आचार्य श्रीराम शर्मा >> विज्ञान को शैतान बनने से रोकें विज्ञान को शैतान बनने से रोकेंश्रीराम शर्मा आचार्य
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विज्ञान को शैतान न बनायें....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सह-अस्तित्व का नैसर्गिक नियम
जर्मन प्राणिशास्त्रवेत्ता हेकल लगभग एक शताब्दी पूर्व इस निष्कर्ष पर
पहुँचे थे कि सृष्टि क्रम विविध इकाइयों के सहयोग-संतुलन पर चल रहा है।
जिस प्रकार शरीर के कलपुर्जे कोशिकाएँ और ऊतक मिल-जुलकर जीवन की
गतिविधियों का संचालन करते हैं, उसी प्रकार संसार के विविध घटक एक-दूसरे
के पूरक बनकर सृष्टि-संतुलन को यथाक्रम बनाये हुए हैं। यह अन्यान्योश्रय
व्यवस्था सृष्टिकर्ता ने बहुत ही समझ-सोचकर बनाई है और आशा रखी है कि
सामान्य उपयोग के समय मामूली हेर-फेरों के अतिरिक्त किसी के द्वारा इसमें
भारी उलट-पलट नहीं की जाएगी।
सृष्टा की यह इच्छा और व्यवस्था जब तक बनी रहेगी, तब तक कोई इस धरती का अद्भुद सौंदर्य मनोरम क्रियाकलाप भी जारी रहेगा।
उपरोक्त प्रतिपादन को हेकल ने ‘इकॉलोजी’ नाम दिया है। तब से लेकर अब तक इस ओर विज्ञानवेत्ताओं की रुचि घटी नहीं, वरन् बढ़ी ही है और शोध क्षेत्र के इस नये पक्ष को एक स्वतंत्र शास्त्र ही मान लिया गया है। अब सृष्टि -संतुलन विज्ञान को इकाँलोजी शब्द के अंतर्गत लिया जाता है।
इकाँलोजी शोध प्रयासों द्वारा इस निष्कर्ष पर अधिकाधिक मजबूती के साथ पहुँचा जा रहा है कि प्रक्रति की हर वस्तु एक-दूसरे के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ी हुई है। आक्सीजन, पानी, रोशनी, पेड़-पौधे, कीटाणु, पशु-पक्षी और मनुष्य यह सब एक ही धारा-प्रवाह अलग-अलग दीखने वाली लहरें हैं, जो वस्तुतः एक-दूसके के साथ विविध सूत्रों द्वारा आबद्ध हो रही है।
सृष्टि -संतुलन शास्त्र के अन्वेषक तीन ऐसे सिद्धान्त निश्चित कर चुके हैं, जिनके आधार पर प्रकृतिगत सहयोग श्रृंखला इस जगत् की व्यवस्था को धारण कर रही है। पहला सिद्धांत है –परस्परावलंबन-इंटरडिपेंडेंस, दूसरा है-मर्यादा-लिमिटेशन और तीसरा- सम्मिश्रता-कांप्लेक्स्टी। यही तीनों भौतिक सिद्धांत अपने मिले-जुले क्रम से विश्व प्रवाह को गतिशील कर रहे हैं। जिस प्रकार अध्यात्म जगत् में सत-चित-आनंद की, सत्य-शिवं-सुंदरम् की, सत-रज-तम की ईश्वर जीव-प्रकृति की-मान्यता है और माना जाता है कि इन्हीं चेतना तत्वों के आधार पर जीवधारियों की प्रवृत्ति, मनोवृत्ति की क्रम-व्यवस्था चलती है। ठीक इसी तरह संतुलन शास्त्री यह मानते हैं कि सृष्टि क्रम की सुव्यस्था इंटरडिपेंडेंस, लिमिटेशन और कांप्लेक्सिटी पर निर्भर है।
परस्परावलंबन (इंटरडिपेंडेस) का सिद्धांत यह बताता है कि प्रकृति की हर चीज अन्य सब वस्तुओं के साथ जुड़ी-बँधी है। किसी भी जीव की सत्ता अन्य असंख्य जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है। मानवी सत्ता अन्य असंख्य जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है। मानवी सत्ता स्वतंत्र नहीं है। यदि पेड़-पौधे ऑक्सीजन पैदा करना बंद कर दें तो वह बेमौत मर जायेगा। विशालकाय वृक्ष का जीवन उन छोटे कीटाणुओं पर निर्भर है, जो सूखे पत्तों का विघटन कर उन्हें खाद के रूप में परिणित करते हैं और जड़ों के पोषण की व्यवस्था जुटाते हैं। जमीन में रहने वाले बैक्टीरिया किस प्रकार जड़ों की खुराक पहुँचाते हैं। और चींटी, दीमक आदि छोटे कीड़े किस प्रकार जड़ों तक हवा, रोशनी और नमी पहुँचाने में अधिक परिश्रम करते हैं। इसे जाने बिना हम वृक्ष के जीवन आधार का सहीं मूल्यांकन कर ही नहीं सकते। वृक्ष अपने आप में स्वतंत्र नहीं हैं, वे कोटि-कोटि जीवन घटकों के अनुग्रह पर आश्रित और जीवित हैं।
