आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर....
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मील का पत्थर
आज फिर वही कठिनाई आ गई, जो उत्तरकाशी से चलते हुए आरम्भिक दो दिनों में आईथी। भटवाड़ी चट्टी तक रास्ते को चौड़ा करने और सुधारने का काम चल रहा था, इसलिए मील के पत्थर उन दो दिनों में नहीं मिले। रास्ते में कड़ी चढ़ाई-उतराई और कठिन मंजिल थोड़ी ही देर में थका देती थी। घने जंगलों का प्राकृतिक सौन्दर्य था, तो बहुत भला, पर रोज-रोज चौबीस घण्टे वही देखतेरहने से आरम्भ में जो आकर्षण था, वह घट ही रहा था। सुनसान में अकेली यात्रा भी अखरने ही वाली थी। जन कोलाहल में व्यस्त जीवन बिताने वाले केलिए नीरव एकान्त भी कष्टदायक होता है। यह सूनापन और कठोर श्रम जब शरीर और मन को थकाने लगता तो एक ही जिज्ञासा उठती-आज कितनी मंजिल पार कर ली? कितनीअभी और शेष है?
थोड़ी-थोड़ी दूर चलकर सामने से आने वालों से पूछते-अब अगली चट्टी कितनी दूर है? उसी सेअन्दाज लगाते कि आज अभी कितना और चलना है? कुछ रास्तागीर घमण्डी होते, जानकर भी उपेक्षा करते, न बताते कुछ को मालूम ही न था, कुछ अन्दाज सेबताते तो उसमें मीलों का अन्तर होता, इससे यह भी आशा कम ही रहती थी कि पूछने पर भी समाधान कारक उत्तर मिल ही जायेगा, यह एक बड़ी कमी थी, खासतौरसे अकेले चलने वाले के लिए। सात-पाँच की हँसते-बोलते हुए आसानी से मंजिल कट जाती है, पर अकेले के लिए काटना तो उसे काफी कठिन होता है। इस कठिनाईमें मील के पत्थर कितना काम देते हैं, इसका अनुभव भटवाड़ी चट्टी से लेकर गंगोत्री तक की यात्रा में किया। इस बीच में मील तो नहीं गढ़े थे, परपहाड़ी की दीवार पर सफेदी पोतकर लाल अक्षर से २५/६ इस प्रकार के संकेत जहाँ-तहाँ लिख दिए थे। इसका अर्थ था धरासँ से पच्चीस-मील सात फर्लाग आ गए।पिछली चट्टी पर कौन-सा मील था, अगली चट्टी पर कौन-सा मील पड़ेगा, यह जानकारी नक्शे के आधार पर थी- मंजिल का पता चलता रहता। इस सुनसान में यहफर्लाग के अक्षर भी बड़े सहायक थे, इन्हीं के सहारे सारा रास्ता करता था। एक फर्लांग गुजरने पर दूसरे की आशा लगती और वह आ जाती तो सन्तोष होता किइतनी सफलता मिली अब इतना ही शेष रह गया?
आज फिर गंगोत्री से गोमुख के रास्ते में मील, फर्लाग नहीं हैं, तो फिर वैसीही असुविधा हुई, जैसी उत्तरकाशी से चलते समय आरम्भिक दो दिनों में हुई थी। यह गंगोत्री से गोमुख का १८ मील का रास्ता बड़ी मश्किल से कटा, एक तो यहथा भी बड़ा दर्गम, फिर उस पर भी मील. फर्लाग जैसे साथी और मार्गदर्शकों का अभाव। आज यह पंक्तियाँ लिखते समय यह परेशानी कुछ ज्यादा अखर रही है।
सोचता हूं, मील का पत्थर अपने आप में कितना तुच्छ है। उसकी कीमत, योग्यता,सामर्थ्य, विद्या, बुद्धि सभी उपहासास्पद है; पर यह अपने एक निश्चित और नियत कर्तव्य को लेकर यथास्थान जम गया है। हटने की सोचता तक नहीं। उसे एकछोटी बात मालूम है, धरासँ इतने मील इतने फर्लाग है। बस केवल इतने से ज्ञान से लेकर यह जन-सेवा के पथ पर अड़ गया है। उस पत्थर के टुकड़े की, नगण्य औरतुच्छ सी-यह निष्ठा अन्तत: कितनी उपयोगी सिद्ध हो रही है। मुझ जैसे अगणित पथिक उससे मार्गदर्शन पाते हैं और अपनी परेशानी का समाधान करते हैं।
जब यह जरा-सा पत्थर का टुकड़ा मार्ग-दर्शन कर सकता है, जब मिट्टी का जरा-साएक दो पैसे मूल्य का दीपक प्रकाश देकर रात्रि के खतरों से दूसरों की जीवन रक्षा कर सकता है, तो क्या सेवा भावी मनुष्य को इसलिए चुप ही बैठना चाहिएकि उसकी विद्या कम है, बुद्धि कम है, सामर्थ्य कम है, योग्यता कम है? कमी हर किसी में है; पर हममें से प्रत्येक अपने क्षेत्र के-कम से कम जानकारीमें, कम स्थिति के लोगों में बहुत कुछ कर सकते हैं। “अमुक योग्यता मिलती तो अमुक कार्य करता” ऐसी शेखचिल्ली कल्पनाएँ करते रहने की अपेक्षा, क्यायह उचित नहीं कि अपनी जो योग्यता है उसी को लेकर अपने से पिछड़े हुए लोगों को आगे बढ़ाने का मार्ग-दर्शन का काम शुरू कर दें। मील का पत्थर सिर्फधरासँ और गंगोत्री का अन्तर मात्र जानता है, उतना ही बता सकता है, पर उसकी सेवा भी क्या कम महत्त्व की है। उसके अभाव में उत्तरकाशी से भटवाड़ी तकपरेशानी रही और कल गोमुख दर्शन का जो सौभाग्य मिलने वाला है, उसकी सुखद कल्पना में उन पत्थरों का अभाव बुरी तरह खटक रहा है।
हममें से कितने ऐसे हैं, जो मील के पत्थरों से अधिक जन सेवा कर सकते हैं, परआत्मविश्वास, निष्ठा और जो कुछ है, उसी को लेकर अपने उपयुक्त क्षेत्र में अड़ जाने की निष्ठा हो, तभी तो हमारी उपयोगिता को सार्थक होने का अवसरमिले।
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