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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4257
आईएसबीएन :00000

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सुनसान के सहचर....

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हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू


हमारे बहुत से परिजन हमारी साधना और उसकी उपलब्धियों के बारे में कुछ अधिक जाननाचाहते हैं और यह स्वाभाविक भी है। हमारे स्थूल जीवन के जितने अंश प्रकाश में आये हैं, वे लोगों की दृष्टि में अद्भुत हैं। उनमें सिद्धियों,चमत्कारों और अलौकिकताओं की झलक देखी जा सकती है। कौतूहल के पीछे उसके रहस्य जानने की उत्सुकता छिपी रहनी स्वाभाविक है, सो अगर लोग हमारीआत्म-कथा जानना चाहते हैं, उसके लिए इन दिनों विशेष रूप से दबाव देते हैं। तो उसे अकारण नहीं कहा जा सकता। 

यों हम कभी छिपाव के पक्ष में नहीं रहे-दुराव, छल, कपट, हमारी आदत में नहीं,पर इन दिनों हमारी विवशता है कि जब तक रंग-मंच पर प्रत्यक्ष रूप से हमारा अभिनय चल रहा है, तब तक वास्तविक को बता देने पर दर्शकों का आनन्द दूसरीदिशा में मुड़ जाएगा और जिस कर्तव्यनिष्ठा को सर्वसाधारण में जगाना चाहते हैं, वह प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। लोग रहस्यवाद के जंजाल में उलझ जायेंगे,इससे हमारा व्यक्तित्त्व भी विवादास्पद बन जाएगा और जो करने कराने हमें भेजा गया है उसमें भी अड़चन पड़ेगी। नि:संदेह हमारा जीवन-क्रम अलौकिकताओंसे भरा पड़ा है। रहस्यवाद के पर्दे इतने अधिक हैं कि उन्हें समय से पूर्व खोला जाना अहितकर ही होगा। पीछे वालों के लिए उसे छोड़ देते हैं कि वस्तुस्थिति की सचाई को प्रमाणिकता की कसौटी पर कसें और जितनी हर दृष्टि से परखी जाने पर सही निकले उससे यह अनुमान लगाएँ कि अध्यात्म विद्या कितनीसमर्थ और सारगर्भित है। उस पारस से छूकर एक नगण्य-सा व्यक्ति अपने लोहे जैसे तुच्छ कलेवर को स्वर्ण जैसा बहुमूल्य बनाने में कैसे समर्थ, सफल होसका। इस दृष्टि से हमारे जीवन-क्रम में प्रस्तुत हुए अनेक रहस्यमय तथ्यों की समय आने पर शोध की जा सकती है और उस समय उस कार्य में हमारे अतिनिकटवर्ती सहयोगी कुछ सहायता भी कर सकते हैं; पर अभी वह समय से पहले की बात है। इसलिए उस पर वैसे ही पर्दा रहना चाहिए, जैसे कि अब तक पड़ा रहाहै। 

आत्म कथा लिखने के आग्रह को केवल इस अंश तक पूराकर सकते हैं कि हमारा साधना क्रम कैसेचला। वस्तुत: हमारी सारी उपलब्धियाँ प्रभु समर्पित साधनात्मक जीवन प्रक्रिया पर ही अवलम्बित हैं। उसे जान लेने से इस विषय में रुचि रखनेवाले हर व्यक्ति को वह रास्ता मिल सकता है, जिस पर चलकर कि आत्मिक प्रगति और उससे जुड़ी विभूतियाँ प्राप्त करने का आनन्द लिया जा सकता है। पाठकोंको अभी इतनी ही जानकारी हमारी कलम से मिल सकेगी, सो उतने से ही इन दिनों सन्तोष करना पड़ेगा। 

