आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
चतुर जनों की यह रीति है कि वे किन्हीं महापुरुषों की कृपा प्राप्त करने के लिए उनकी प्रिय संतान की सेवा और प्यार करते हैं। अपने आत्मीय जनों को प्यार करता हुआ देखकर बड़े कठोर हृदय के व्यक्ति को भी पिघलते देखा गया है। फिर परमात्मा जो इतना सहृदय और दयालु है वह अपने बालकों के प्रति कर्त्तव्य भावना को पूरा हुआ देखकर भला क्यों न प्रसन्न होगा। इससे तो वे भक्त की अन्य कामनाएँ भी सहर्ष पूरी कर देते हैं।
वेद में कहा गया है कि "जो लोग संपूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहते हैं परमात्मा उनका भार स्वयं वहन करता है। पर समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का समुचित रीति से पालन न करने वाले ईश्वर-भक्त आत्म-कल्याण में समर्थ नहीं होते। समाज भी तो मनुष्य का अपना ही स्वरूप है। अपने स्वार्थ की पूर्ति में तो उद्यत रहा जाए, पर अपने ही समान अपने समाज के प्रति परमार्थ का ध्यान न रखा जाए तो उस ईश्वर-उपासना से आत्म-संतोष होना असंभव है।
निर्ममता और अहंकार से मुक्ति मिल गई, इसका प्रमाण एकात्मवादी होकर नहीं दिया जा सकता। मनुष्य सबके प्रति उदारतापूर्वक व्यवहार करेगा तभी उसकी ममता का भाव नष्ट होगा। अहंकार भी, जब तक अपने आपको औरों के लिए त्यागपूर्वक घुलाया न जाएगा तब तक, दूर होना संभव नहीं। ईश्वर कभी किसी के सामने प्रत्यक्ष नहीं हुआ। इसलिए वह प्रत्यक्ष सेवाएँ भी कभी नहीं ले सकता। उपासना और प्रार्थना से प्रभावित होकर मनुष्य रूप धारण कर कदाचित वह ईश्वर अपनी विभूतियों सहित भक्त के समक्ष उपस्थित हो जाता और भक्त अपना सर्वस्व अर्पण कर देता तो संभव था उस स्थिति में उसे आत्म-संतोष हो जाता, पर परमात्मा के संसार में ऐसी व्यवस्था नहीं है। यदि वह अपने आराधक की त्याग वृत्ति को देखना चाहेगा तो अपने किसी बालक को ही परीक्षा के लिए भेजेगा। हम अपने बच्चे, धर्मपत्नी, परिवार, गाँव, मुहल्ले वाले, समाज और राष्ट्र तथा संपूर्ण विश्व के लिए आत्म-त्याग की भावना का परिष्कार करके ही तो सर्वात्मा की कृपा का पुण्य फल प्राप्त कर सकते हैं और यह तभी संभव है जब हम सबके साथ प्यार करें। सबके साथ आत्मीयता रखें, सबके साथ सहानुभूति बरतें, सबकी उन्नति में सहयोग दें। किसी के साथ ईर्ष्या-द्वेष, छल-पाखंड, अन्याय, अत्याचार करके परमात्मा की कृपा का अधिकार प्राप्त करने की बात सोचना मिथ्या है।
तब यह आवश्यक है कि उपासना का स्वरूप बहुमुखी हो। आत्मोद्धार के लिए एकांत में बैठकर करुणा-भाव से ईश्वर की उपासना की जाए, पर अपने अन्य भाइयों को भी असहाय अवस्था से ऊपर उठाया जाए। भगवान के स्वरूप को याद करते हुए प्रेमपूर्वक उनके नाम का जप और कीर्तन, ध्यान और भजन तो किया जाए, पर उनके समाज शरीर की भी उपेक्षा न की जाए। संपूर्ण जीवों में भगवान् का अंश विराजमान है, सब लोग उसी की विविध मूर्तियाँ हैं। सब उसके अंग हैं। सब उसके साधन हैं। एक साधन के लिए अन्य साधन क्यों भुलाए जाएँ ? ईश्वर की एकांगी उपासना क्यों की जाए ?
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