नाटक-एकाँकी >> तुगलक तुगलकगिरीश कारनाड
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नाटक का कथानक मात्र तुग़लक के गुण-दोषों तक ही सीमित नहीं है। इसमें उस समय की परिस्थितियों और तज्जनित भावनाओं को भी व्यक्त किया गया है
Tughlaq (Girish Karnad)
मुहम्मद तुग़लक चारित्रिक विरोधाभास में जीने वाला एक ऐसा बादशाह था जिसे इतिहासकारों ने उसकी सनकों के लिए खब़्ती करार दिया। जिसने अपनी सनक के कारण राजधानी बदली और ताँबे के सिक्के का मूल्य चाँदी के सिक्के के बराबर कर दिया। लेकिन अपने चारों ओर कट्टर मज़हबी दीवारों से घिरा तुग़लक कुछ और भी था। उसमे मज़हब से परे इंसान की तलाश थी। हिंदू और मुसलमान दोनों उसकी नजर में एक थे। तत्कालीन मानसिकता ने तुग़लक की इस मान्यता को अस्वीकार कर दिया और यही ‘अस्वीकार’ तुग़लक के सिर पर सनकों का भूत बनकर सवार हो गया था।
नाटक का कथानक मात्र तुग़लक के गुण-दोषों तक ही सीमित नहीं है। इसमें उस समय की परिस्थितियों और तज्जनित भावनाओं को भी व्यक्त किया गया है, जिनके कारण उस समय के आदमी का चिंतन बौना हो गया था और मज़हब तथा सियासत के टकराव में हरेक केवल अपना उल्लू सीधा करना चाहता है।
3 अप्रैल, 1983, हिन्दुस्तान, नयी दिल्ली
नाटक का कथानक मात्र तुग़लक के गुण-दोषों तक ही सीमित नहीं है। इसमें उस समय की परिस्थितियों और तज्जनित भावनाओं को भी व्यक्त किया गया है, जिनके कारण उस समय के आदमी का चिंतन बौना हो गया था और मज़हब तथा सियासत के टकराव में हरेक केवल अपना उल्लू सीधा करना चाहता है।
3 अप्रैल, 1983, हिन्दुस्तान, नयी दिल्ली
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