६० वर्ष के जीवन में से १५ वर्ष का आरम्भिक बाल जीवन कुछ विशेष महत्त्व कानहीं है। शेष ५ वर्ष हमने आध्यात्मिकता के प्रसंगों को अपने जीवन-क्रम में सम्मिलित करके बिताये हैं, पूजा-उपासना का उस प्रयोग में बहुत छोटा अंशरहा है। २४ वर्ष तक ६ घण्टे रोज की गायत्री उपासना को उतना महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए, जितना कि मानसिक परिष्कार और भावनात्मक उत्कृष्टता केअभिवर्धन के प्रयत्नों को। यह माना जाना चाहिए कि यदि विचारणा और कार्यपद्धति को परिष्कृत न किया गया होता, तो उपासना के कर्मकाण्ड उसी तरहनिरर्थक चले जाते, जिस तरह कि अनेक पूजा-पत्री तक सीमित मन्त्र-तन्त्रों का ताना-बाना बुनते रहने वालों को नितान्त खाली रहना पड़ता है। हमारी जीवनसाधना को यदि सफल माना जाए और उसमें दीखने वाली अलौकिकता को खोजा जाए तो उसका प्रधान कारण हमारी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति के परिष्कार को ही मानाजाए। पूजा उपासना को गौण समझा जाए। आत्मकथा के एक अंश को लिखने का दुस्साहस करते हुए हम एक ही तथ्य का प्रतिपादन करेंगे कि हमारा सारामनोयोग और पुरुषार्थ आत्म-शोधन में लगा है। उपासना जो बन पड़ी है, उसे भी हमने भाव परिष्कार के प्रयत्नों के साथ पूरी तरह जोड़ रखा है। अबआत्मोद्घाटन के साधनात्मक प्रकरण पर प्रकाश डालने वाली कुछ चर्चाएँ पाठकों की जानकारी के लिए करते हैं -

साधनात्मक जीवन की तीन सीढ़ियाँ हैं। तीनों पर चढ़ते हुए एक लम्बी मंजिल पार कर लीगयी। (१) मातृवत् परदारेषु (२) परद्रव्येषु लोष्ठवत् की मंजिल सरल थी, वह अपने आपसे सम्बन्धित थी। लड़ना अपने से था, सँभालना अपने को था, तो पूर्वजन्मों के संस्कार और समर्थ गुरु की सहायता से इतना सब आसानी से बन गया। मन उतना ही दुराग्रही दुष्ट न था, जो कुमार्ग पर घसीटने की हिम्मत करता।यदा-कदा उसने इधर-उधर भटकने की कल्पना भर की। जब प्रतिरोध का डण्डा जोर से सिर पर पड़ा, तो सहम गया और चुपचाप सही राह पर चलता रहा। मन से लड़ते,झगड़ते, पाप और पतन से भी बचा लिया गया। अब जबकि सभी खतरे टल गये तब सन्तोष की साँस ले सकते हैं। दास कबीर ने झीनी-झीनी बीनी चदरिया, जतन सेओढ़ी थी और बिना दाग-धब्बे ज्यों की त्यों वापिस कर दी। परमात्मा को अनेक धन्यवाद कि उसने उसी राह पर हमें भी चला दिया और उन्हीं पद चिन्हों कोढूँढ़ते तलाशते उन्हीं आधारों को मजबूती के साथ पकड़े हुए उस स्थान तक पहुँच गये, जहाँ लुढ़कने और गिरने का खतरा नहीं रहता। 

अध्यात्म की कर्मकाण्डात्मक प्रक्रिया बहुत कठिन नहीं होती। संकल्प बल मजबूत हो,श्रद्धा और निष्ठा भी कम न पड़े, तो मानसिक उद्विग्नता नहीं होती और शान्तिपूर्वक-मन लगने लगता है और उपासना के विधिविधान गड़बड़ाये बिना अपनेढर्रे पर चलते रहते हैं। मामूली दुकानदार सारी जिन्दगी एक ही दुकान पर, एक ही ढर्रे से पूरी दिलचस्पी के साथ काट लेता है। न मन डूबता है न अरुचिहोती है। पान-सिगरेट के दुकानदार १२-१४ घण्टे अपने धन्धे को उत्साह और शान्ति के साथ आजीवन करते रहते हैं, तो हमें ६-७ घण्टे प्रतिदिन कीगायत्री साधना २४ वर्ष तक चलाने का संकल्प तोड़ने की क्या आवश्यकता पड़ती। मन उनका उचटता है जो उपासना को पान-बीड़ी की खेती-बाड़ी का, मिठाई-हलवाईके धन्धे से भी कम आवश्यक या कम लाभदायक समझते हैं। बेकार के अरुचिकर कामों में मन नहीं लगता। 

