आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर....
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सुनसान के सहचर
मनुष्य की यह अद्भुत विशेषता है कि वह जिन परिस्थितियों में रहने लगता है, उसकाअभ्यस्त हो जाता है। जब मैंने इस निर्जन वन की इस सुनसान कुटिया में प्रवेश किया था, तो सब ओर सूना ही सूना लगने लगता था। अन्तर का सुनसान जबबाहर निकल पड़ता, तो सर्वत्र सुनसान ही दीखता था; पर अब जबकि अन्तर की लघुता धीरे-धीरे विस्मृत होती जा रही है, चारों ओर अपने ही अपनेहँसते-बोलते नजर आते हैं, तो अब सूनापन कहाँ? अब अन्धेरे में डर किसका?
अमावस्या की अन्धेरी रात, बादल घिरे हुए, छोटी-छोटी बूंदें, ठण्डी वायु का कम्बल कोपार कर भीतर घुसने का प्रयत्न। छोटी सी कुटिया में, पत्ते की चटाई पर पड़ा हुआ यह शरीर आज फिर असुखकर अन्यमनस्कता अनुभव करने लगा। नींद आज फिर उचटगई। विचारों का प्रवाह फिर चल पड़ा। स्वजन सहचरों से भरे सुविधाओं से सम्पन्न घर और इस सघन तमिस्रा की चादर लपेटे वायु के झोंके से थर-थरकाँपती हुई, जल से भीग कर टपकती पर्णकुटी की तुलना होने लगी। दोनों के गुण-दोष गिने जाने लगे।
शरीर असुविधा अनुभव कर रहा था। मन भी उसी का सहचर ठहरा, वही क्यों इस असुविधामें प्रसन्न होता? इसकी मिली भगत जो है। आत्मा के विरुद्ध ये दोनों एक हो जाते हैं। मस्तिष्क तो इनका खरीदा हुआ वकील है। जिसमें इनकी अरुचि होतीहै, उसी का समर्थन करते रहना इसने अपना व्यवसाय बनाया हुआ है। राजा के दरबारी जिस प्रकार हवा का रुख देखकर बात करने की कला में निपुण होते थे,राजा को प्रसन्न रखने उसकी हाँ में हाँ मिलाने में दक्षता प्राप्त किए रहते थे, वैसा ही यह मस्तिष्क भी है। मन की रुचि देखकर उसी के अनुकूल यहविचार प्रवाह को छोड़ देता है। समर्थन में अगणित कारण हेतु, प्रयोजन और प्रमाण उपस्थित कर देना इसके बाँये हाथ का खेल है। सुविधाजनक घर के गुण औरइस कष्टकारक निर्जन के दोष बताने में वह बैरिस्टरों के कान काटने लगा। सनसनाती हुई हवा की तरह उसका अभिभाषण भी जोरों से चल रहा था।
इतने में सिरहाने की ओर छोटे से छेद में बैठे हुए झींगुर ने अपना मधुर संगीतगाना आरम्भ कर दिया। एक से प्रोत्साहन पाकर दूसरा बोला, दूसरे की आवाज सुनकर तीसरा, फिर उससे चौथा, इस प्रकार कुटी में अपने-अपने छेदों मेंबैठे, कितने ही झींगुर एक साथ गाने लगे। उनका गायन यों उपेक्षा बुद्धि से तो अनेकों बार सुना था। उसे कर्कश, व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण समझा था, पर आजमन के लिये कुछ काम न था। वह ध्यानपूर्वक इस गायन के उतार-चढ़ाव को परखने लगा। निर्जन की निन्दा करते-करते वह थक भी गया था। इस चंचल बन्दर को हरघड़ी नये-नये प्रकार के काम जो चाहिए। झींगुर की गान-सभा का समा बँधा, तो उसी में रस लेने लगा।
