसा और कौए की निन्दा, उनका रंग-रूप एक-सा होने पर भी वाणी संबंधी अन्तर के कारण ही होती है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उनका जीवन-क्रम 80 प्रतिशत दूसरों के सहयोग सहकार पर चलता है। इन्हें जिस मूल्य पर खरीदा जाता है उसमें मधुर भाषण का प्रथम स्नान है। पक्ष एवं आधार उतना सही न होने पर भी मधुर भाषण के साथ लोग उदार व्यवहार करते हैं। इसके विपरीत किसी का पक्ष औचित्य एवं न्यायानुमोदित ही क्यों न हो पर यदि वह कर्कश, अशिष्ट एवं उच्छृंखल ढंग से बोलता, बात करता है तो लोग उससे उदासीन, रुष्ट हो जाते हैं, कई बार तो विरोधी तक हो जाते है। कर्कश ढंग से बोलना दूसरों का अप्रत्यक्ष अपमान है, इससे ढीठता, उद्दण्डता, अहमन्यता एवं दुष्टता की गंध आती है। ऐसा कर्ण-कटु वचन किसी को नहीं सुहाता। भले ही बात सही या उचित कही जा रही हो, पर यदि उसमें कटुता, कर्कशता भरी हुई है तो कोई उसे सुनना नहीं चाहेगा।
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