उपासना में ऊबने और अरुचि की अड़चन उन्हें आती है जिनकी आन्तरिक आकांक्षा भौतिकसुख-सुविधाओं को सर्वस्व मानने की है, जो पूजा पत्री को मनोकामनाएँ पूर्ण करने की बात सोचते रहते हैं उन्हें ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ की न्यूनताके कारण अभीष्ट वरदान न मिलने पर खीझ होती है। आरम्भ में ही आकांक्षा के प्रतिकूल काम में उदासी रहती है। यह स्थिति दसरों की होती है, सो वे मन नलगने की शिकायत करते रहते हैं। अपना स्तर दूसरा था। शरीर बहाना-भर माना, वस्तुओं को निर्वाह की भट्टी जलाने के लिए ईंधन भर समझा। महत्वाकांक्षाएँबड़ा आदमी बनने और झूठी वाह वाही लूटने की कभी भी नहीं उठी। जो यही सोचता रहा हम आत्मा हैं, तो क्यों न आत्मोत्कर्ष के लिए, आत्म-शान्ति के लिए,आत्म कल्याण के लिए और आत्म विस्तार के लिए जिएँ। शरीर और अपने को जब दो भागों में बाँट दिया। शरीर के स्वार्थ और अपने स्वार्थ अलग बाँट दिए तो वहअज्ञात की एक भारी दीवार अपने आप गिर पड़ी और अन्धेरे से उजाला हो गया। 

जो लोग अपने को शरीर मान बैठते हैं, इन्द्रिय तृप्ति तक अपना आनन्द सीमित कर लेते,वासना और तृष्णा की पूर्ति ही जिनका जीवनोद्देश्य बन जाता है, उनके लिए पैसा, अमीरी, बड़प्पन, प्रशंसा पदवी पाना ही सब कुछ हो सकता है। वेआत्म-कल्याण की बात भुला सकते हैं और लोभ मोह की सुनहरी हथकड़ी-बेड़ी चावपूर्वक पहने रह सकते हैं। उनके लिए श्रेय पथ पर चलने की सुविधाजनकस्थिति न मिलने का बहाना सही हो सकता है। अन्त:करण की आकांक्षाएँ ही साधन जुटाती हैं जब भौतिक सुख सम्पत्ति ही लक्ष्य बन गया, तो चेतना का साराप्रयास उन्हें ही जुटाने में लगेगा। उपासना तो फिर एक हल्की-सी खिलवाड़ रह जाती है। कर ली तो ठीक, न कर ली तो ठीक। कौतूहल की दृष्टि से लोग देखाकरते हैं कि लोग इनका थोड़ा तमाशा देख लें, कुछ मिलता या नहीं- थोड़ी देर तक अनमनी तबियत से कुछ चमत्कार मिलने की दृष्टि से उल्टी-पुल्टीपूजा-पत्री चलाई तो उन पर विश्वास नहीं जमा, सो छुट गयी, छूटनी भी थी। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में जीवनोद्देश्य को प्राप्त करने की तीव्रलगन के अभाव में कोई आत्मिक प्रगति नहीं कर सका। यह सब तथ्य हमें अनायास ही विदित थे। सो शरीर यात्रा और परिवार व्यवस्था जमाये भर रहने के लिएजितना अनिवार्य रूप से आवश्यक था, उतना ही ध्यान उस ओर दिया। उन प्रयत्नों को मशीन का किराया भर चुकाने की दृष्टि से किया। अन्त:करण लक्ष्य कीप्राप्ति के लिए तत्पर रहा, सो भौतिक प्रलोभनों और आकर्षणों में भटकने की कभी जरूरत नहीं हुई। 