वन-जन्तुओं की प्रमुख खाद्य आवश्यकता, जो पौधा पूरी करता है, वह भी पराश्रयी पाया गया है। छोटे कीड़े कई तरह के बीज और खाद इधर से उधर लिए फिरते हैं, यह सीधा उसी से अपना जीवन ग्रहण करता है। कीड़ों की हरकतें बंद करने के उपरांत प्रयोगकर्ताओं ने देखा कि खाद, पानी की सुविधा देने के बाद भी पौधा उगने और बढ़ने की क्षमता खोता चला गया।
संतुलन शास्त्र का दूसरा नियम मर्यादा-लिमिटेशन-यह सिद्धि करता है हर प्राणी और हर पदार्थ की एक मर्यादा है, जब वह उससे आग बढ़ने का प्रयत्न करता है, तभी रोक दिया जाता है। वंश वृद्धि की क्षमता प्राणियों में निःसंदेह अदभुद है, पर इससे भी तेज कुल्हाड़ी इस अभिवर्धन को नियंत्रित करने के लिए कोई अदृश्य सत्ता सहज ही चलाती रहती है। प्राणी सृजन कितना हा क्यों न करे, पर दौड़ में मृत्यु को नहीं जीत सकता है। जैसे ही जन्म दर की दौड़ बढ़ती है वैसे ही मृत्यु की बाघिन, उसे दबोच कर रख देती है। प्राणियों का शरीर -पेडों का विस्तार एक सीमा पर जाकर रुक जाता है। पौधे एक सीमा तक ही सूर्य किरणों को सोखते हैं और निर्धारित मात्रा में ही आक्सीजन पैदा करते हैं। उपभोक्ताओं की संख्या और उपयोग की मात्रा जब तक उत्पादन के अनुरूप रहती तब तक ढर्रा ठीक तरह चलता रहता है, पर जब उत्पादन से उपभोग की मात्रा बढ़ जाती है तो विनाश का देवता उन उपभोक्ताओं के गले मरोड़ देता है। संतुलन जब तक रहेगा तब तक शांति रहेगी, पर जहाँ भी जिसने भी मर्यादा का उल्लंघन करने वाला सिर उठाया, वहीं कोई छिपा हुआ भैरव वेताल- उठे हुए सिर को पत्थर मारकर कुचल देता है। आततायी और उच्छृंखल मनुष्यों के अहंकार को किसी न किसी कोने से उभर पड़ने वाली प्रतिक्रिया का शिकार बनना पड़ता है। पेट की आवश्यकता से अधिक आहार करने वाले अपच और उदर शूल का कष्ट सहते हैं प्रकृति उल्टी और दस्त कराकर उस अपरहण को वापिस करने के लिए बाध्य करती है।
सम्मिश्रता-कांप्लेक्सिटी का सिद्धांत बताता है कि जिनके साथ हमारा प्रत्यक्ष संबंध नहीं दीखता, उनके साथ भी दूर का संबंध नहीं दीखता, और घटनाक्रम प्रकारांतर से-परोक्ष रूप में उन्हें भी प्रभावित करता है, जो उससे सीधा संबंध नहीं समझते। विश्व में कहीं भी घटिल होने वाले घटना क्रम को हम यह कहकर उपेक्षित नहीं कर सकते कि इससे हमारा क्या संबंध है ? प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से सही, हम कहीं भी-किसी भी स्तर की घटना से अवश्यमेव प्रभावित होते हैं।
अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी गरुड़ अब तक अपना अस्तित्व गँवाने की तैयारी में है। इस आत्महत्या जैसी सत्ता निःसृति का क्या कारण हुआ, इसकी खोज करने वाले जीव शास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि पौधों को कीड़ों से बचाने के लिए जिन डी.डी.टी सरीखे रासायनिक द्रवों का उपयोग होता रहा है, उससे गरुड़ के स्वाभाविक आहार में प्रतिकूलता भर गई, फलस्वरूप वह प्रजनन क्षमता खो बैठा।