झींगुर ने बड़ा मधुर गाना गाया। उसका गीत मनुष्य की भाषा में न था, पैर भाव वैसेही मौजूद जैसे मनुष्य सोचता है। उसने गाया हम असीम क्यों न बनें? असीमता का आनन्द क्यों न लें? सीमा ही बन्धन है, असीमता में मुक्ति का तत्त्व भराहै। जिसका इन्द्रियों में ही सुख सीमित है, जो कुछ चीजों और कुछ व्यक्तियों को ही अपना मानता है, जिसका स्वार्थ थोड़ी-सी कामनाओं तक हीसीमित है, वह बेचारे, क्षुद्र प्राणी, इस असीम परमात्मा के असीम विश्व में भरे हुए असीम आनन्द का भला कैसे अनुभव कर सकेगा? जीव तू असीम हो, आत्मा काअसीम विस्तार कर सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बिखरा पड़ा है; उसे अनुभव कर अमर हो जा।
इकतारे पर जैसा बीतराग ज्ञानियों की मण्डली मिलजुलकर कोई निर्वाण का पद गा रही हो,वैसे ही यह झींगुर निर्विघ्न होकर गा रहे थे, किसी को सुनाने के लिए नहीं। स्वान्तः सुखाय ही उनका यह प्रयास चल रहा था। मैं भी उसी में विभोर होगया। वर्षा के कारण क्षतिग्रस्त कुटिया से उत्पन्न असुविधा विस्मरण हो गयी, सुनसान में शान्तिगीत गाने वाले सहचरों ने उदासीनता को हटाकर उल्लासका वातावरण उत्पन्न कर दिया।
पुरानी आदतें छूटने लगीं। मनुष्यों तक सीमित आत्मीयता से बढ़कर प्राणिमात्र तकविस्तृत होने का प्रयत्न किया, तो दुनियाँ बहुत चौड़ी हो गई। मनुष्य के साथ रहने के सुख की अनुभूति से बढ़कर अन्य प्राणियों के साथ भी वैसी हीअनुभूति करने की प्रक्रिया सीख ली। अब इस निर्जन वन में भी कहीं सूनापन दिखाई नहीं देता।
आज कुटिया से बाहर निकलकर इधर-उधर भ्रमण करने लगा, तो चारों ओर सहचर दिखाईदेने लगे। विशाल वृक्ष पिता और पितामह जैसे दीखने लगे। कषाय बल्कलधारी भोज पत्र के पेड़ ऐसे लगते थे, मानों गेरुआ कपड़ा पहने कोई तपसी महात्मा खड़ेहोकर तप कर रहे हों। देवदारु और चीड़ के लम्बे-लम्बे पेड़ प्रहरी की तरह सावधान खड़े थे, मानों मनुष्य जाति में प्रचलित दुर्बुद्धि को अपने समाजमें न आने देने के लिए कटिबद्ध रहने का व्रत उनने लिया हुआ हो।
छोटे-छोटे लता-गुल्म नन्हें-मुन्ने बच्चे-बच्चियों की तरह पंक्ति बना कर बैठे थे।पुष्पों में उनके सिर सुशोभित थे। वायु के झोंकों के साथ हिलते हुए ऐसे लगते थे, मानों प्रारम्भिक पाठशाला में छोटे छात्र सिर हिला-हिला करपहाड़े याद कर रहे हों। पल्ल्वों पर बैठे हए पशु-पक्षी मधुर स्वर में ऐसे चहक रहे थे, मानों यक्ष-गन्धर्वों की आत्माएँ खिलौने जैसे सुन्दर आकारधारण करके इस वन श्री का उद्गम गुणगान और अभिवन्दन करने के लिए ही स्वर्ग से उतरे हों। किशोर बालकों की तरह हिरन उछल-कूद मचा रहे थे। जंगली भेड़े(बरेड़) ऐसी निश्चिन्त होकर घूम रही थीं, मानों इस प्रदेश की गृहलक्ष्मी यही हों। मन बहलाने के लिए चाबीदार कीमती खिलौने की तरह छोटे-छोटे कीड़ेपृथ्वी पर चल रहे थे। उनका रंग, रूप, चाल-ढाल सभी कुछ देखने योग्य था। उड़ते हुए पतंगे, फूलों के सौन्दर्य से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। हमारे सेकौन अधिक सुन्दर और कौन अधिक असुन्दर है, इसकी होड़ लगी हुई है।
