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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4197
आईएसबीएन :0000

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र


मरने के उपरान्त-नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीर में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशान्त होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है। मरणोपरान्त की थकान दूर करने के उपरान्त संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें जन्म धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएँ अपने मित्रों, शत्रुओं-परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। प्रेतों की अशान्ति, सम्बद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं। पितर वे होते हैं जिनका जीवन सज्जनता के सतोगुणी वातावरण में बीता है। वे स्वभावतः सेवा, सहायता में रुचि लेते हैं। उनकी सीमित शक्ति अपनों-परायों को यथा संभव सहायता पहुँचाती रहती हैं, इसके लिए विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ता। जरूरतमन्दों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव होता है। कितनी ही घटनाएँ ऐसी सामने आती रहती हैं, जिनमें दैवी शक्तियों ने कठिन समय में भारी सहायता की और संकटग्रस्तों की चमत्कारी सहायता करके उन्हें उबारा।

सिद्ध पुरुष जीवन मुक्त स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि उनकी इच्छा और ईश्वर की इच्छा एक हो जाती है। वे स्वेच्छा से संकल्प पूर्वक कुछ काम नहीं करते। दैवी प्रेरणाएँ ही उनसे लोकहित के लिए विविध कार्य कराती रहती है। जिस प्रकार काया में संव्याप्त निराकार जीवात्मा अपनी इच्छा के अनुरूप कार्य हाथ, पैर, वाणी आदि विभिन्न अवयवों के माध्यम से सम्पन्न कराती रहती है। उसी प्रकार दैवी प्रेरणा सिद्ध पुरुषों को कठपुतली की तरह नचाती और सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप उनसे विविध कार्य कराती हैं। इस प्रकार निराकार सत्ता के साकार प्रयोजन सिद्ध पुरुषों के माध्यम से पूरे होते रहे हैं। ऐसे सिद्ध पुरुषों को देवात्मा भी कहते हैं। वे शरीर के बन्धनों में बँधे हुए नहीं होते। शरीर त्यागने के बाद भी उनका सूक्ष्म शरीर प्रायः उसी आकृति-प्रकृति का बना रहता है। उनकी स्थिति उनके संकल्पों के ऊपर निर्भर रहती है। अस्तु, समयानुसार वे उसमें परिवर्तन भी कर लेते हैं। जब उनसे दिव्य चेतना कोई महत्त्वपूर्ण कार्य कराना चाहती है, तो नियत समय पर, नियत स्थान पर, नियत साधनों के साथ उन्हें जन्मधारण करने के लिए निर्देश करती है। ऐसे लोग महामानव स्तर के होते हैं। बचपन का दबाव उनपर अधिक समय तक नहीं रहता। वे लम्बी अवधि तक अबोध नहीं बने रहते। किशोरावस्था से ही उनकी विशिष्ट गतिविधियाँ आरम्भ हो जाती हैं। दिग्भ्रान्त नहीं होना पड़ता। वातावरण के प्रभाव से वे प्रभावित नहीं होते, वरन् अपनी आत्मिक प्रखरता के आधार पर वातावरण को प्रभावित करते हैं। परिस्थितियाँ उनके मार्ग में बाधक नहीं बनतीं, वरन् वे परिस्थितियों के प्रतिकूल होते हुए भी उन्हें अनुकूलता के ढाँचे में ढालते हैं। हवा के साथ सूखे पत्तों की तरह उड़ते नहीं फिरते, वरन् पानी की धार चीरती हुई उलटी दिशा में चल सकने वाली मछली जैसा अपने पुरुषार्थ का परिचय देते हैं। वे आदर्शवादी जीवन जीते और पीछे वालों के लिए अनुकरणीय, अविस्मरणीय, अभिनन्दनीय उदाहरण छोड़ते हैं।

सिद्ध पुरुष यों संसार के किसी भी भाग में पाये जा सकते हैं, पृथ्वी के हर खण्ड में स्थूल शरीरधारी महामानव और सूक्ष्म शरीर द्वारा अपनी गतिविधियाँ कार्यान्वित करने वाले सिद्ध पुरुष प्रकट होते रहे हैं। इस दृष्टि से कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसे ऊसर कहा जा सके। फिर भी विशेषता की विपुलता किसी क्षेत्र विशेष के साथ जुड़ी रहती देखी जाती है। वृक्ष, वनस्पति, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु हर क्षेत्र में अपनी-अपनी विशेषता, भिन्नता लिये हुए जन्मते हैं। सर्वत्र एक जैसा उत्पादन नहीं होता। इसी प्रकार सिद्ध पुरुषों की उत्कृष्टता एवं बहुलता हिमालय के ध्रुव केन्द्र के इर्द-गिर्द ही पाई जाती है। सफेद रीछ, बर्फीले प्रदेशों में ही पाया जाता है। अनेक विशिष्ट जड़ी बूटियाँ विशेष क्षेत्रों में ही उपजती और उसी परिधि में जीवित रहती हैं। सोमवल्ली, संजीवनी बूटी, अरुन्धती, ब्रह्मकमल जैसी वनस्पतियाँ हिमालय के एक विशेष क्षेत्र में ही पाई जाती हैं। यदि उन्हें अन्यत्र कहीं लगाया जाए तो उनका जीवित रहना संभव नहीं। इसी प्रकार पृथ्वी ध्रुव के केन्द्र हिमालय के एक विशेष भाग में ही उच्चस्तरीय दिव्य-आत्माओं का बाहुल्य पाया जाता है। उन्हें अन्य भूखण्ड रास नहीं आते। जैसा पोषण वातावरण से मिलना चाहिए वैसा अन्यत्र से नहीं मिलता। इसलिए अपनी सुविधा तथा अपने स्तर की अन्य आत्माओं की उपस्थिति देखते हुए उनका निवास इसी क्षेत्र में रहता है। वे समस्त क्षेत्रों से, लोक-लोकान्तरों से यहाँ रह कर जिस सुविधा के साथ सम्पर्क बनाते रहते हैं, वैसी सुविधा उन्हें अन्यत्र नहीं मिलती। यही कारण है कि हिमालय का देवात्मा भाग एक प्रकार से सिद्ध क्षेत्र बन गया है।



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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
  2. देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
  3. अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  4. अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
  5. पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
  6. तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
  7. सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
  8. सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
  9. हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ

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