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आचार्य श्रीराम शर्मा >> समयदान ही युगधर्म

समयदान ही युगधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4238
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है समयदान ही युगधर्म....

Samayadan Hi Yugdharm

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


दान अर्थात देना; ईश्वर प्रदत्त क्षमताओं को जागृत विकसित करना और उससे औरों को भी लाभ पहुँचाना। यही है पुण्य परमार्थ-सेवा। स्वर्गीय परिस्थितियाँ सी आधार पर बनती हैं।

लेना-बटोरना-दूसरों के अधिकार का अपहरण करना, यही पाप है, इसी की प्रतिक्रिया का अलंकारिक प्रतिपादन है नर्क।

यहाँ समस्त महामानव मात्र एक ही अवलंबन अपनाकर उत्कृष्टता के प्रणेता बन सके हैं, कि उन्होंने संसार में जो पाया, उसे प्रतिफल स्वरूप अनेक गुना करने देने का व्रत निवाहा।

धनदान तो एक प्रतीक मात्र है। उसका तो दुरुपयोग भी हो सकता है, प्रभाव विपरीत भी पड़ सकता है। वास्तविक दान प्रतिभा का है, धम साधन उसी से उपजते हैं। प्रतिभादान-समयदान से ही संभव है। यह ईश्वर प्रदत्त सम्पदा सबके पास समान रूप से विद्यमान है।

वस्तुतः समयदान तभी बन पड़ता है, जब अंतराल की गहराई में आदर्शों पर चलने के लिए बेचैन करने वाली टीस उठती हो।

यह असाधारण समय है। तत्काल निर्णय और तीव्र क्रियाशीलता उसी प्रकार आवश्यक है जैसी कि आग बुझाने या ट्रेन छूटने के समय होती है। हनुमान, बुद्, समर्थ गुरु रामदास, विवेकानंद आदि ने समय आने पर शीघ्र निर्णय न लिये होते, तो ये उस गौरव से वंचित ही रह जाते, दो उन्हें प्राप्त हो गया।

महात्मा ईसा ने ठीक ही कहा है, ‘‘श्रेष्ठ कार्य यदि बाएँ हाथ की पकड़ में आता है तो भी तुरन्त पकड़ो। बाएँ से दाएँ का संतुलन बनाने जितने थोड़े से समय में ही कहीं शैतान बहका न ले....।

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