नवयौवन का भार जिससे सम्भलने में न आ रहा हो, ऐसी इतराती हुई पर्वतीय नदी बगल मेंही बह रही थी। उसकी चंचलता और उच्छंखलता का दर्प देखते ही बनता था। गंगा में और भी नदियाँ आकर मिलती हैं। मिलन के संगम पर ऐसा लगता था, मानो दोसहोदर बहिने ससुराल जाते समय गले मिल रही हों, लिपट रही हों। पर्वतराज हिमालय ने अपनी सहस्र पुत्रियों (नदियों) का विवाह समुद्र के साथ किया हो।ससुराल जाते समय में बहिनें कितनी आत्मीयता के साथ मिलती हैं, सड़क पर खड़े-खड़े इस दृश्य को देखते-देखते जी नहीं अघाता। लगता है हर घड़ी इसेदेखते ही रहें।
वयोवृद्ध राजपुरुषों और लोकनायकों की तरह पर्वत शिखर दूर-दूर ऐसे बैठे थे, मानोकिसी गम्भीर समस्या को सुलझाने में दत्तचित्त होकर संलग्न हों। हिमाच्छादित चोटियाँ उनके श्वेत केशों की झाँकी करा रही थीं। उन पर उड़तेहुए छोटे बादल ऐसे लगते थे, मानो ठण्ड से बचाने के लिए नई रुई का बढ़िया टोपा उन्हें पहनाया जा रहा है। कीमती शाल-दुशालाओं में उनके नग्न शरीर कोलपेटा जा रहा हो।
जिधर भी दृष्टि उठती, उधर एक विशाल कुटुम्ब अपने चारों ओर बैठा हुआ नजर आता था।उनके जबान न थी, वे बोलते न थे, पर उनकी आत्मा में रहने वाला चेतन बिना शब्दों के ही बहुत कुछ कहता था। जो कहता था हृदय से कहता था और करकेदिखाता था। ऐसी बिना शब्दों की किन्तु अत्यन्त मार्मिक वाणी इससे पहले सुनने को नहीं मिली थी। उनके शब्द सीधे आत्मा तक प्रवेश करते और रोम-रोमको झंकृत किये देते थे। अब सूनापन कहाँ? अब भय किसका? सब ओर सहचर ही सहचर जो बैठे थे।
सुनहरी धूप ऊँचे शिखरों से उतरकर पृथ्वी पर कुछ देर के लिए आ गई थी, मानोअविद्याग्रस्त हृदय में सत्संगवश स्वल्प स्थाई ज्ञान उदय हो गया। ऊँचे पहाड़ों की आड़ में सूरज इधर-उधर ही छिपा रहता है, केवल मध्याह्न को हीकुछ घण्टों के लिए उनके दर्शन होते हैं। उनकी किरणें सभी सिकुड़ते हुए जीवों में चेतना की एक लहर दौड़ा देती हैं। सभी में गतिशीलता और प्रसन्नताउमड़ने लगती है। आत्मज्ञान का सूर्य भी प्राय: वासना और तृष्णा की चोटियों के पीछे छिपा रहता है, पर जब कभी जहाँ कहीं वह उदय होगा वहीं उसकी सुनहरीरश्मियाँ एक दिव्य हलचल उत्पन्न करती हुई अवश्य दिखाई देंगी।
अपना शरीर भी स्वर्णिम रश्मियों का आनन्द लेने के लिए एक कुटिया से बाहर निकलाऔर मखमल के कालीन सी बिछी हरी घास पर टहलने की दष्टि से एक ओर चल पड़ा। कछ ही दर रंग-बिरंगें फलों का एक बड़ा पठार था। आँखें उधर ही आकर्षित हुईं औरपैर उसी दिशा में उठ चले।
छोटे बच्चे सिर पर रंगीन टोप पहने हुए पास-पास बैठकर किसी खेल की योजना बनानेमें व्यस्त हों, ऐसे लगते थे मानो वे पुष्प-सज्जित पौधे हों। मैं उन्हीं के बीच जाकर बैठ गया। लगा-जैसे मैं भी एक फूल हूँ। यदि ये पौधे मुझे भीअपना साथी बना लें तो मुझे भी अपना खोया बचपन पाने का पुण्य अवसर मिल जाए।
