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आचार्य श्रीराम शर्मा >> शरीर की अद्भुत क्षमताएँ एवं विशेषताएँ

शरीर की अद्भुत क्षमताएँ एवं विशेषताएँ

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4168
आईएसबीएन :00000

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शरीर की अद्भुत क्षमताएं और विशेषताएँ.....

Sharir ki Adbhut Kshamtayein Evam Visheshtayein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अद्भुत और विलक्षण यह शरीर

हमारी शरीर यात्रा जिस रथ पर सवार होकर चल रही है, उसके कलपुर्जे कितनी विशिष्टताएँ अपने अंदर धारण किये हुए हैं ? हम कितने समर्थ और कितने सक्रिय हैं ? इस पर हमने कभी विचार ही नहीं किया। बाहर की छोटी-छोटी चीजों को देखकर चकित हो जाते हैं और उनका बढ़ा-चढ़ा मूल्यांकन करते हैं, पर अपनी ओर अपने छोटे-छोटे कलपुर्जों की महत्ता की ओर कभी ध्यान तक नहीं देते। यदि उस ओर भी कभी दृष्टिपात किया होता, तो पता चलता कि अपने छोटे से छोटे अंग-अवयव कितनी जादू जैसी विशेषता और क्रियाशीलता अपने में धारण किए हुए हैं। उन्हीं के सहयोग से हम अपना सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जी रहे हैं। विशिष्टता मानवी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र कार्य संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें, तो इस क्षेत्र में भी कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या—पिछड़े स्तर के प्राणी—शरीरों में भी वे विशेषताएँ नहीं मिलतीं, जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंका है।

शरीर रचना से लेकर मन:संस्थान और अंत:करण की भाव-संवेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण अद्भुत दृष्टिगोचर होता है। यह सोद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा एक ही घटक पर कलाकार का इतना श्रम और कौशल नियोजित होने की क्या आवश्यकता थी ? यह मात्र संयोग नहीं है और न इसे रचनाकार का कौतुक-कौतूहल कहा जाना चाहिए। मनुष्य को विशेष प्रयोजन के लिए बनाया गया। इस विशेष को संपन्न करने के लिए उसका प्रत्येक उपकरण इस योग्य बनाया गया है कि उसके कण-कण में विशेषता देखी जा सके।

शरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले चमड़ी नजर आती है। मोटे तौर से वह ऐसी लगती है, मानो शरीर पर कोई मोमी कागज चिपका हो। बारीकी से देखने पर प्रतीत होता है कि उसमें भी पूरा कल-कारखाना काम कर रहा है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट लंबी तंत्रिकाओं का जाल बिछा होता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लंबाई नापी जाए, तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेंगी। यह रक्त-वाहनियाँ सर्दी में सिकुड़ती और गर्मी में फैलती रहती हैं ताकि तापमान का संतुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 2 लाख स्वेद ग्रंथियाँ होती हैं, जिनमें से पसीने के रूप में हानिकारक पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं। पसीना दीखता तो तब है जब वह बूँदों के रूप में बाहर आता है, वैसे वह धीरे-धीरे रिसता सदा ही रहता है।

त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है, पर उसके तीन विभाग किये जा सकते हैं-ऊपरी चमड़ी, भीतरी चमड़ी और सब-क्यूटेनियस टिश्यू। नीचे वाली तीसरी परत में रक्त-वाहनियाँ, तंत्रिकाएँ और वसा के कण होते हैं। इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ जब वह वसा कण सूखने लगते हैं, तो त्वचा पर झुर्रियाँ लटकने लगती हैं। भीतरी चमड़ी में तंत्रिकाएँ, रक्त वाहनियाँ, रोम कूप, स्वेद ग्रंथियाँ तथा तेल ग्रंथियाँ होती हैं। इन तंत्रिकाओं को एक प्रकार से संवेदनावाहक टेलीफोन के तार कह सकते हैं। ये त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं और वहाँ के निर्देश-संदेशों को अवयवों तक पहुँचाते हैं।

त्वचा के भीतर घुसें तो मांसपेशियों का ढाँचा खड़ा है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना-डुलना, मुड़ना, चलना, फिरना संभव हो रहा है। शरीर की सुंदरता और सुडौलता बहुत करके मांसपेशियों की संतुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। फैली, पोली, बेडौल सूखी पेशियों के कारण ही अक्सर शरीर कुरुप लगता है। प्रत्येक अवयव को उचित श्रम मिलने से वे ठीक रहती हैं अन्यथा निठल्लापन एवं अत्यधिक श्रम साधन उन्हें भोंड़ा, निर्जीव और अशक्त बना देता है। श्रम संतुलन का ही दूसरा नाम व्यायाम है, प्रत्येक अंग को यदि उचित श्रम का अवसर मिलता रहे तो वहाँ की मांसपेशियाँ सुदृढ़ सशक्त रहकर स्वास्थ्य और सौंदर्य को आदर्श बनाये रहेंगी।  

