आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
237 पाठक हैं |
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
यह मोटा निष्कर्ष हुआ। बारीकी में उतरने पर पता चलता है कि अमुक शारीरिक रोग, अमुक मनोविकार के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैंं और वे तब तक बने ही रहते हैंं, जब तक कि मानसिक स्थिति में कारगर परिवर्तन न हो जाय। इस अनुसंधान ने उस असमंजस को दूर कर दिया है जिसके अनुसार रोगियों को चिकित्सकों के दरवाजे पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। नित नव दवाएँ बदलनी पड़ती हैं। किन्तु आशा, निराशा के झूले में झूलते हुए समय भर बीतता रहता है। रोग हटने का नाम ही नहीं लेते। तेज औषधियाँ अधिक से अधिक इतना कर पाती हैं कि बीमारी के स्वरूप और लक्षण में थोड़ा-बहुत फेर बदल प्रस्तुत कर दें। जीर्ण रोगियों में से अधिकांश का इतिहास यही है।
शरीरशास्त्री अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि आरोग्य और रुग्णता की कुंजी मनःक्षेत्र में सुरक्षित है। मानसिक असंतुलन और प्रदूषण का निराकरण किये बिना किसी को भी स्वयं शरीर का आनंद नहीं मिल सकता। जीवनी शक्ति का पिछले दिनों बहुत गुणगान होता रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए आकाश-पाताल के कुलावे भी मिलाये जाते रहे है। टानिकों, हारमोनों और ग्रन्थि आरोपणों जैसे प्रयोग-परीक्षण की भरमार रही है। किन्तु गरीबों की बात तो दूर कोट्याधीश, शासनाध्यक्ष एवं स्वयं चिकित्सकों तक को उस प्रयास में कुछ पल्ले न पड़ा। अब यह निष्कर्ष निकला है कि जीवनी शक्ति कोई शरीरगत स्वतन्त्र क्षमता नहीं है वरन जिजीविषा की मानसिक प्रखरता ही अपना परिचय जीवनी शक्ति के रूप में देती रहती है। मानसिक स्थिति के उतार-चढ़ावों के अनुरूप यह जीवनी शक्ति भी घटती-बढ़ती रहती है। शरीर की बलिष्ठता, सक्रियता, स्फूर्ति ही नहीं कोमलता, सुंदरता और कांति तक मानसिक स्थिति पर अवलम्बित है। विपन्नता की मनःस्थिति में भय, शोक, क्रोध आदि के अवसर आने पर तो तत्काल आकति से लेकर शरीर की सामान्य स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ते प्रत्यक्ष देखा जाता है। यदि मनोविकार जड़ जमा लें तो समझना चाहिए कि शरीर एक प्रकार से विपन्नता में फँस ही गया और उस दलदल से निकल सकना चिकित्सा उपचार के बलबूते की बात नहीं रह गयी है।
शारीरिक रोग प्रत्यक्ष होते हैंं। इसलिए उनकी जानकारी भी सहज ही मिल जाती है और दवा दारू से इलाज होने के साधन भी मौजूद रहते हैं। मानसिक रोगों में प्रायः विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त स्तर के लोग गिने जाते हैं जो अपना सामान्य काम-काज चला सकने में असमर्थ हो गये हों, जिनका शरीर निर्वाह और लोक व्यवहार लड़खड़ाने और लटपटाने लगा हो, जो अपने लिए और साथी-सम्बन्धियों के लिए भार बन गये हों। ऐसे रोगियों की संख्या भी लाखों से आगे बढ़कर करोड़ की सीमा अपने ही देश में छूने लगी है। जो विचलित-विक्षिप्त हुए हैं, ऐसे लोगों की संख्या का कोई ठिकाना नहीं जो रोजी-रोटी तो कमा लेते हैंं और खाते, सोते समय भी साधारण लगते हैंं, पर उनका चिंतन विचित्र और विलक्षण होता है। कितने ही दुष्टता की भाषा में सोचते और हर किसी पर दोषारोपण करते हुए शत्रुता की परिधि में लपेटते हैं। कितने ही आशंकाओं, संदेहों, आक्षेपों के इतने अभ्यस्त होते हैंं कि उन्हें अपनी पत्नी, बेटी, बहिन आदि तक के चरित्र पर अकारण संदेह बना रहता है। सम्बन्धियों और पड़ोसियों को अपने विरुद्ध कुचक्र रचते हुए देखते हैंं और विपत्ति का पहाड़ अपने ऊपर टूटता ही अनुभव करते रहते हैंं। शेखचिल्लियों के से मनसूवे बाँधते रहने वाले, सम्भव-असम्भव का विचार किये बिना अपने सपनों की एक अनोखी दुनिया बनाये बैठे रहते हैंं। न अपनी पटरी दूसरों के साथ बिठा पाते हैं न किसी और को अपना घनिष्ठ बनने का अवसर देते हैंं। परिस्थिति का मूल्यांकन कर सकना, दूसरों की मनःस्थिति और परिस्थिति समझ सकना उनके लिए सम्भव ही नहीं होता है। अटपटे अनुमान लगाते और बेतुके निष्कर्षों पर पहुँचते हैंं। विचार जो भी उठें वे एक पक्षीय सनक की तरह बिना किसी तर्क-वितर्क का आश्रय लिए बेलगाम के घोड़े पर चढ़कर दौड़ते चले जाते हैंं। जो सोचा जा रहा है, उसका आधार क्या है और उस सनक पर चढ़े रहने का अन्ततः परिणाम क्या निकलेगा इतना समझ पाना उनके क्षत-विक्षत मस्तिष्क के लिए सम्भव नहीं होगा। अकारण मुँह लटकाये बैठे रहने वाले, जिस-जिस पर दोषारोपण करने वाले को दुर्भाग्य की कुरूप तस्वीरें गढ़ने में देर नहीं लगती, दुनिया को निस्सार बताने वाले, आत्महत्या की बात सोचते रहने वालों की संख्या अपने ही इर्द-गिर्द ढेरों मिल सकती है। हँसी-खुशी से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। कहीं न कहीं से मुसीबत की कल्पना ढूँढ़ लाते हैंं और स्वयं दुःख पाते, साथियों को दःख देते. जिन्दगी की लाश ढोते रहते हैंं। यह सनक कभी-कभी आक्रामक हो उठती है तो जो भी उनकी चपेट में आता है उसे सताने में कसर नहीं छोड़ते। मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र समझने में उनकी अदूरदर्शिता पग-पग पर झलकती रहती है। ठगों के आये दिन शिकार होते रहते हैंं। आयु बड़ी हो जाने पर भी सोचने का तरीका बालकों जैसा ही बना रहता है। किसी महत्वपूर्ण प्रसंग में उनका परामर्श तनिक भी काम का सिद्ध नहीं होता। अपनी कार्य पद्धति को किसी उद्देश्य के साथ जोड़ सकना उनसे बन नहीं पड़ता। जैसे-तैसे समय गुजारते हुए, ज्यों-त्यों करके ही मौत के दिन परे कर लेते हैंं। इन्हें पागल तो नहीं कह सकते, पर व्यक्तित्व की परख की दृष्टि से उससे कुछ अच्छी स्थिति का भी उन्हें नहीं समझा जा सकता।
|