जब अपना स्वरूप आत्मा की स्थिति में अनुभव होने लगा और अन्त:करण परमेश्वर कापरम पवित्र निवास दीखने लगा तो चित्त अन्तर्मुखी हो गया। सोचने का तरीका इतना भर सीमित रह गया कि परमात्मा के राजकुमार आत्मा को क्या करना, किसदिशा में चलना चाहिए? प्रश्न सरल थे और उत्तर भी सरल। केवल, उत्कृष्ट जीवन जीना चाहिए और केवल आदर्श वादी कार्य पद्धति अपनानी चाहिए। जो इस मार्ग परचले नहीं, उन्हें बहुत डर लगता है कि यह रीति-नीति अपनाई तो बहत संकट आवेगा और गरीबी, तंगी, भत्र्सना और कठिनाई सहनी पड़ेगी। मित्र, शत्रु होजायेंगे और घर वाले विरोध करेंगे, अपने को भी आरम्भ में ऐसा ही लगा और अनुभव हुआ। आरम्भिक दिनों में हमें उपहास और भत्र्सना सहनी पड़ी। घरपरिवार के लोग ही सबसे अधिक आड़े आये। उन्हें लगा कि इसकी सहायता से जो भौतिक लाभ हमें मिलते हैं या मिलने वाले हैं उनमें कमी आ जायेगी, सो वेअपनी हानि जिसमें समझते, उसे हमारी मूर्खता बताते थे; पर यह बात देर तक नहीं चली। अपनी आस्था ऊँची और सुदृढ़ हो, तो झूठ, विरोध देर तक नहींटिकता, कुमार्ग पर चलने के कारण जो विरोध तिरस्कार उत्पन्न होता है। वही स्थिर रहता है। नेकी अपने आप में एक विभूति है जो स्वयं का ही नहीं, सभीका हित साधती है, इसीलिए स्थिर रहती भी है। विरोधी और निन्दक कुछ ही दिनों में अपनी भूल समझ जाते हैं और रोड़ा अटकाने के बजाय सहयोग देने लगते हैं।आस्था जितनी ऊँची और जितनी मजबूत होगी प्रतिकूलता उतनी ही जल्दी अनुकूलता में बदल जाती है। परिवार का विरोध देर तक नहीं सहना पड़ा, उनकीशंका-कुशंका वस्तु स्थिति समझ लेने पर दूर हो गयी। आत्मिक जीवन में वस्तुत: घाटे की कोई बात नहीं है। बाहरी दृष्टि से गरीब दीखने वालाव्यक्ति आत्मिक शान्ति और सन्तोष के कारण बहुत प्रसन्न रहता है। यह प्रसन्नता और सन्तुष्टि हर किसी को प्रभावित करती है और विरोधियों कोसहयोगी बनाने में बड़ी सहायक सिद्ध होती है। अपनी कठिनाई ऐसे ही हल हुई। 

बड़प्पन का लोभ-मोह, वाहवाही की-तृष्णा की हथकड़ी-बेड़ी और तौक़ कटी तो लगा किभव-बन्धनों से मुक्ति मिल गयी। इन्हीं तीन जंजीरों में जकड़ा हुआ प्राणी इस भवसागर में औंधे मुँह घसीटा जाता रहता है और अतृप्ति, उद्विग्नता कीव्यथा वेदना से कराहता रहता है। इन तीनों की तुच्छता समझ ली जाय और लिप्सा को श्रद्धा में बदल दिया जाय, तो समझना चाहिए कि माया के बन्धन टूट गए औरजीवित रहते ही मुक्ति पाने का प्रयोजन पूरा हो गया “नजरें, तेरी बदली कि नजारा बदल गया” वाली उक्ति के अनुसार अपनी भावनाएँ, आत्मज्ञान होते हीसमाप्त हो गईं और जीवन लक्ष्य पूरा करने की आवश्यकता अँगुली पकड़कर मार्गदर्शन करने लगी, फिर अभाव रहा न असन्तोष। शरीर को जीवित भर रखने औरपरिवार की, देह की परिस्थिति जितने साधनों से सन्तुष्ट रहने की शिक्षा देकर लोभ-लिप्सा की जड़ काट दी। मन उधर से भटकना बन्द कर दे, तो कितनीअपार शक्ति मिलती है और जी कितना प्रफुल्लित रहता है। यह तथ्य कोई अनुभव करके देख सकता है; पर लोग तो लोग ठहरे, तेल से आग बुझाना चाहते हैं।तृष्णा को दौलत से और वासना को भोग साधना से तृप्त करना चाहते हैं। इन्हें कौन समझाये कि यह प्रयास केवल दावानल ही भड़का सकते हैं। इस