अब वह पक्षी वंशवृद्धि की दृष्टि से प्रायः निखट्टू ही बनकर रह गया है। ऐसी दशा में इसके अस्तित्व का अंत होना स्वाभाविक ही था। यों रासानिक घोलों का गरुण की प्रजनन शक्ति से सीधा संबंध नहीं बैठता, पर संबंध सूत्र मिलाने पर एक के लिए किया गया प्रयोग दूसरे के लिए वंशनाश जैसी विपत्ति का कारण बन गया। इस प्रकार की संबंध सूत्रता हमें अन्य प्राणियों की हलचलों अथवा अन्यत्र होने वाली घटनाओं के साथ जोड़ती है।
साइकाँलोजी विशेषज्ञ वरी कामगर यह कहते हैं कि देश और जाति का अंतर कृत्रिम है। मनुष्य-मनुष्य के बीच की दीवार निरर्थक है। इतना ही नहीं, प्राणधारियों और जड़ समझे जाने वाले पदार्थो को एक -दूसरे से स्वतन्त्र समझना भूल है। हम सब एक ऐसी नाव पर सवार हैं, जिसके डूबने-उतारने का परिणाम सभी को समान रूप से भुगतना पड़ेगा। राकफेलर यूनिवर्सिटी (न्यूयार्क) के पैथोलोजी एंड माइक्रोबायोलाँजी के प्राध्यापक वायुवास का कथन है कि वैश्विक चक्रों, कास्मिक साइकल्स के थपेड़ों से हम इधर-उधर गिरते पड़ते चल रहे हैं। हमारे पुरुषार्थ की अपनी महत्ता है, पर ब्रह्मांडीय हलचलें भी हमें कम विवश और बाध्य नहीं करतीं।
वे कहते है कि विज्ञान की सभी शाखाएँ परस्पर जुड़ी हैं। इसलिए उनका सर्वथा प्रथम विभाजन उचित नहीं। भौतिक विज्ञान और जीव विज्ञान की विविध शाखाओं का समन्वयात्मक अध्ययन करके ही हम किसी पूर्ण निष्कर्ष पर पहुँच सकते है।
मिश्र में आस्वान बाँध बँधने का लाभ मिलना बंद हो गया है, फलस्वरूप क्षेत्र की उर्वरा शक्ति को भारी क्षति पहुँची है।
अफ्रीका महाद्वीप के जांबिया और रोडेशिया देशों में पिछले दिनों कई बाँध बने हैं, इसके कारण अनपेक्षित समस्याएं उत्पन्न हुई हैं और कई बाँधों से मिलने वाले लाभ की तुलना में कम नहीं वरन अधिक ही हानिकारक एवं जटिल हैं। समुद्रों के मध्य जहाँ-तहाँ बिखरे हुए छोटे टापुओं पर चालू की गई उत्साहवर्धक विकास योजनाओं का बुरा माना गया है।
सृष्टा की यह इच्छा और व्यवस्था जब तक बनी रहेगी, तब तक कोई इस धरती का अद्भुद सौंदर्य मनोरम क्रियाकलाप भी जारी रहेगा।
उपरोक्त प्रतिपादन को हेकल ने ‘इकॉलोजी’ नाम दिया है। तब से लेकर अब तक इस ओर विज्ञानवेत्ताओं की रुचि घटी नहीं, वरन् बढ़ी ही है और शोध क्षेत्र के इस नये पक्ष को एक स्वतंत्र शास्त्र ही मान लिया गया है। अब सृष्टि -संतुलन विज्ञान को इकाँलोजी शब्द के अंतर्गत लिया जाता है।
इकाँलोजी शोध प्रयासों द्वारा इस निष्कर्ष पर अधिकाधिक मजबूती के साथ पहुँचा जा रहा है कि प्रक्रति की हर वस्तु एक-दूसरे के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ी हुई है। आक्सीजन, पानी, रोशनी, पेड़-पौधे, कीटाणु, पशु-पक्षी और मनुष्य यह सब एक ही धारा-प्रवाह अलग-अलग दीखने वाली लहरें हैं, जो वस्तुतः एक-दूसके के साथ विविध सूत्रों द्वारा आबद्ध हो रही है।