भावना आगे बढ़ी। जब अन्तराल हुलसता है तब तर्कवादी कुतर्की विचार भी ठण्डे पड़ जातेहैं। मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है। ये अपनी दुनियाँ आप बसा लेते हैं। काल्पनिक ही नहीं, शक्तिशाली भी-सजीव भी। ईश्वर और देवताओं तककी रचना उसने अपनी भावना के बल पर की है और उनमें अपनी श्रद्धा को पिरोकर उन्हें इतना महान् बनाया है जितना कि वह स्वयं है। अपने भाव फूल बनने कोमचलें तो वैसा ही बनने में देर न थी। लगा कि इन पंक्ति बनाकर बैठे हुए पुष्प बालकों ने मुझे भी सहचर मानकर अपने खेल में भाग लेने के लिएसम्मिलित कर लिया है।
जिसके पास बैठा था वह बड़े से पीले फूल वाला पौधा बड़ा हँसोड़ तथा वाचाल'था।अपनी भाषा में उसने कहा- दोस्त ! तुम मनुष्यों में व्यर्थ जा जन्मे। उनकी भी कोई जिन्दगी है? हर समय चिन्ता, हर समय उधेड़बुन, हर समय तनाव, हर समयकुढ़न। अब की बार तुम पौधे बनना, हमारे साथ रहना। देखते नहीं हम सब कितने प्रसन्न, कितने खिलते हैं, जीवन को खेल मानकर जीने में कितनी शान्ति है,यह सब लोग जानते हैं। देखते नहीं हमारे भीतर का आन्तरिक उल्लास सुगन्ध के रूप में बाहर निकल रहा है। हमारी हँसी फूलों के रूप में बिखरी पड़ रही है।सभी हमें प्यार करते हैं। सभी को हम प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनन्द से जीते हैं और जो पास आता है, उसी को आनन्दित कर देते हैं। जीवन जीने की यहीकला है। मनुष्य बुद्धिमानी का गान करता है; पर किस काम की वह बुद्धिमानी, जिससे जीवन को साधारण सी, हँस-खेलकर जीने की प्रक्रिया हाथ न आए।
फूल ने कहा-“मित्र तुम्हें ताना मारने के लिए नहीं, अपनी बड़ाई करने के लिए भीनहीं, यह मैंने एक तथ्य ही कहा। अच्छा बताओ जब हम धनी, विद्वान्, गुणी, सम्पन्न वीर और बलवान् न होते हुए भी अपने जीवन को हँसते हुए तथा सुगन्धफैलाते हुए जी सकते हैं, तो मनुष्य वैसा क्यों नहीं कर सकता? हमारी अपेक्षा असंख्य गुने साधन उपलब्ध होने पर यदि वह चिन्तित और असन्तुष्टरहता है तो क्या इसका कारण उसकी बुद्धि हीनता मानी जायेगी?”
“प्रिय तुम बुद्धिमान् हो, जो उन बुद्धिहीनों को छोड़कर कुछ समय हमारे साथहँसने-खेलने चले आए। चाहो तो हम अकिंचनों से भी जीवन विद्या का एक महत्वपूर्ण तथ्य सीख सकते हो। ”
मेरा मस्तक श्रद्धा से नत हो गया-“पुष्प मित्र, तुम धन्य हो। स्वल्प साधन होतेहुए भी तुमको जीवन कैसा जीना चाहिए यह जानते हो। एक हम हैं- जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढ़न में ही व्यतीत करते हैं। मित्र सच्चे उपदेशक हो, वाणी सेनहीं जीवन से सिखाते हो, बाल-सहचर यहाँ सीखने आया हूँ, तो तुमसे बहुत सीख सकेंगा। सच्चे साथी की तरह सिखाने में संकोच न करना। ”
हँसोड़ पीला पौधा, खिलखिलाकर हँस पड़ा, सिर हिला-हिलाकर वह स्वीकृति दे रहा था औरकहने लगा- सीखने की इच्छा रखने वाले के पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं; पर आज सीखना कौन चाहता है? सभी तो अपनी अपूर्णता के अहंकार में ऐंठे-ऐंठे सेफिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाए तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा, सच्ची शिक्षा स्वयमेव हमारे हृदय में प्रवेश करने लगे।
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