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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री प्रार्थना

गायत्री प्रार्थना

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4247
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत है गायत्री प्रार्थना

Gayatri Prarthana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गायत्री महिमा गान

गायत्री मंत्र की महिमा को सभी शास्त्रों ने, सभी संप्रदायों ने, सभी ऋषियों ने एक स्वर में स्वीकार किया है। अथर्व वेद 19-71-1 में गायत्री की स्तुति की गई है, जिसमें उसे आयु, प्राण, संतान, संपत्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है।


‘‘गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं है।’’

विश्वामित्र

‘‘गायत्री से श्रेष्ठ मंत्र न हुआ है और न होगा।’’

याज्ञवल्क्य

‘‘वेदों और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है।’’

पाराशर

‘‘नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए हाथ पकड़ कर बचाने वाली गायत्री ही है।’’

शंख ऋषि


‘‘गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है।’’


अत्रि ऋषि


‘‘जिस प्रकार पुष्पों का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है। सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है। जो गायत्री को छोड़कर अन्य उपासनाएँ करता है, वह पकवान को छोड़कर भिक्षा माँगने वाले के समान मूर्ख है।’’


महर्षि व्यास


‘‘जो ब्रह्मचर्यपूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आँवले के ताजे फलों का सेवन करता है, वह दीर्घदीवी होता है।’’

चरक ऋषि

‘‘जहाँ भक्ति-रूपी गायत्री है, वहां श्री नारायण का निवास होने में कोई संदेह नहीं करना चाहिए।’’

नारद

‘‘मंदमति, कुमार्गगामी और अस्थिर मति भी गायत्री के प्रभाव से उच्च पद को प्राप्त करते हैं।’’

वशिष्ठ

दो शब्द



परम पूज्य गुरुदेव ने गायत्री साधना उपासना पर ‘गायत्री की दैनिक साधना’ से लेकर ‘गायत्री महाविज्ञान’ तक अनेक ग्रंथ लिखे हैं। आध्यात्मिक जिज्ञासु एवं साधक उनसे प्रेरणा प्रकाश पाते हैं एवं उपासना क्रम अपनाते हैं। पूज्य गुरुदेव के लिखे हुए गायत्री साहित्य से कुछ विशिष्ट अंश लेकर दैनिक उपासना प्रार्थना क्रम को सुव्यवस्थित, सरल एवं विशिष्ट रूप देने का प्रस्तुत पुस्तक में प्रयास किया गया है। मूल विचार एवं निर्धारण परम पूज्य गुरुदेव का है। उन्हीं की प्रेरणा से उनके ही प्रतिपादित आध्यात्मिक सूत्र संकेतों को संकलित करने सँजोने का प्रयास भर नए ढंग से किया गया है, जिसमें व्यक्तिगत उपासनाक्रम को वर्णित किया गया है, जहाँ यह पुस्तक व्यक्ति के लिए उपासना विधि और मंत्रों को स्पष्ट करती है, वहीं प्रार्थना के क्रम गीत आदि की भी विवेचना प्रस्तुत करती है। पुस्तक में गायत्री परिवार के प्रमुख पाँचों केंद्रों एवं परमपूज्य गुरुदेव व वन्दनीय माताजी का परिचय दिया गया है। गायत्री चालीसा, आरती, स्तवन, सत्संकल्प एवं दैनिक संध्या विधि आदि को समन्वित किया गया है।

यह पुस्तक नए पुराने परिजनों के लिए व्यक्तिगत एवं सामूहिक उपासना उपक्रमों को सुचारु रूप से संपन्न करने के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसा विश्वास है।


सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:खमाप्नुयात्।।


प्रार्थना का महत्त्व



गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है :
ऊँ (परमात्मा) भू: (प्राण स्वरूप) भुव: (दु:खनाशक) स्व: (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितु: (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्ग: (पापनाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करे) धियो (बुद्धि) यो (जो) न: (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करें)।

अर्थात् उस प्राण स्वरूप, दु:खनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।

