कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
आज तो नन्हे और भुल्लन का बेटा भौंदू और बुड़कल्ला भी अब अपने लिए दुलहिन देखने जाता है तो पूछता है-नाचना जानती हो? और इस प्रश्न के उत्तर में यदि वह सकुचाई-सिकुड़ी किशोरी कहे कि 'हाँ' तो वह कुछ इस तरह मुसकराहट के साथ सिर हिलाता है कि जैसे वह भरत के नाट्यशास्त्र पर ही थीसिस लिखकर डी. फिल्. हुआ हो। साथ ही यदि कानों में पड़े 'ना' तो वह सम्पूर्ण गम्भीरता के साथ कुछ इस तरह भौंहों को सिकोड़कर माथे पर बरसाती नदी के कगार-से खड़े कर लेता है कि जैसे उसने दुलहिन के सम्बन्ध में हो रही जाँच-पड़ताल के सामने ऊँची दीवारें ही खड़ी कर दी हों।
साथ ही पलौथी से इस तरह उकडूं हो जाता है कि बिना ना किये ही लड़की वालों के लिए उसकी बिदाई का ऐलान हो जाता है। यह आज की दशा का चित्र है, पर मैं तो उन दिनों की बात कह रहा हूँ, जब नृत्य और गान में निपुणता कन्या में बिना जाँचे उसी तरह अनिवार्य समझी जाती थी, जिस तरह आजकल भोजन बनाना। यही कारण है कि उन दिनों वर के लिए वधू की खोज करते समय नाचने-गाने की जाँच-पड़ताल न करके परिवार के लोग वंश के गुण-दोष देखा करते थे।
बह जिस दिन पति के घर आती, उस दिन रात भर महल्ले-पड़ोस की कोई कन्या और बहू न सोती और रात भर नृत्य और गान की धूम मची रहती। यह एक तरह से बहू की परीक्षा का उत्सव होता, क्योंकि इसमें नगर और परिवार की पुरानी बहुएँ और कन्याएँ जहाँ अपनी कला का प्रदर्शन करतीं, वहाँ बहू को भी अपनी कला का पूरा प्रदर्शन देना पड़ता। इस तरह दोनों एक-दूसरे की आँखों में तुल जाते। उस उत्सव-रात्रि को लोक की भाषा में कहा जाता-रतजगा।
उस दिन भी भारत के एक सुखी नगर में ऐसा ही रतजगा था। बहू डोले से उतरी तो चाँद निकल आया। बड़ी-बूढ़ियों ने कहा- “बहू रूप का लच्छा है।" सास ने गर्व में डूबकर कहा-“गुणों का भण्डार भी है।" ईर्ष्या से कढकर जिठानी ने कहा-“यह तो रात में देखा जाएगा।" ननद ने सँभालते हुए कहा- “देख लेना फिर रात में ही।"
रतजगा प्रारम्भ हुआ। दस-ग्यारह बजे रात तक लड़कियाँ नाचीं और तब बहएँ मैदान में आयीं। समारोह जब पूरी गरमी पर आ गया तो सास ने कहा, “बहू, अब तू उठ मेरी चाँद !"
गर्वीली बहू ने उपेक्षा से कहा, "इन छोकरियों में मैं क्या नाचूँ माँ; किसी का नाच बढ़िया लगे तो मेरे दिल में भी उमंग आए।"
बहुओं ने इसमें अपने लिए व्यंग्य पाया और उनके ताल में ठसक, भू-भंगियों में कसक की लहरें और अंग-विन्यास में थिरक और लचक गतिशील हो उठी। इस गति में नयी बहू के चैलेंज की स्वीकृति भी थी और अपनी ओर से चैलेंज भी थी।
कोई तीन बजे नयी दुलहिन नाचने को उठी। सबके दिल धड़क उठे और साँसों की चाल धीमी पड़ गयी। बहू ने अब अपना आँचल सँवारा, अब लहँगे के शल सीधे किये, अब ढोलक की कसाई देखी और अब बैठी बहुओं को आगे-पीछे कर जगह ठीक की और लो वह आ गयी नाच की मुद्रा में, पर यह क्या कि वह फिर ठहर गयी और आँखें फाड़-फाड़कर आँगन को देखने लगी। और अब सबने आँखें फाड़-फाड़कर देखा-मुँह पर विराग का भाव लिये बहू बैठ गयी है और पैरों से घुघरू खोल रही है।
आश्चर्य से सास ने पूछा, “ऐं, क्या है बहू?"
"मैं नहीं नाच सकती यहाँ!" बहू ने नाक सिकोड़कर कहा, तो और भी आश्चर्य में सास ने पूछा, “क्यों, क्या बात है मेरी चाँद?"
“इस मकान का आँगन ज़रा टेढ़ा है और नृत्य का भाव-विकास एकदम चौकोर स्थल में ही हो सकता है।" एक दार्शनिक की तरह गम्भीर होकर बहू ने कहा और घुघरू खोलकर उसने ज़रा दूर सरका दिये।
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