कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
|
2 पाठकों को प्रिय 335 पाठक हैं |
सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
इन क्षणों में पाप का नारा होता है :
“अजी बेवकूफ़ है; लोगों को बेवकूफ़ बनाना चाहता है।"
सुधारक का सत्य निन्दा की इस रगड़ से और भी प्रखर हो जाता है और अब उसकी धार चोट ही नहीं करती, काटती भी है।
पाप के लिए यह चोट अब धीरे-धीरे असह्य हो उठती है और वह बौखला उठता है। अब वह अपने सबसे तेज़ शस्त्र को हाथ में लेता है। यह शस्त्र है हत्या।
सुकरात के लिए यह ज़हर का प्याला है, तो ईसा के लिए सूली, दयानन्द के लिए यह पिसा काँच है, तो गाँधी के लिए गोली।
इन क्षणों में पाप का नारा होता है, “ओह, मैं तुम्हें खिलौना समझता रहा और तुम साँप निकले, पर मैं साँप को जीता नहीं छोडूंगा, पीस डालूँगा।"
सुधारक का सत्य हत्या के इस घर्षण से प्रचण्ड हो उठता है। शहादत उसे ऐसी धार देती है कि सुधारक के जीवन में उसे शक्ति प्राप्त न थी, अब हो जाती है। सूर्यों का ताप और प्रकाश उसमें समा जाता है, बिजलियों की कड़क और तूफ़ानों का वेग भी।
पाप काँपता है और उसे लगता है कि इस वेग में वह पिस जाएगा, बिखर जाएगा। तब पाप अपना ब्रह्मास्त्र तोलता है और तोलकर सत्य पर फेंकता है। यह ब्रह्मास्त्र है श्रद्धा।
इन क्षणों में पाप का नारा होता है :
“सत्य की जय, सुधारक की जय !"
अब वह सुधारक की करने लगता है चरण-वन्दना और उसके सत्य की महिमा का गान और बखान।
सुधारक होता है करुणाशील और उसका सत्य सरल विश्वासी। वह पहले चौंकता है, फिर कोमल पड़ जाता है और तब उसका वेग पड़ जाता है शान्त और वातावरण में छा जाती है सुकुमारता।
पाप अभी तक सुधारक और सत्य के जो स्तोत्र पढ़ता जा रहा था, उनका करता है यूँ उपसंहार, “सुधारक महान् है, वह लोकोत्तर है, मानव नहीं; वह तो भगवान् है, तीर्थंकर है, अवतार है, पैग़म्बर है, सन्त है। उसकी वाणी में जो सत्य है, वह स्वर्ग का अमत है। वह हमारा वन्दनीय है, स्मरणीय है, पर हम पृथ्वी के साधारण मनुष्यों के लिए वैसा बनना असम्भव है, उस सत्य को जीवन में उतारना हमारा आदर्श है, पर आदर्श को कब कहाँ, कौन पा सकता है?"
और बस इसके बाद उसका नारा हो जाता है, “महाप्रभु सुधारक वन्दनीय है, उनका सत्य महान् है, वह लोकोत्तर है।''
यह नारा ऊँचा उठता रहता है, अधिक से अधिक दूर तक उसकी गूंज फैलती रहती है, अधिक से अधिक लोग उसमें शामिल होते रहते हैं, पर अब सबका ध्यान सुधारक में नहीं, उसकी लोकोत्तरता में समाया रहता है; सुधारक के सत्य में नहीं, उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थों और फलितार्थों के करने में जुटा रहता है।
अब सुधारक के बनने लगते हैं स्मारक और मन्दिर और उसके सत्य के ग्रन्थ और भाष्य।
बस यहीं सुधारक और उसके सत्य की पराजय पूरी तरह हो जाती है।
पाप का यह ब्रह्मास्त्र अतीत में अजेय रहा है और वर्तमान में भी अजेय है। कौन कह सकता है कि भविष्य में कभी कोई इसकी अजेयता को खण्डित कर सकेगा या नहीं।
|
- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में