पथ पर चलने वाला मृग-तृष्णा में ही भटक सकता है। मरघट के प्रेत-पिशाच की तरहउद्विग्न ही रह सकता है- कुकर्म ही कर सकता है। इसे कौन कैसे समझाये? समझने और समझाने वाले दोनों विडम्बना मात्र करते हैं। सत्संग और प्रवचनबहुत सुने; पर ऐसे ज्ञानी न मिले जो अध्यात्म के अन्तरंग में उतर कर अनुकरण की प्रेरणा देते। प्रवचन देने वाले के जीवनक्रम को उघाड़ा, तो वहाँसुनने वाले से भी अधिक गन्दगी पाई। सो जी खट्टा हो गया। 

बड़े-बड़े सत्संग, सम्मेलन होते तो, पर अपना जी किसी को देखने-सुनने के लिए न करता।प्रकाश मिला तो अपने ही भीतर। आत्मा ने ही हिम्मत की और चारों ओर जकड़े पड़े जंजाल को काटने की बहादुरी दिखाई, तो ही काम चला। दूसरों के सहारेबैठे रहते, तो ज्ञानी बनने वाले शायद अपनी ही तरह हमें भी अज्ञानी बना देते। लगता है यदि किसी को प्रकाश मिलना होगा, तो भीतर से ही मिलेगा। कमसे कम अपने सम्बन्ध में तो यही तथ्य सिद्ध हुआ है। आत्मिक प्रगति में वाह्य अवरोधों के जो पहाड़ खड़े थे- उन्हें लक्ष्य के प्रति अटूट श्रद्धारखे बिना, श्रेय पथ पर चलने का दुस्साहस संग्रह किये बिना निरस्त नहीं किया जा सकता था, सो अपनी हिम्मत ही काम आई। अब अड़ गये तो सहायकों की भीकमी नहीं। गुरुदेव से लेकर भगवान् तक सभी अपनी मंजिल को सरल बनाने में सहायता देने के लिए निरन्तर आते रहे और प्रगति पथ पर धीरे-धीरे किन्तुसुदृढ़ कदम आगे ही बढ़ते चले गये। अब तक की मंजिल इसी क्रम से पूरी हुई है। 

