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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4197
आईएसबीएन :0000

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र


जिन लोगों ने इस प्रकार की खोज में लम्बी दौड़-धूप की है, वे निराश होने पर अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए मनगढ़ंत कहानियाँ बना लेते हैं और परिचित लोगों के आगे सिद्धों से भेंट के लम्बे किस्से सुनाते हैं। इस कौतुक को सुनने से किन्हीं का मनोरंजन तो हो सकता है, आरम्भ में कुछ समय के लिए असमंजस युक्त विश्वास भी कर लेता है, पर वस्तुस्थिति प्रकट होने में देर नहीं लगती। जब व्यक्तित्व और व्यवहार में किन्हीं उच्चस्तरीय गतिविधियों का समावेश नहीं दीखता, तो वे समझ लेते हैं- कथन में प्रपंच मात्र था। पारस को छूकर लोहा सोना बन जाता है। स्वाँति की बूंद से सम्पर्क होने पर सीप मोती बन जाती है। चन्दन वृक्ष के समीप उगने वाले झाड़-झंखाड़ महकने लगते हैं, तो कोई कारण नहीं कि सिद्ध पुरुषों की अनुकम्पा पाने वाला घटिया जीवन जीता रहे और बचकानी प्रवृत्तियों के बाड़े में कैद रहे। गाँधी की आत्मीयता पाकर विनोबा-विनोबा बन गये थे। सिद्धपुरुषों का उद्देश्य किन्हीं लालची अहंकारी लोगों की कामनाएँ पूरी करते फिरना नहीं है। न वे इसके लिए अपनी तपस्या को कूड़े के ढेर पर बिखेरते हैं। उनकी स्वयं की सत्ता उत्कृष्टता का परिपोषण करने के लिए समर्पित हुई, तो वे अपने बहुमूल्य तप का समापन किसी को कौतूहल दिखाने के लिए- किन्हीं की ललक-लिप्साएँ पूरी करने के लिए क्यों खर्च करेंगे? इस नग्न सत्य को ऐसे हर व्यक्ति को भली प्रकार समझ लेना चाहिए, जो सिद्धपुरुषों को खोजने और उनसे लाभ उठाने के लिए जहाँ-तहाँ भटकते हैं। उन्हें वरदान अनुग्रह प्राप्त करना तो दूर, दर्शन तक का लाभ नहीं मिलता। भले ही उनकी मौजूदगी समीपवर्ती क्षेत्र में ही क्यों न हो !

कभी-कभी ऐसा होता देखा गया है- एक ठग को दूसरा बड़ा ठग अपने चंगुल में फंसा लेता है और पकड़े हुए शिकार को झोली में डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। प्रेत-पिशाचों में से, यक्ष गंधर्यों में से कुछ ऐसे मनचले होते हैं, जो इन प्रपंची लोगों की मनोभूमि को ताड़ लेते हैं और उन्हें फँसाकर मनमाने कृत्य कराने के लिए वाहन जैसा उपयोग करते हैं। यह वर्ग भी सूक्ष्म शरीरधारी होता है। निकृष्ट वर्ग में गिने जाने पर भी वेष बदलकर किसी भी रूप में प्रकट होने की कला में अभ्यस्त होता है। उनके लिए सिद्ध पुरुषों जैसा रूप बना लेने में भी कठिनाई नहीं होती। मूर्तों के साथ वे घूर्तों जैसा व्यवहार करते हैं। कौतूहल दिखाकर उन्हें मन्त्र मुग्ध कर लेते हैं और सम्मोहित कर उन्हें उँगली के इशारे पर कठपुतली की तरह नचाते हैं। इस प्रकार जकड़े-पकड़े गये लोग भी अपने को सिद्धपुरुषों के साथ सम्पर्क होने की मान्यता में जकड़ जाते हैं और उनकी इच्छानुसार उचित-अनुचित का विचार किये बिना हेय कृत्य करने लगते हैं। अघोरी, कापालिक, तांत्रिक स्तर के लोग इसी प्रकार के कुचक्र में फंसे हुए होते हैं। सन्त का जीवन आदर्शवादी और परमार्थ परायण होना चाहिए। पात्रता और प्रामाणिकता उनकी महानता को सिद्ध करने वाली कसौटियाँ सही सिद्ध करती दीख पड़नी चाहिए। पर इसके विपरीत जब दीख पड़ता है कि कोई संत वेष धारण करके भी अभक्ष्य खाता, अपेय पीता, अपवित्र उपकरण धारण करता और कुकर्मों में निरत रहता है, तो समझा जाना चाहिए कि वह किसी प्रेत-पिशाच का वाहन बन गया या किसी बेतालयोनि ने इसे अपने फंदे

में फँसा लिया। ऐसे लोगों की गतिविधियाँ मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि हेयकृत्यों में संलग्न रहती हैं। वे इसी प्रकार की चर्चाएँ एवं चेष्टाएँ करते हैं। नाम तो देवता-सिद्ध होने जैसा लेते हैं, पर वस्तुतः वे किन्हीं प्रेत पिशाचों के वशवर्ती होते हैं। वे ही विलक्षण वस्तुएँ लाकर दिखा देने, कौतूहल प्रकट करने जैसी आश्चर्य चकित करने वाले कृत्य करते देखे जाते हैं। इन प्रदर्शनों का उद्देश्य मात्र चकित व्यक्तियों को सम्मोहन जाल में फँसा लेना मात्र होता है।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
  2. देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
  3. अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  4. अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
  5. पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
  6. तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
  7. सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
  8. सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
  9. हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ

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