सृष्टि -संतुलन शास्त्र के अन्वेषक तीन ऐसे सिद्धान्त निश्चित कर चुके हैं, जिनके आधार पर प्रकृतिगत सहयोग श्रृंखला इस जगत् की व्यवस्था को धारण कर रही है। पहला सिद्धांत है –परस्परावलंबन-इंटरडिपेंडेंस, दूसरा है-मर्यादा-लिमिटेशन और तीसरा- सम्मिश्रता-कांप्लेक्स्टी। यही तीनों भौतिक सिद्धांत अपने मिले-जुले क्रम से विश्व प्रवाह को गतिशील कर रहे हैं। जिस प्रकार अध्यात्म जगत् में सत-चित-आनंद की, सत्य-शिवं-सुंदरम् की, सत-रज-तम की ईश्वर जीव-प्रकृति की-मान्यता है और माना जाता है कि इन्हीं चेतना तत्वों के आधार पर जीवधारियों की प्रवृत्ति, मनोवृत्ति की क्रम-व्यवस्था चलती है। ठीक इसी तरह संतुलन शास्त्री यह मानते हैं कि सृष्टि क्रम की सुव्यस्था इंटरडिपेंडेंस, लिमिटेशन और कांप्लेक्सिटी पर निर्भर है।
परस्परावलंबन (इंटरडिपेंडेस) का सिद्धांत यह बताता है कि प्रकृति की हर चीज अन्य सब वस्तुओं के साथ जुड़ी-बँधी है। किसी भी जीव की सत्ता अन्य असंख्य जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है। मानवी सत्ता अन्य असंख्य जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है। मानवी सत्ता स्वतंत्र नहीं है। यदि पेड़-पौधे ऑक्सीजन पैदा करना बंद कर दें तो वह बेमौत मर जायेगा। विशालकाय वृक्ष का जीवन उन छोटे कीटाणुओं पर निर्भर है, जो सूखे पत्तों का विघटन कर उन्हें खाद के रूप में परिणित करते हैं और जड़ों के पोषण की व्यवस्था जुटाते हैं। जमीन में रहने वाले बैक्टीरिया किस प्रकार जड़ों की खुराक पहुँचाते हैं। और चींटी, दीमक आदि छोटे कीड़े किस प्रकार जड़ों तक हवा, रोशनी और नमी पहुँचाने में अधिक परिश्रम करते हैं। इसे जाने बिना हम वृक्ष के जीवन आधार का सहीं मूल्यांकन कर ही नहीं सकते। वृक्ष अपने आप में स्वतंत्र नहीं हैं, वे कोटि-कोटि जीवन घटकों के अनुग्रह पर आश्रित और जीवित हैं।
वन-जन्तुओं की प्रमुख खाद्य आवश्यकता, जो पौधा पूरी करता है, वह भी पराश्रयी पाया गया है। छोटे कीड़े कई तरह के बीज और खाद इधर से उधर लिए फिरते हैं, यह सीधा उसी से अपना जीवन ग्रहण करता है। कीड़ों की हरकतें बंद करने के उपरांत प्रयोगकर्ताओं ने देखा कि खाद, पानी की सुविधा देने के बाद भी पौधा उगने और बढ़ने की क्षमता खोता चला गया।
संतुलन शास्त्र का दूसरा नियम मर्यादा-लिमिटेशन-यह सिद्धि करता है हर प्राणी और हर पदार्थ की एक मर्यादा है, जब वह उससे आग बढ़ने का प्रयत्न करता है, तभी रोक दिया जाता है। वंश वृद्धि की क्षमता प्राणियों में निःसंदेह अदभुद है, पर इससे भी तेज कुल्हाड़ी इस अभिवर्धन को नियंत्रित करने के लिए कोई अदृश्य सत्ता सहज ही चलाती रहती है। प्राणी सृजन कितना हा क्यों न करे, पर दौड़ में मृत्यु को नहीं जीत सकता है। जैसे ही जन्म दर की दौड़ बढ़ती है वैसे ही मृत्यु की बाघिन, उसे दबोच कर रख देती है। प्राणियों का शरीर -पेडों का विस्तार एक सीमा पर जाकर रुक जाता है। पौधे एक सीमा तक ही सूर्य किरणों को सोखते हैं और निर्धारित मात्रा में ही आक्सीजन पैदा करते हैं। उपभोक्ताओं की संख्या और उपयोग की मात्रा जब तक उत्पादन के अनुरूप रहती तब तक ढर्रा ठीक तरह चलता रहता है, पर जब उत्पादन से उपभोग की मात्रा बढ़ जाती है तो विनाश का देवता उन उपभोक्ताओं के गले मरोड़ देता है। संतुलन जब तक रहेगा तब तक शांति रहेगी, पर जहाँ भी जिसने भी मर्यादा का उल्लंघन करने वाला सिर उठाया, वहीं कोई छिपा हुआ भैरव वेताल- उठे हुए सिर को पत्थर मारकर कुचल देता है। आततायी और उच्छृंखल मनुष्यों के अहंकार को किसी न किसी कोने से उभर पड़ने वाली प्रतिक्रिया का शिकार बनना पड़ता है। पेट की आवश्यकता से अधिक आहार करने वाले अपच और उदर शूल का कष्ट सहते हैं प्रकृति उल्टी और दस्त कराकर उस अपरहण को वापिस करने के लिए बाध्य करती है।
