आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
इस प्रकार जब सब ओर परमात्मा का प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देने लगता है, जीव अपनी लघुता की पहचान कर लेता है और कातरभाव से परमात्मा को पुकारता है तो उसके अंतःकरण की गहराई भी स्थिर नहीं रह सकती। वह अंतःकरण को मथ डालती है और उसमें से दिव्य ईश्वरीय प्रेम निखरता हुआ चला आता है। प्रेम में ही परमेश्वर है, प्रेम की सत्ता ने चर-अचर, स्थावरं-जंगम सबको क्रियाशील बना रखा है। प्रेम ही संपूर्ण पवित्र है। अपवित्रता तो आसक्ति थी, मोह था, ममता थी, वासना थी। जब वही न रहे तो मलिनता कैसी ? जीव मात्र के सौंदर्य का सागर अंतःकरण में फूट पड़ता है। जीव मात्र की चैतन्यता की शक्ति अंतःकरण में जाग पड़ती है। जब सब अपने, जब सब कुछ अपना तो कहाँ अभाव, कहाँ आसक्ति, कहाँ अज्ञान ? सब ओर मंगल, आनंद ही आनंद बिखरा दिखाई देने लगता है।
प्रतिक्रिया का नियम तो जड़ वस्तुओं तक में है। कुएँ और पोखर की ओर मुख करके बोली गई आवाज भी जब प्रतिध्वनित होकर आ जाती है तो निःस्सीम गहराई से लौटी हुई भावनाओं की प्रतिक्रिया का तो कहना ही क्या। जीव जिस भावना से परमात्मा की पुकार लगाता है, उसी गहराई से भगवान का प्रेम, आशीर्वाद और प्रकाश भी उस तक पहुँचने लगता है। उसकी प्रिय वाणी फूटती है और कहती है--"वत्स ! हम तुम दोनों एक ही हैं, तुम मुझसे विलग कब हो ? यह जो तुम खेल-खेलते रहे हो वह मेरी ही तो इच्छा थी, उसमें जो कुछ खराब था, उसका दुःख न कर, उसे भी मेरी ही इच्छा समझकर मुझको ही सौंप दें। तूने ! यह पाप किए हैं, ऐसा भूलकर अब यह मान कि यह तो मेरा ही अभियान, मेरी ही इच्छा थी। अब तू उन सब बुराइयों को समर्पित करके निर्द्वद्व हो जा। जब तू सारे संसार से मोह-ममता के बंधन हटाकर 'अहं विमुक्त' हो रहा है, तो अपनी भूलों और गलतियों को ही अपनी मानने की भूल क्यों करता है ? अपना संपूर्ण अहंकार छोड़कर तू संपूर्ण भाव से मेरी शरण में आ गया है तो पापों को धो डालने का उत्तरदायित्व भी मेरा ही है।"
भावनाओं के इस आदान-प्रदान में भी बड़ा रस है। माना कि परमेश्वर दिखाई नहीं देता। पर मन की मलिनताओं के प्रति घृणा और विराट के प्रति प्रेम से निर्मित स्वच्छ जीवन का सुख तो प्रत्यक्ष है ही। जिसके हृदय में सत्य है वह भला किसी से भय क्यों करेगा, जिसके हृदय में सबके लिए प्रेम, दया और करुणा होगी, वह भला किस अभाव से पीड़ित होगा ? प्रेम में वह शक्ति है, जो हिंसक जीव को भी वश में कर लेती है, फिर जब जीव मात्र में परमात्मा और परमात्मा के प्रति अपनत्व का भाव उमड़ने लगेगा तो किसी से छल-कपट, द्वेष-दुर्भाव का दुःख मनुष्य क्यों उठाएगा।
आत्मीयता की इस साधना से बढ़कर और कोई साधना नहीं, उसमें आदि से लेकर अंत तक मधुरता, सौंदर्य ही सौंदर्य है, किंतु वह सौंदर्य और माधुर्य संसार के किसी एक पदार्थ या परिस्थिति में उपलब्ध नहीं हो सकते। जीव स्वयं लघु है, उसकी तरह ही हर कण छोटा और अभाव की स्थिति में है, सबका सम्मिलित भाव परमात्मा है। आत्मीयता ही उसका निर्विवाद और निर्भय स्वरूप है। इसलिए हम उसके प्रति आत्मीयता अपनाकर ही अपनी लघुता को विभुता में बदल सकते हैं। परमात्मा के प्रति प्रगाढ़ अपनत्व में ही वह शक्ति है, जो जीव को रस माधुर्य और आनंद प्रदान करती है। जिसने भी उससे स्वयं को जोड़ लिया, सघन आत्मीयता और अभिन्नता स्थापित कर ली, उसका आत्म-विस्तार अनंत हो जाता है। उसकी स्वयं की परिधि मिट जाती है और परमात्मा का विस्तार ही उसका आत्म-विस्तार बन जाता है। परमात्मा का वैभव उसका अपना वैभव बन जाता है। आत्म-विस्तार की यही परिणति है। अंततः वैभव, असीम आनंद तथा अखंड शांति। अतः आत्म-संकोच नहीं, आत्म-विस्तार ही साध्य एवं लक्ष्य होना चाहिए। आत्मीयता के घेरे को, अपनी पत्नी-बच्चे या परिवार तक सीमित रखने वाले दीन-हीन, संकीर्ण बने रहें या परमात्मा की विराट सत्ता तक का आत्मविस्तार कर, अनंत वैभव के स्वामी बनें, यह हर एक व्यक्ति के अपने ही हाथ में है। आत्मीयता की अभिवृद्धि से ही माधुर्य और आनंद की वृद्धि होती है।
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