आचार्य श्रीराम शर्मा >> कुण्डलिनी महाशक्ति एवं उसकी संसिद्धि कुण्डलिनी महाशक्ति एवं उसकी संसिद्धिश्रीराम शर्मा आचार्य
|
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कुण्डलिनी महाशक्ति...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कुंडलिनी महाशक्ति का स्वरूप और आधार
भारतीय योग -साधन का मुख्य उद्देश्य जीवनमुक्त स्थिति को प्राप्त करना है।
अभी तक प्रणियों के विकास को देखते हुए सबसे ऊँची क्षेणी मनुष्य की है,
क्योंकि उसको विवेक और ज्ञान के रूप में ऐसी शक्तियाँ प्राप्त
हुई
हैं, जिनसे वह जितना चाहे ऊँचा उठ सकता है और कैसा भी कठिन कार्य हो, उसे
अपनी बहिरंग शक्ति से पूरा कर सकता है। संसार के अधिंकाश मनुष्य जीवन के
बाह्य पक्ष को ही साधने का प्रयत्न करते हैं और प्रत्येक कार्य को सम्पन्न
करने के लिए धनबल, शरीरबल तथा बुद्धिबल का प्रयोग करने के दो मार्ग को ही
आवश्यक मानते हैं। इन तीनों बलों के अतिरिक्त संसार में महान कार्यो को
करने के लिए जिस आत्मबल की आवश्यकता होती है, उसके विषय में शायद ही कोई
कुछ जानता हो, पर वास्तविकता यहीं है कि संसार में आत्मबल ही सर्वोपरि है
और उसके सामने कोई ‘बल’ कुछ विशेष महत्व नहीं रखता
तथा न ही
इस बल के आगे टिक सकता है। इस बल को अर्जित करने कि लिए योग- साधना द्वारा
आत्मोत्कर्ष का पथ अपनाना पड़ता है।
जो लोग अपने जीवन ध्येय को प्राप्त करने के लिए अपनी निर्बलताओ अथवा त्रुटियों को समझकर, उनको दूर करने के लिए योग-मार्ग का आश्रय ग्रहण करते हैं, वे धीरे-धीरे अपनी निर्बलता को सबलता में बदल देते हैं और न केवल सांसारिक विषयों में ही अपने मनोरथों को सफल करते, वरन आध्यात्मिक क्षेत्र में भी ऊँचे उठते हैं। वे स्वयं अपना कल्याण साधन करने के साथ-साथ अन्य सैकड़ों व्यक्तियों को लिए उद्धार का मार्ग प्राप्त करने के योग्य बना देते है।
योगशास्त्र में साधना के जो सर्वमान्य नियम दिए गए हैं, उनके सिवाय अध्यात्मविद्या के ज्ञाताओं ने, इस मार्ग में शीघ्र प्रगति करके कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त कर लेने की जो विधियाँ अथवा योग- शाखाएँ निकाली हैं, उनमें ‘कुंडलिनीयोग’ का विशेष स्थान है। इससे शरीर में एक ऐसी शक्ति का अविर्भाव होता है, जिससे मनुष्य की चैतन्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है और वह जब चाहे तब स्थूल-संसार के बजाय सूक्ष्मजगत की स्थिति का अनुभव कर सकता है। एक संकीर्ण क्षेत्र में रहने के बजाय विशाल विश्व की गतिविधि को देखने लगता है। ‘हठयोग प्रदीपिका’ में कुंडलिनी शक्ति‘ के महत्त्व का वर्णन करते हुए कहा है।
जो लोग अपने जीवन ध्येय को प्राप्त करने के लिए अपनी निर्बलताओ अथवा त्रुटियों को समझकर, उनको दूर करने के लिए योग-मार्ग का आश्रय ग्रहण करते हैं, वे धीरे-धीरे अपनी निर्बलता को सबलता में बदल देते हैं और न केवल सांसारिक विषयों में ही अपने मनोरथों को सफल करते, वरन आध्यात्मिक क्षेत्र में भी ऊँचे उठते हैं। वे स्वयं अपना कल्याण साधन करने के साथ-साथ अन्य सैकड़ों व्यक्तियों को लिए उद्धार का मार्ग प्राप्त करने के योग्य बना देते है।