सम्मिश्रता-कांप्लेक्सिटी का सिद्धांत बताता है कि जिनके साथ हमारा प्रत्यक्ष संबंध नहीं दीखता, उनके साथ भी दूर का संबंध नहीं दीखता, और घटनाक्रम प्रकारांतर से-परोक्ष रूप में उन्हें भी प्रभावित करता है, जो उससे सीधा संबंध नहीं समझते। विश्व में कहीं भी घटिल होने वाले घटना क्रम को हम यह कहकर उपेक्षित नहीं कर सकते कि इससे हमारा क्या संबंध है ? प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से सही, हम कहीं भी-किसी भी स्तर की घटना से अवश्यमेव प्रभावित होते हैं।
अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी गरुड़ अब तक अपना अस्तित्व गँवाने की तैयारी में है। इस आत्महत्या जैसी सत्ता निःसृति का क्या कारण हुआ, इसकी खोज करने वाले जीव शास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि पौधों को कीड़ों से बचाने के लिए जिन डी.डी.टी सरीखे रासायनिक द्रवों का उपयोग होता रहा है, उससे गरुड़ के स्वाभाविक आहार में प्रतिकूलता भर गई, फलस्वरूप वह प्रजनन क्षमता खो बैठा।
अब वह पक्षी वंशवृद्धि की दृष्टि से प्रायः निखट्टू ही बनकर रह गया है। ऐसी दशा में इसके अस्तित्व का अंत होना स्वाभाविक ही था। यों रासानिक घोलों का गरुण की प्रजनन शक्ति से सीधा संबंध नहीं बैठता, पर संबंध सूत्र मिलाने पर एक के लिए किया गया प्रयोग दूसरे के लिए वंशनाश जैसी विपत्ति का कारण बन गया। इस प्रकार की संबंध सूत्रता हमें अन्य प्राणियों की हलचलों अथवा अन्यत्र होने वाली घटनाओं के साथ जोड़ती है।
साइकाँलोजी विशेषज्ञ वरी कामगर यह कहते हैं कि देश और जाति का अंतर कृत्रिम है। मनुष्य-मनुष्य के बीच की दीवार निरर्थक है। इतना ही नहीं, प्राणधारियों और जड़ समझे जाने वाले पदार्थो को एक -दूसरे से स्वतन्त्र समझना भूल है। हम सब एक ऐसी नाव पर सवार हैं, जिसके डूबने-उतारने का परिणाम सभी को समान रूप से भुगतना पड़ेगा। राकफेलर यूनिवर्सिटी (न्यूयार्क) के पैथोलोजी एंड माइक्रोबायोलाँजी के प्राध्यापक वायुवास का कथन है कि वैश्विक चक्रों, कास्मिक साइकल्स के थपेड़ों से हम इधर-उधर गिरते पड़ते चल रहे हैं। हमारे पुरुषार्थ की अपनी महत्ता है, पर ब्रह्मांडीय हलचलें भी हमें कम विवश और बाध्य नहीं करतीं।
वे कहते है कि विज्ञान की सभी शाखाएँ परस्पर जुड़ी हैं। इसलिए उनका सर्वथा प्रथम विभाजन उचित नहीं। भौतिक विज्ञान और जीव विज्ञान की विविध शाखाओं का समन्वयात्मक अध्ययन करके ही हम किसी पूर्ण निष्कर्ष पर पहुँच सकते है।
मिश्र में आस्वान बाँध बँधने का लाभ मिलना बंद हो गया है, फलस्वरूप क्षेत्र की उर्वरा शक्ति को भारी क्षति पहुँची है।
अफ्रीका महाद्वीप के जांबिया और रोडेशिया देशों में पिछले दिनों कई बाँध बने हैं, इसके कारण अनपेक्षित समस्याएं उत्पन्न हुई हैं और कई बाँधों से मिलने वाले लाभ की तुलना में कम नहीं वरन अधिक ही हानिकारक एवं जटिल हैं। समुद्रों के मध्य जहाँ-तहाँ बिखरे हुए छोटे टापुओं पर चालू की गई उत्साहवर्धक विकास योजनाओं का बुरा माना गया है।
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