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आचार्य श्रीराम शर्मा >> महिला जागृति अभियान

महिला जागृति अभियान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4231
आईएसबीएन :0000

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महिला जागृति अभियान...

ये बंधन अब टूटने ही चाहिए


लोकमानस में नारी के प्रति इतनी भ्रांतियां इतनी मूढ़ मान्यताएँ जड़ पकड़ गई हैं कि उन्हें ऐसेकुहासे का प्रकोप कह सकते हैं, जिसमें हाथ-को-हाथ नहीं सूझता। दुर्बुद्धि, समझदारी जैसी लगती है। परिवर्तन इसी क्षेत्र में लाए जाने की आवश्यकताहै-मान्यताओं के अनुरूप चिंतन-प्रवाह चल पड़ता है, तदनुरूप क्रिया-कलाप और प्रचलन-व्यवहार का क्रम स्वतः बन पड़ता है। जिन दिनों नारी की वरीयताशिरोधार्य की जाती थी और उसे मानुषी-कलेवर में देवी की मान्तया दी जाती थी, तब वह अपनी क्षमताओं को उभारने और समूची मानव जाति का बहुविध हित-साधनकरने में समर्थ रहती थी, परिवारों को नररत्नों की खदान बना देने का श्रेय उसी के जिम्मे आता था, पर जब उसे उस उच्च पद से हटाकर मात्र पालतू पशु केसमतुल्य समझा जाने लगा, तो स्वाभाविक ही था कि वह अशक्त, असुरक्षित और पराधीनता के गर्त में अधिकाधिक गहराई तक गिरती चली गई।

इन दिनों नारी के प्रति जो दृष्टिकोण है, उसमें अभिभावक उसे पराये घर का कूड़ा मानकरउपेक्षा करते और लड़कों की तुलना में कहीं अधिक निचले दरजे का पक्षपात बरतते हैं। पति की दृष्टि में वह कामुकता की आग को बुझाने का एक खरीदा गयामाध्यम है। उसे कामिनी, रमणी और भोग्या के रूप में ही निरखा, परखा और संतान का असह्य भार वहन करने के लिए बाध्य किया जाता है। ससुराल के समूचेपरिवार की दृष्टि में वह मात्र ऐसी दासी है, जिसे दिन-रात काम में जुटे रहने और बदले में किसी अधिकार या सम्मान पाने के लिए अनधिकृत मान लियाजाता है। स्पष्ट है, इन बाध्य परिस्थितियों में रहकर कोई भी मौलिक प्रतिभा को गँवाता ही चला जा सकता है। यही इन दिनों उसकी नियति बन गई है। हेयमानसिकता ने ही उसकी वरिष्ठता का अपहरण किया और फिर से न करने के लिए माँग करने तक में असह्य-असमर्थ बना दिया है। ऐसी दशा में उसकी उपयोगिता औरप्रतिभा का हास होते जाना स्वाभाविक ही है। आधी जनसंख्या को ऐसी दयनीय स्थिति में पटक देने पर पुरुष भी मात्र घाटा ही सह सकता है। समस्त संसारको उनके गरिमाजन्य अनेकानेक लाभों से वंचित रहना पड़ रहा है, विशेषतः भारत जैसे पिछड़े देश के लोगों के लिए तो यह घाटा निरंतर उठाते रहना बहुत हीभारी पड़ता है।

न्याय और औचित्य को उपलब्ध करने के लिए माँग ही नहीं, संघर्ष करने वाले इस युग में नारी कीयथास्थिति बनी रहे, यह हो नहीं सकता। समय ने अनेक प्रसंगों में अनेक स्तर के परिवर्तन करने के लिए बाध्य कर दिया है। वह प्रवाह नारी को यथास्थितिमें यथावत् पड़े नहीं रहने दे सकता है। इस परिवर्तन और उत्थान की एक छोटी झलक-झाँकी नारी के अधिकारों को कानूनी स्थिति प्रदान करने से आरंभ हुई हैऔर उसने सामाजिक क्षेत्र में उचित न्याय मिलने की संभावना का संकेत दिया है। पंचायत चुनाव में उनके लिए ३0 प्रतिशत स्थान सुरक्षित किए गए हैं। यहस्तर प्रांतीय केंद्रीय शासन सभाओं में भी प्राप्त होगा। इस आधार पर उमड़े हुए उत्साह ने नर और नारी, दोनों को प्रभावित किया है। नारी सोचती है, उसेहर दृष्टि से शासित ही बने रहने की विवशता को क्यों वहन करना चाहिए? जब शासन में भागीदार बनने के लिए उसे अवसर मिला है, उसे वह गँवाए क्यों? औरभविष्य में अपने वर्ग को उच्चाधिकार दिलाने का, स्वागत करने का मानस क्यों न बनाए? परिवार के पुरुष भी सोचते हैं कि हमारा कोई सदस्य यदि शासन मेंभागीदार बनता है, तो उस आधार पर पूरे परिवार का सम्मान और अधिकार बढ़ेगा ही। अस्तु जहाँ सम्मान-लाभ का प्रयोग आता है, वहाँ सहज सहमति हो जाती है।वर्तमान सुधारों का सर्वत्र स्वागत ही किया गया है और प्रयास चल पड़ा है कि नारियों को अधिक सुयोग्य बनाया जाए ताकि वे जनसाधारण की दृष्टि मेंमहत्त्वपूर्ण मानी जाएँ और उन्हें मतदान में भी सफलता मिले।

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