योगशास्त्र में साधना के जो सर्वमान्य नियम दिए गए हैं, उनके सिवाय अध्यात्मविद्या के ज्ञाताओं ने, इस मार्ग में शीघ्र प्रगति करके कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त कर लेने की जो विधियाँ अथवा योग- शाखाएँ निकाली हैं, उनमें ‘कुंडलिनीयोग’ का विशेष स्थान है। इससे शरीर में एक ऐसी शक्ति का अविर्भाव होता है, जिससे मनुष्य की चैतन्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है और वह जब चाहे तब स्थूल-संसार के बजाय सूक्ष्मजगत की स्थिति का अनुभव कर सकता है। एक संकीर्ण क्षेत्र में रहने के बजाय विशाल विश्व की गतिविधि को देखने लगता है। ‘हठयोग प्रदीपिका’ में कुंडलिनी शक्ति‘ के महत्त्व का वर्णन करते हुए कहा है।
सशैलवनधात्रीणां यथाधारोऽहिनायकः
सर्वेषां योगतंत्राणां तथाधारो हि कुंडली।
सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जागर्ति कुंडली।
तदा सर्वाणि पद्मानि भिद्यंते ग्रंथयोडपि च।।
प्राणस्य शून्यपदवी तथा राजपथायते।
तदा चित्तं निरालंबं तदा कालस्य वंचनम-।।
सर्वेषां योगतंत्राणां तथाधारो हि कुंडली।
सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जागर्ति कुंडली।
तदा सर्वाणि पद्मानि भिद्यंते ग्रंथयोडपि च।।
प्राणस्य शून्यपदवी तथा राजपथायते।
तदा चित्तं निरालंबं तदा कालस्य वंचनम-।।
हठयोग प्र० 3-1-2,3
‘‘जिस प्रकार सम्पूर्ण वनों सहित जितनी भूमि है, उसका
आधार
सर्पों का नायक (शेषनाग) है, उसी प्रकार समस्त योग-साधनाओं का आधार भी
कुंडली ही है, जब गुरु की कृपा से सोई हुई कुंडली जागती है, तब संपूर्ण
पदम (षटचक्र) और ग्रंथियाँ खुल जाती हैं। और उसी समय प्राण की शून्य पदवी
(सुषुम्ना) राजपथ (सड़क) के समान हो जाती है, चित्त विषयों से रहित हो
जाता है और मृत्यु का भय मिट जाता है।’’
अन्य शास्त्रों तथा विशेषकर तंत्र ग्रंथों में कुंडलिनी के स्वरूप तथा उसके उत्थान का विवेचन करते हुए कहा है कि ‘‘कुडलिनी शक्ति मूलाधार में शक्ति रूप में स्थित होकर मनुष्य को सब प्रकार की शक्तियाँ, विद्या और अंत में मुक्ति प्राप्त कराने का साधन होती हैं,।’’ इस ‘कुंडलिनी को ‘परमा-प्रकृति’ कहा गया है। देव-दानव मानव-पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी प्राणियों के शरीर में यह कुंडलिनी शक्ति विराजमान रहती है।
कलम-पुष्प में जिस प्रकार भ्रमर अवस्थित होता है, उसी प्रकार यह भी देह में रहती है। इसी कुंडलिनी में चित् शक्ति (चैतन्यता) निहित रहती है। इतनी महत्त्वपूर्ण होने पर भी लोग उसकी तरफ ध्यान नहीं देते, यह आश्चर्य का विषय है। यह अत्यंत सूक्ष्मशक्ति है। इसकी सूक्ष्मता की कल्पना करके योगशास्त्र में कहा है-
अन्य शास्त्रों तथा विशेषकर तंत्र ग्रंथों में कुंडलिनी के स्वरूप तथा उसके उत्थान का विवेचन करते हुए कहा है कि ‘‘कुडलिनी शक्ति मूलाधार में शक्ति रूप में स्थित होकर मनुष्य को सब प्रकार की शक्तियाँ, विद्या और अंत में मुक्ति प्राप्त कराने का साधन होती हैं,।’’ इस ‘कुंडलिनी को ‘परमा-प्रकृति’ कहा गया है। देव-दानव मानव-पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी प्राणियों के शरीर में यह कुंडलिनी शक्ति विराजमान रहती है।
कलम-पुष्प में जिस प्रकार भ्रमर अवस्थित होता है, उसी प्रकार यह भी देह में रहती है। इसी कुंडलिनी में चित् शक्ति (चैतन्यता) निहित रहती है। इतनी महत्त्वपूर्ण होने पर भी लोग उसकी तरफ ध्यान नहीं देते, यह आश्चर्य का विषय है। यह अत्यंत सूक्ष्मशक्ति है। इसकी सूक्ष्मता की कल्पना करके योगशास्त्र में कहा है-
योगिनां हृदयाम्बुजे नृत्यन्ती नृत्यमञ्जसा।
आधारे सर्वभूतानां स्फुरन्ती विद्युताकृतिः।।
आधारे सर्वभूतानां स्फुरन्ती विद्युताकृतिः।।
‘‘योगियों के हृदय-देश में वह नृत्य करती रहती है।
यही सर्वदा
प्रस्फुटित होने वाली विद्युत रूप महाशक्ति सब प्रणियों का आधार