शरीर का 50 प्रतिशत भाग मांसपेशियों के रूप में है। मोटे और पतले आदमी इन मांसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही वैसे मालूम पड़ते हैं। प्रत्येक मांसपेशी अनेकों तंतुओं से मिलकर बनी है। वे बाल के समान पतले होते हैं, पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख गुना वजन उठा सके। इन पेशियों में एक चौथाई प्रोटीन और तीन चौथाई पानी होता। इनमें जो बारीक रक्त नलिकाएँ फैली हुई हैं, वे ही रक्त तथा दूसरे आवश्यक आहार पहुँचाती हैं। मस्तिष्क का सीधा नियंत्रण इन मांसपेशियों पर रहता है, तभी हमारा शरीर मस्तिष्क की आज्ञानुसार विभिन्न प्रकार के क्रिया कलाप करने में सक्षम रहता है। कुछ मांसपेशियाँ ऐसी हैं, जो अचेतन मन के अधीन हैं। पलक झपकना, हृदय का धड़कना, फेफड़ों का सिकुड़ना, फैलना, आहार का पचना, रक्त संचार आदि की क्रियाएँ अनवरत रूप से होती रहती हैं और हमें पता नहीं चलता कि कौन उनका नियंत्रण संचालन कर रहा है ? वस्तुतः यह हमारे अचेतन मन का खेल है और अंग-प्रत्यंगों को उनके नियत निर्धारित विषयों में संलग्न किये रहता है।

इन मांसपेशियों को विशेष प्रयोजनों के लिए सधाया, सिखाया जा सकता है। सर्कस में काम करने वाले नट, नर्तक अपने अंगों को इस प्रकार अभ्यस्त कर लेते हैं कि वे आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाते हैं। चोट लगने पर हड्डियों को टूटने से बचाने का कार्य यह मांसपेशियाँ ही करती हैं। शरीर से मुड़ने-तुड़ने, उछलने-कूदने जैसे विविध-विधि काम करना हमारे लिए इन मांसपेशियों के कारण ही संभव होता है। मर्दों की पेशियाँ स्त्रियों की तुलना में अधिक कड़ी और मजबूत होती हैं, ताकि वे अधिक परिश्रम से काम कर सके, अन्य अंगों की अपेक्षा हाथों की पेशियाँ अधिक शक्तिशाली होती हैं।
इन अवयवों में से जिस पर भी तनिक गहराई से विचार करें उसी में विशेषताओं का भंडार भरा दीखता है। यहाँ तक कि बाल जैसी निर्जीव और बारबार खरपतावार की तरह उखाड़-काटकर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत है।

औसतन मनुष्य के सिर में 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल एक नन्हे गड्ढे से निकलता है, जिसे रोम कूप कहते हैं। यह चमडी के शिरोवल्क के भीतर प्रायः एक तिहाई इंच गहरा घुसा होता है। इसी गहराई में बालों की जड़ को रक्त का पोषण प्राप्त होता है।

बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है, इसके बाद वह घटती जाती है। जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं, तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाल तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। बालों की आयु डेढ़ वर्ष से लेकर छह वर्ष तक होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाता है और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।

यों बाल तिरछे निकलते हैं, पर उनके मूल में एक पेशी होती है, जो कड़ाके की सर्दी या भय की अनुभूति में रोमांच में बाल खड़े कर देती है। बिल्ली कभी कभी अपने बाल सीधे खड़े कर लेती है बालों की जड़ों में पसीना निकालने वाले छिद्र भी होते हैं और उन्हें चिकनाई देने वाले छेद भी बालों की कोमलता, चिकनाई और चमक रोम कूपों से निकलने वाली चिकनाई की मात्रा पर ही निर्भर है।


आंतरिक अवयव और भी विलक्षण



शरीर के आतंरिक अवयवों की रचना तो और भी विलक्षण है। उनकी सबसे बड़ी एक विशेषता तो यही है कि वे दिन-रात गतिशील क्रियाशील रहते हैं। उनकी क्रियाएँ एक क्षण को भी रुक जाएँ, तो जीवन संकट तक उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए, हृदय को ही लें। हृदय की धड़कन में सिकुड़ने की सिस्टोल और फैलने की डायेस्टोल क्रिया होती रहती है। इसी क्रिया के कारण रक्त संचार होता है और जीवन के समस्त क्रियाकलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नदी-नाले की तरह नहीं चलता, वरन पंपिग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। पंप में झटका मारने की क्रिया होती है। उससे गति मिलती है। नीचे की दिशा में तो प्रवाह अपने आप भी होता है, पर ऊपर की ओर ले जाना हो तो उसके पीछे शक्ति का दबाव होना आवश्यक है। आकुंचन-प्रकुंचन से झटका लगता है और उसके दबाव से रक्त चक्र नीचे जाने और ऊपर आने की दोनों आवश्यकताएँ पूरी कर लेता है। हृदय की धड़कन रक्त के परिभ्रमण में काम आने वाली गति की व्यवस्था करती है।

कोई यंत्र लगातार काम करने से गरम हो जाता है। श्रम के साथ विश्राम भी आवश्यक है। श्रम में शक्ति का व्यय होता है, विश्राम उसको फिर से जुटा देता है। हृदय के आकुंचन-प्रकुंचन से जहाँ झटके द्वारा शक्ति उत्पादन की आवश्यकता पूरी होती है, वहाँ इन दोनों क्रियाओं के बीच मध्यांतर की अवधि में विश्राम का लाभ भी उसे मिलता रहता है। एक धड़कन एक मिनट के 72 वें भाग में या एक सेकंड के पाँच बटे छह भाग में संपन्न होती है। इस अल्प अवधि में ही असंख्य विद्युत तरंगे उसे संस्थान से प्रवाहित होती हैं। इन तंरगों के विद्युत आवेशों को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम के माध्यम से रिकार्ड करके हृदय की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है।



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