लोग कहते रहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन कठिन है; पर अपनी अनुभूति इससे सर्वथा विपरीत है।वासनाओं और तृष्णाओं से घिरा और भरा जीवन ही वस्तुत: कठिन एवं जटिल है। इस स्तर का क्रिया-कलाप अपनाने वाला व्यक्ति जितना श्रम करता है, जितनाचिन्तित रहता है, जितनी व्यर्थ वेदना सहता है, जितना उलझा रहता है उसे देखते हुए आध्यात्मिक जीवन की असुविधा को तुलनात्मक दृष्टि से नगण्य हीकहा जा सकता है। इतना श्रम, इतना चिन्तन, इतना उद्वेग फिर भी क्षणभर भी चैन नहीं। कामना पूर्ति के लिए प्रथम प्रयास कर पूर्ति से पहले हीअभिलाषाओं का और सौ गुना हो जाना इतना बड़ा जंजाल है कि बड़ी-से बड़ी सफलताएँ पाने के बाद भी व्यक्ति अतृप्त और असंतुष्ट ही बना रहता है। छोटीसफलता पाने के लिए कितने थकान वाला श्रम करना पड़ा था, यह जानते हुए भी उससे बड़ी सफलता पाने के लिए चौगुने, दस गुने उत्तरदायित्व और ओढ़ लेताहै। गति जितनी तीव्र होती जाती है उतनी ही समस्याएँ उठती और उलझती हैं। उन्हें सुलझाने में देह, मन और आत्मा का कचूमर निकलता है। सामान्य शारीरिकऔर मानसिक श्रम सरसा जैसी अभिलाषाओं को पर्ण करने में समर्थ नहीं होता, अस्त अनीति और अनाचार का मार्ग अपनाना पड़ता है। जघन्य पाप कर्म करते रहनेपर अभिलाषाएँ पूर्ण नहीं होती हैं। निरन्तर की उद्विग्नता और भविष्य की अन्ध तमिस्रा दोनों को मिलाकर जितनी क्षति है उसे देखते हुए उपलब्धियों कोअति तुच्छ ही कहा जा सकता है। 

आमतौर से लोग रोते-कलपते, रोग-शोक से सिसकते-बिलखते किसी प्रकार जिन्दगी की लाशढोते हैं। वस्तुतः इन्हीं को तपस्वी कहा जाना चाहिए। कष्ट, त्याग, उद्वेग यदि आत्मिक प्रगति के पथ पर चलते हुए सहा जाता, तो मनुष्य योगी, सिद्धपुरुष, महामानव देवता ही नहीं भगवान् भी बन सकता था। बेचारों ने पाया कुछ नहीं, खोया बहुत। वस्तुतः यही सच्चे त्यागी, परोपकारी, आत्मदानी औरबलिदानी हैं, जिन्होंने परिश्रम से लेकर पाप की गठरी ढोने तक का दुस्साहस कर डाला और जो कमाया था उसे साले-बहनोई, बेटे-भतीजों के लिए छोड़कर स्वयंखाली हाथ चल दिए। दूसरे के सुख के लिए स्वयं कष्ट सहने वाले वस्तुत: यही महात्मा, ज्ञानी, परमार्थी अपने को दीखते हैं। वे स्वयं अपने कोमायाग्रस्त और पथ भ्रष्ट कहते हैं तो कहते रहें। 

अपने इर्द-गिर्द घिरे असंख्यों मानव देहधारियों के अन्तरंग और बहिरंग जीवनकी-उसकी प्रतिक्रिया परिणति को-जब हम देखते हैं, तो लगता है इन सबसे अधिक सुख और सुविधाजनक जीवन हमी ने जी लिया। हानि अधिक से अधिक इतनी हुई किहमें कम सुविधा और कम सम्पन्नता का जीवन जीना पड़ा। सम्मान कम रहा और गरीब जैसे दीखे, सम्पदा न होने के कारण दुनियाँ वालों ने हमें छोटा समझा औरअवहेलना की। बस इससे अधिक घाटा किसी आत्मवादी को हो भी नहीं सकता; पर इस अभाव से अपना कुछ भी हर्ज न हुआ, न कुछ काम रुका। दूसरे षड्स व्यंजन खातेरहे, हमने जौ-चना खाकर काम चलाया। दूसरे जीभ के अत्याचार से पीड़ित होकर रुग्णता का कष्ट सहते रहे, हमारा सस्ता आहार ठीक तरह पचता रहा और निरोगिताबनाये रहा। घाटे में हम क्या रहे? जीभ का क्षणिक जायका खोकर हमने कड़ी भूख में "किवाड़-पापड़” होने की उक्ति सार्थक होती देखी। जहाँ तक जायके काप्रश्न है उस दृष्टि से तुलना करने पर विलासियों की तुलना में हमारी जौ की रोटी अधिक मजेदार थी। धन के प्रयास में लगे लोग बढ़िया कपड़े, बढ़िया घर,बढ़िया साज-सज्जा अपनाकर अपना अहंकार पूरा करने और लोगों पर रौब गाँठने की बिडम्बना में लगे रहे। हम स्वल्प साधनों में उतना ठाठ तो जमा नहीं सके, परसादगी ने जो आत्म-सन्तोष और आनन्द प्रदान किया उससे कम प्रसन्नता नहीं हुई, चाहे छिछोरे-बचकाने लोग मखौल उड़ाते रहे हों, पर वजनदार लोगों नेसादगी के पर्दे के पीछे झाँकती हुई महानता को सराहा और उसके आगे सिर झुकाया। नफे में कौन रहा, बिडम्बना बनाने वाले या हम?