है।’’ इसका आशय यही है कि कुंडलिनी शक्ति के
न्यूनाधिक परिणाम
में चैतन्य हुए बिना मनुष्य की प्रतिभा का विकास नहीं होता।
कुंडलिनी आत्मशक्ति की प्रकट और प्रखर स्फुरणा है। यह जीव की ईश्वरप्रदत्त मौलिक शक्ति है। प्रसुप्त स्थिति में वह अविज्ञान बनी और मृततुल्य पड़ी रहती है। वैसी स्थिति में उससे कोई लाभ उठना संभव नहीं हो पाता। यदि उसकी स्थिति को समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि अपने ही भीतर वह भंडार भरा पड़ा है जिसकी तलाश में जहाँ-तहाँ भटकना पड़ता है। वह ब्राह्मी शक्ति अपने ही अंतराल में छिपी पड़ी है, जिसे कामधेनु कहा गया है। आत्मसत्ता में सन्निहित इस महाशक्ति का परिचय कराते हुए साधना शास्त्रों ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि अपने ही भीतर विद्यमान इस महती क्षमता का ज्ञान प्राप्त किया जाए और उससे संपर्क साधने का प्रतत्न किया जाए। कुंडलिनी परिचय के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
मल -मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र में कुंडलिनी का निवास माना गया है। उसे प्रचंड शक्ति स्वरूप समझा जाए। यह विद्युतीय प्रकृति की है। ध्यान से वह कौंधती बिजली के समान प्रकाशवान दृष्टिगोचर होती है उसका स्वरूप प्रसुप्त सर्पिणी के समान कुंडलाकार है।
यह उसका स्थानीय परिचय हुआ। अब उसका आधार, कारण, स्वरूप एवं प्रभाव समझने की आवश्यकता पड़ेगी। बताया गया है कि यह ब्राह्मी शक्ति है। स्वर्ग से गंगा अवतरित होकर पृथ्वी पर आई थी और इस लोक को धन्य बनाया था। इसी प्रकार यह ब्राह्मी शक्ति सत्पात्र साधकों की आत्मसत्ता पर अवतरित होती है और उसे हर दृष्टि से सुसंपन्न बनाती है। कहा जाता है कि
कुंडलिनी आत्मशक्ति की प्रकट और प्रखर स्फुरणा है। यह जीव की ईश्वरप्रदत्त मौलिक शक्ति है। प्रसुप्त स्थिति में वह अविज्ञान बनी और मृततुल्य पड़ी रहती है। वैसी स्थिति में उससे कोई लाभ उठना संभव नहीं हो पाता। यदि उसकी स्थिति को समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि अपने ही भीतर वह भंडार भरा पड़ा है जिसकी तलाश में जहाँ-तहाँ भटकना पड़ता है। वह ब्राह्मी शक्ति अपने ही अंतराल में छिपी पड़ी है, जिसे कामधेनु कहा गया है। आत्मसत्ता में सन्निहित इस महाशक्ति का परिचय कराते हुए साधना शास्त्रों ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि अपने ही भीतर विद्यमान इस महती क्षमता का ज्ञान प्राप्त किया जाए और उससे संपर्क साधने का प्रतत्न किया जाए। कुंडलिनी परिचय के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
मल -मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र में कुंडलिनी का निवास माना गया है। उसे प्रचंड शक्ति स्वरूप समझा जाए। यह विद्युतीय प्रकृति की है। ध्यान से वह कौंधती बिजली के समान प्रकाशवान दृष्टिगोचर होती है उसका स्वरूप प्रसुप्त सर्पिणी के समान कुंडलाकार है।
यह उसका स्थानीय परिचय हुआ। अब उसका आधार, कारण, स्वरूप एवं प्रभाव समझने की आवश्यकता पड़ेगी। बताया गया है कि यह ब्राह्मी शक्ति है। स्वर्ग से गंगा अवतरित होकर पृथ्वी पर आई थी और इस लोक को धन्य बनाया था। इसी प्रकार यह ब्राह्मी शक्ति सत्पात्र साधकों की आत्मसत्ता पर अवतरित होती है और उसे हर दृष्टि से सुसंपन्न बनाती है। कहा जाता है कि
ज्ञेयाशक्तिरियं विष्णोर्निर्मला स्वर्णभास्वरा।
सत्वं रजस्तमश्चेति गुणत्रयप्रसूतिका।।