इस अर्थ का विचार करने से उसके अंतर्गत तीन तथ्य प्रकट होते हैं। 1-ईश्वर का दिव्य चिंतन, 2- ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना, 3- सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महत्त्व की है।

(1)    ईश्वर के प्राणवान्, दु:ख रहित, आनंद स्वरूप का ध्यान करने का विचार और स्वभाव को ऐसा बनाएँ कि उपयुक्त विशेषताएँ हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठ बनाती चलती है।

(2)    गायत्री मंत्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अंदर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण संपन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर दर्शन का आनंद प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में रहता हुआ अनुभव करता है।

(3)    मंत्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्त्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन करता है। भगवान से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिए, क्योंकि यह एक ऐसी महान् भगवत् कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख-संपदाएँ अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।

इस मंत्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सात्विक बनाने, आदर्शों को ऊँचा रखने, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करना और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत करना। जैसे-जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा, वैसे ही वैसे दिव्य गुण संपन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जाएगी और उसी अनुपात में लौकिक और परलौकिक आनंद की अभिवृद्धि होती जाएगी।

गायत्री मंत्र से सन्निहित उपर्युक्त तथ्य में ज्ञान, भक्ति, कर्म तीनों हैं। सद्गुणों का चिंतन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारणा भक्तियोग है और बुद्धि सात्विकता एवं अनासक्ति कर्मयोग है। वेदों में ज्ञान, कर्म, भक्ति ये तीनों ही विषय हैं। गायत्री में बीज रूप से ये तीनों ही तथ्य सर्वांगीण ढंग से प्रतिपादित हैं।

इन भावनाओं का एकांत में बैठकर नित्य अर्थ-चिंतन करना चाहिए। यह ध्यान-साधना मनन के लिए अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिए जाते हैं। इन संकल्पों को शांत चित्त से, स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बंद रखकर मन ही मन दुहराना चाहिए और कल्पना शक्ति की सहायता से इन संकल्पों का ध्यान मन:क्षेत्र में भली प्रकार अंकित करना चाहिए।

(1)    परमात्मा का ही पवित्र अंश-अविनाशी राजकुमार मैं आत्मा हूँ। परमात्मा प्राणस्वरूप है, मैं भी अपने को प्राणवान् आत्मशक्ति संपन्न बनाऊँगा। प्रभु दु:ख रहित है, मैं दु:खदायी मार्ग पर न चलूँगा। ईश्वर आनन्द स्वरूप है, अपने जीवन को आनन्द स्वरूप बनाना तथा दूसरों के आनंद में वृद्धि करना मेरा कर्त्तव्य है। भगवान् तेजस्वी है, मैं भी निर्भीक, आदर्शवादिता एवं सिद्धान्तमय जीवन नीति अपनाकर मैं भी श्रेष्ठ बनूँगा। जगदीश्वर निष्पाप है, मैं भी पापों से, कुविचारों और कुकर्मों से बचकर रहूँगा। ईश्वर दिव्य है, मैं भी अपने को दिव्य गुणों से सुसज्जित करूँगा, संसार को कुछ देते रहने की देव नीति अपनाऊँगा। इसी मार्ग पर चलने से मेरा मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।

(2)    उपर्युक्त गुणों वाले परमात्मा को मैं अपने अन्दर धारण करता हूं। इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण-कण में प्रभु समाए हैं। वे मेरे चारों ओर, भीतर बाहर सर्वत्र फैले हुए हैं। मैं संस्मरण करूँगा। उन्हीं के साथ हँसूँगा और खेलूँगा। वे ही मेरे चिर सहचर हैं। लोभ, मोह, वासना और तृष्णा का प्रलोभन दिखाकर पतन के गहरे गर्त में धकेल देने वाली दुर्बुद्धि से, माया से बचकर अपने को अंतर्यामी परमात्मा की शरण में सौंपता हूँ। उन्हें ही अपने हृदयासन पर अवस्थित करता हूँ, अब वे मेरे और मैं केवल उन्हीं का हूँ। ईश्वरीय आदर्शों का पालन करना और विश्वनाथ परमात्मा की सेवा करना ही अब मेरा लक्ष्य रहेगा।

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