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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


आँखें खोलकर चलने के कारण अपने सार्वजनिक जीवन के आरम्भ में ही मैंने समझ लिया था कि नत-सिर और विनत स्कन्ध देखने और जैसी आपकी आज्ञा' सुनने के बाद पंचानबे प्रतिशत वृद्धों में शेष के प्रति कोई ज़िद नहीं रहती और इतना उन्हें न मिले, तो फिर वे किसी भी निर्णय के लिए तैयार नहीं होते, क्योंकि उस समय प्रश्न तर्क और औचित्य के राजपथ से उतर, ज़िद और अहंकार की झाड़ियों में उलझ जाता है।"

असल में यह तत्त्व 1931 में मेरे हाथ लगा था। क़स्बे की एक कन्या उस समय गर्भवती थी, जब उसका विवाह हुआ; इसलिए द्विरागमन होने से पहले ही उसके पुत्री हुई। बात खुल गयी और लड़के वालों ने द्विरागमन करने से इनकार कर दिया। एक दिन मैंने उस कन्या को देखा। अत्यन्त भोली, सात्त्विक और संजीदा। मैं उससे मिला। वह भूल पर दुःखी थी और इस बात के लिए तैयार न थी कि उसका कहीं और दूसरा विवाह किया जाए। मुझ पर इस बात का प्रभाव पड़ा और मैंने प्रयत्न करने का निश्चय कर लिया।

तीन महीनों के प्रयत्नों से लड़के वाले उस कन्या को लेने के लिए तैयार हो गये, पर शर्त यह कि मेरे नगर के लोग-ब्राह्मण पंचायत-सार्वजनिक रूप में, उन्हें यह आदेश दें कि वे इसे ग्रहण करें। शर्त कठिन थी, पर उचित। मैंने उद्योग आरम्भ किया, पाँच वृद्ध पंचों को मनाना कठिन था और शेष लोगों से पंचायत में हाथ उठवाना सरल, इसलिए मैंने अलग-अलग पंचों से मिलना आरम्भ किया।

मैंने यह भूमिका तैयार की कि बातचीत इससे ही आरम्भ करूँगा, "लड़की बड़ी गऊ है, ज़रा-सी भूल में मारी गयी। आप समाज की नस-नस को पहचानते हैं, सारी उमर बरा जीवन बिताएगी. ये इतनी वेश्याएँ यों ही तो बढ़ी हैं। आप आज्ञा दें तो इसे इसके घर पहुंचा दें, पर यह आपकी पूरी शक्ति लगाये बिना सम्भव नहीं। बात यह है कि आप तो युग का पहचानते हैं, पर ज़्यादातर लोग अभी अँधेरे में ही पडे हैं। हाँ. आपका इतना प्रभाव है कि आप पंचायत में बोल पड़ें तो फिर कोई साँस नहीं ले सकता। यह गऊ अपने खुंटे से बँध जाएगी। एक बात है कि यह सारे समाज का मामला है। हम लोग तो अभी बालक हैं, ठीक समझते नहीं। आपका अनुभव विशाल है। आप आज्ञा दें तो बात चलायी जाए, नहीं तो यहीं ख़त्म !"

बातचीत चलायी गयी और पंचायत में प्रस्ताव इतने ज़ोरों से पास हआ कि सबके लिए आश्चर्यजनक ! तब से मैंने सीखा कि वृद्धों का यदि हम मान रखें तो वे हमें कर्म की स्वतन्त्रता दे देते हैं। वृद्धों के अहंकार पर कभी आक्रमण मत करो, यह समाज-सुधार का पहला मन्त्र मैंने याद कर लिया और फिर तो वृद्धों का मान मेरा स्वभाव ही हो गया। अब तो मुझे बड़ों के सामने, उनका आदेश पाकर भी ऊपर बैठते संकोच होता है। मेरे लिए अब यह कोई टैक्ट नहीं, संस्कार हो गया है और मैं तो चाहता हूँ कि हरेक युवक में यह संस्कार हो।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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