अपनी कसौटी पर अपने आपको कसने के बाद यही कहा जा सकता है कि कम परिश्रम, कमजोखिम और कम जिम्मेदारी लेकर हम शरीर, मन की दृष्टि से अधिक सुखी रहे और सम्मान भी कम नहीं पाया, पागल प्रशंसा न करें इसमें हमें कोई एतराज नहीं-पर अपने आप से हमें कोई शिकायत नहीं- आत्मा से लेकर परमात्मा तक और सज्जनों से लेकर दूरदर्शियों तक अपनी क्रिया पद्धति प्रशंसनीय मानी गयी।जोखिम भी कम और नफा भी ज्यादा। खर्चीली, तृष्णाग्रस्त, बनावटी भारभूत जिन्दगी पाप और पतन के पहियों वाली गाड़ी पर ढोई जा सकती है। अपना सब कुछहल्का रहा, बिस्तर बगल में दबाया और चल दिये। न थकान, न चिन्ता, हमारा व्यक्तिगत अनुभव यही है कि आदर्शवादी जीवन सरल है। उसमें प्रकाश, सन्तोष,उल्लास सब कुछ है। दुष्ट लोग आक्रमण करके कुछ हानि पहुँचा दें, तो यह जोखिम, पापी और घृणित जीवन में भी कम कहाँ है। सन्त और सेवाभावियों को जबइतना त्रास सहना पड़ता है. ती प्रतिस्पर्धा, ईष्र्या-द्वेष और प्रतिशोध के कारण भौतिक जीवन में और भी अधिक खतरा रहता है। कत्ल, खून, डकैती, आक्रमण,ठगी की जो रोमांचकारी घटनाएँ आये दिन सुनने को मिलती रहती हैं उनमें भौतिक जीवन जीने वाले ही अधिक मरते-खपते देखे जाते हैं। इतने व्यक्ति यदिस्वेच्छापूर्वक अपने प्राण और धन गॅवाने को तत्पर हो जाते, तो उन्हें देवता माना जाता और इतिहास धन्य हो जाता। 

ईसा, सुकरात, गाँधी जैसे सन्त या उस वर्ग के लोग थोड़ी-सी संख्या में ही मरेहैं। उससे हजार गुने अधिक की तो पतनोन्मुखी क्षेत्र में ही हत्याएँ होती रहती हैं। दान से गरीब हुए भामाशाह तो अँगुलियों पर गिने जाने वाले हीमिलेंगे पर ठगी, विश्वासघात, व्यसन, व्यभिचार, आक्रमण, मुकदमा, बीमारी, बेवकूफी के शिकार होने वाले आये दिन अमीर के फकीर बनते लाखों व्यक्ति रोजही देखे जाते हैं। आत्मिक क्षेत्र में घाटा, आक्रमण, मुकदमा, दु:ख कम है, भौतिक में अधिक। इस तथ्य को यदि ठीक तरह से समझा गया होता, तो लोगआदर्शवादी जीवन से घबराने और भौतिक लिप्सा में औंधे मुँह गिरने की बेवकूफी न करते। हमारा व्यक्तिगत अनुभव यही है कि तृष्णा-वासना के प्रलोभन मेंव्यक्ति पाता कम, खोता अधिक है। हमें जो खोना पड़ा वह नगण्य है, जो पाया वह इतना अधिक है कि जी बार-बार यही सोचता है कि हर व्यक्ति को आध्यात्मिकजीवन जीने को उत्कृष्ट और आदर्शवादी परम्परा अपनाने के लिए कहा जाय, पर बात मुश्किल है। हमें अपने अनुभवों को साक्षी देकर उज्ज्वल जीवन जीने कीगुहार मचाते मुद्दत हो गयी, पर कितनों ने उसे सुना और सुनने वालों में से कितनों ने उसे अपनाया?

