नारी विमर्श >> किरदार जिन्दा है किरदार जिन्दा हैरेखा कस्तवार
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किरदार जिन्दा है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जिन्दगी में आस-पास उगे कैक्टस जैसे प्रश्न...। रचनाओं के किरदारों से उन प्रश्नों पर सोते-जागते होने वाला संवाद। मेरे भीतर की स्त्री ने सम्भावना की चिट्ठी रची। मैंने महसूस किया कि यह सिर्फ मेरे अन्दर की स्त्री नहीं थी। क्या यह तमाम दुनिया के अन्दर की सम्भावना थी? पर लोग तो कहते हैं, नस्ल, जाति, देश, काल के धरातल पर औरत के प्रश्न इतने अलग-अलग हैं कि कभी-कभी मुठभेड़ की मुद्रा में दिखाई देते हैं। जैसे कोई माँ बनकर खुश होता है तो कोई मातृत्व से मुक्ति की राह ढ़ूँढ़ रहा है, कोई परिवार से बाहर खड़ा अन्दर आने का दरवाजा खटखटा रहा है तो कोई कुंडी खोल बाहर जाने को छटपटा रहा है। खैर! सम्भावना ने चिट्ठी रची, चिट्ठी की आत्मीयता और संवेदना ने लुब्रीकेशन का काम किया, पत्र लेखों ने अपना आकार लेना शुरु कर दिया।
सही पते की तलाश तब भी पूरी कहाँ हुई। मेरा खुद से सवाल था कि यह मैं किसके लिए लिख रही हूँ? सही पते कौन से हैं? आम औरत के जीवन के सवाल और किताबों के उनके पाठकों तक पहुँचाने में, मैं क्या कोई पुल का काम कर सकती हूँ? मेरे लिए मेरे किरदार महत्त्वपूर्ण थे, जो आम जिन्दगी के प्रश्नों के वाहक बने। लोगों ने मेरी चिट्ठी में पत्र खोजे, प्रश्नों से साक्षात्कार किया, फिर कहा कि किताब तक कहाँ और कैसे जाएँ, आप कहानी सुना दें। मेरी किताबें गले लगकर रोईं, मुझे लताड़ा भी... लोगों को पास हम तक आने का वक्त नहीं बचा, ‘जिस्ट’ चाहिए...। हमारा भविष्य को लाइब्रेरियों में दब कर दम घुटकर मरने या फिर ‘राइट ऑफ’ होकर जल मरने में हैं। तुम हमारी कहानी सुना दो उन्हें, वे चलकर नहीं आयेंगे हम तक....। कितनी रातें हम साथ-साथ सुबके हैं।
हाँ, तो सवाल था कि सही पते कौन से हैं, मेरे लेखक मित्रों ने चिकोटी काटी... किसी ‘नामवर’ तक पहुँची तुम्हारी चिट्टी? अनाम मोहिनी देवियों की कहानी के इस्तरी-बिस्तरी विमर्श से बुद्धिजीवियों को क्या लेना-देना! आप समाज से सीधी बात करना चाहती हैं, आँकड़ों-वाँकड़ों का खेल समाजशास्त्री खेलते हैं। मैंने चुपचाप रहना ठीक समझा... समाजशास्त्रियों के अपने तर्क थे - वैज्ञानिक दृष्टि से बात कीजिए। ये साहित्यिक भाषा, संवेदना, आत्मीयता....। अरे, तटस्थ होकर सोचिए...! चिट्ठियों को सही पते की तलाश है...यूँ जानती हूँ, ऊपर लिखे सारे पते सही है।
सही पते की तलाश तब भी पूरी कहाँ हुई। मेरा खुद से सवाल था कि यह मैं किसके लिए लिख रही हूँ? सही पते कौन से हैं? आम औरत के जीवन के सवाल और किताबों के उनके पाठकों तक पहुँचाने में, मैं क्या कोई पुल का काम कर सकती हूँ? मेरे लिए मेरे किरदार महत्त्वपूर्ण थे, जो आम जिन्दगी के प्रश्नों के वाहक बने। लोगों ने मेरी चिट्ठी में पत्र खोजे, प्रश्नों से साक्षात्कार किया, फिर कहा कि किताब तक कहाँ और कैसे जाएँ, आप कहानी सुना दें। मेरी किताबें गले लगकर रोईं, मुझे लताड़ा भी... लोगों को पास हम तक आने का वक्त नहीं बचा, ‘जिस्ट’ चाहिए...। हमारा भविष्य को लाइब्रेरियों में दब कर दम घुटकर मरने या फिर ‘राइट ऑफ’ होकर जल मरने में हैं। तुम हमारी कहानी सुना दो उन्हें, वे चलकर नहीं आयेंगे हम तक....। कितनी रातें हम साथ-साथ सुबके हैं।
हाँ, तो सवाल था कि सही पते कौन से हैं, मेरे लेखक मित्रों ने चिकोटी काटी... किसी ‘नामवर’ तक पहुँची तुम्हारी चिट्टी? अनाम मोहिनी देवियों की कहानी के इस्तरी-बिस्तरी विमर्श से बुद्धिजीवियों को क्या लेना-देना! आप समाज से सीधी बात करना चाहती हैं, आँकड़ों-वाँकड़ों का खेल समाजशास्त्री खेलते हैं। मैंने चुपचाप रहना ठीक समझा... समाजशास्त्रियों के अपने तर्क थे - वैज्ञानिक दृष्टि से बात कीजिए। ये साहित्यिक भाषा, संवेदना, आत्मीयता....। अरे, तटस्थ होकर सोचिए...! चिट्ठियों को सही पते की तलाश है...यूँ जानती हूँ, ऊपर लिखे सारे पते सही है।
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