मूलाधारस्थ वहन्यात्मतेजो मध्ये व्यवस्थिता।
जीवशक्तिः कुंडलाख्या प्राणाकारेण तेजसी।
महाकुंडलिनीप्रोक्ता परब्रह्मस्वरूपिणी।
बहुभाग्यवशाद्यस्य कुंडलीजागृता भवेत्।।
सत्वं रजस्तमश्चेति गुणत्रयप्रसूतिका।।
मूलाधारस्थ वहन्यात्मतेजो मध्ये व्यवस्थिता।
जीवशक्तिः कुंडलाख्या प्राणाकारेण तेजसी।
महाकुंडलिनीप्रोक्ता परब्रह्मस्वरूपिणी।
बहुभाग्यवशाद्यस्य कुंडलीजागृता भवेत्।।
घेरंड संहिता 6।16।18
मूलाधारचक्र में सर्पिणी आकार की कुंडलिनी शक्ति है, जो दीपक की लौ जैसी
दीप्तिमान है, वहीं जीवात्मा का निवास है।
हे चंड ! जिसकी कुंडलिनी शक्ति जाग्रत हो जाए, उसे बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिए।
हे चंड ! जिसकी कुंडलिनी शक्ति जाग्रत हो जाए, उसे बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिए।
सुप्ता नागोपमा ह्येषा स्फुरन्ती प्रभया स्वया।
अहिवत् संधिसंस्थाना वाग्देवी बीजसंज्ञिका।।
ज्ञेया शक्तिरियं विष्णोर्निर्मला स्वर्णभास्करा
अहिवत् संधिसंस्थाना वाग्देवी बीजसंज्ञिका।।
ज्ञेया शक्तिरियं विष्णोर्निर्मला स्वर्णभास्करा
शिव संहिता 5 । 77-78
यह कुंडलिनी शक्ति सुप्त सर्पिणी के समान है। वहीं स्फुरणा, गति, ज्योति
एंव वाक् है। यह विष्णु शक्ति है। स्वर्णिम सूर्य के समान दीप्तिवान है।
स्वयंभू शिवलिंग में तीन लपेटे लगाकर सुप्त सर्पिणी की तरह पड़े होने की उपमा में यह संकेत है कि उसमें वे तीनों ही क्षमताएं विद्यमान हैं, जो मानवी अस्तित्व को विकसित करने के लिए मूलभूत कारण समझी जाती हैं। आकांक्षा, विचारणा, क्रिया एवं साधना-सामग्री के आधार पर हर मनुष्य आगे बढ़ता, सफलता पाता और प्रसन्न होता है। इन तीनों के बीज अंतरंग में कुंडलिनी शक्ति में विद्यमान हैं। इन्हें विकसित करने पर ये तीनों क्षमताएँ भीतर से उमगती हैं, तो बाहर के स्वरूप साधन मिलने पर भी उनको समुन्नत बनने का सहज अवसर मिल जाता है। अंतः क्षमता प्रसुप्त हो तो भी बाहर के विकास-उपचार सफल नहीं होते, किंतु भीतर के स्रोत उंमगों का बाह्य क्षेत्र में उभरना कठिन नहीं है। गायत्री के तीन चरण कुंडलिनी के लपेटे हैं और उन्हें मानव जीवन की मूलभूत क्षमताओं के रूप में माना गया है --
स्वयंभू शिवलिंग में तीन लपेटे लगाकर सुप्त सर्पिणी की तरह पड़े होने की उपमा में यह संकेत है कि उसमें वे तीनों ही क्षमताएं विद्यमान हैं, जो मानवी अस्तित्व को विकसित करने के लिए मूलभूत कारण समझी जाती हैं। आकांक्षा, विचारणा, क्रिया एवं साधना-सामग्री के आधार पर हर मनुष्य आगे बढ़ता, सफलता पाता और प्रसन्न होता है। इन तीनों के बीज अंतरंग में कुंडलिनी शक्ति में विद्यमान हैं। इन्हें विकसित करने पर ये तीनों क्षमताएँ भीतर से उमगती हैं, तो बाहर के स्वरूप साधन मिलने पर भी उनको समुन्नत बनने का सहज अवसर मिल जाता है। अंतः क्षमता प्रसुप्त हो तो भी बाहर के विकास-उपचार सफल नहीं होते, किंतु भीतर के स्रोत उंमगों का बाह्य क्षेत्र में उभरना कठिन नहीं है। गायत्री के तीन चरण कुंडलिनी के लपेटे हैं और उन्हें मानव जीवन की मूलभूत क्षमताओं के रूप में माना गया है --
प्रकृतिः निश्चला परावासूपिणी पर प्रमाणित्या कुंडलिनी
प्रयंत्रसार तंत्र
यह कुंडलिनी महाशक्ति अविचल प्रकृति और परावाणी है। यह परमब्रह्म है।
इच्छा शक्तिश्च भू कारः क्रियाशक्ति भुवस्तथा।
स्वः कमः ज्ञानशक्तिश्च भूर्भवः स्व, स्वरूपयम।।
स्वः कमः ज्ञानशक्तिश्च भूर्भवः स्व, स्वरूपयम।।
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