मातृवत् परदारेषु और परद्रव्येषु लोष्ठवत् की दो सीढ़ियाँ चढ़ना भी अपने लिए कठिनपड़ता, यदि जीवन का स्वरूप, प्रयोजन और उपयोग ठीक तरह समझाने और जो श्रेयस्कर है उसी पर चलने की हिम्मत एवं बहादुरी न होती। जो शरीर को हीअपना स्वरूप मान बैठा और तृष्णा-वासना के लिए आतुर रहा उसे आत्मिक प्रगति से वंचित रहना पड़ा है। पूजा, उपासना के छिटपुट कर्मकाण्डों के बल परप्रगति की नाव किनारे नहीं लगी है। हमें २४ वर्ष तक निरन्तर गायत्री पुरश्चरणों में निरत रहकर उपासना का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय पूरा करनापड़ा। उस पर कर्मकाण्ड की सफलता का पूरा लाभ तभी सम्भव हो सका जब अत्यधिक प्रगति की भावनात्मक प्रक्रिया को, जीवन साधना को उसके साथ जोड़े रखा। यदिदूसरों की तरह हम देवताओं को वश में करने या ठगने के लिए उनसे मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए तन्त्र-मन्त्र का कर्मकाण्ड रचते रहते- जीवन क्रमनिर्वाह की आवश्यकता न समझते, तो नि:संदेह अपने हाथ कुछ भी नहीं पड़ता। हम अगणित भजनानन्दी और तन्त्र-मन्त्र के कर्मकाण्डियों को जानते हैं, जो अपनीधुन में मुद्दतों से लगे हैं। पूजा-पाठ हमसे ज्यादा लम्बा और चौड़ा है, पर बारीकी से जब उन्हें परखा तो ढूँछमात्र पाया, झूठी आत्म-प्रवंचना उनमेंजरूर पायी, जिसके आधार पर यह सोचते थे कि इस जन्म में न सही- मरने के बाद उन्हें स्वर्ग सुख जरूर मिलेगा; पर हमारी परख और भविष्यवाणी यह है किइनमें से एक को भी स्वर्ग आदि मिलने वाला नहीं, न उन्हें कोई सिद्ध चमत्कार हाथ लगने वाला है। 

कर्मकाण्ड और पूजा-पाठ में प्राण तभी आते हैं जब साधक का जीवन क्रम उत्कृष्टता कीदिशा में क्रमबद्ध रीति से अग्रसर हो रहा हो। उसको दृष्टिकोण सुधर रहा हो और क्रिया-कलाप में उस रीति-नीति का समावेश हो जो आत्मवादी के साथ आवश्यकरूप से जुड़े रहते हैं। धूर्त, स्वार्थी, कंजूस और सदा बेटी, बेटों के लिए जीने वाले लोग यदि अपनी विचारणा और गतिविधियाँ परिष्कृत न करें, तो उन्हेंतीर्थ व्रत उपवास, कथा, कीर्तन, स्नान, ध्यान आदि का कुछ लाभ मिल सकेगा, इसमें हमारी सहमति नहीं है। यह उपयोगी तो हैं, पर इसकी उपयोगिता इतनी है।जितनी कि लेख लिखने के लिए कलम की। कलम के बिना लेख कैसे लिखा जा सकता? पूजा उपासना के बिना आत्मिक प्रगति कैसे हो सकती है। यह जानने के साथ-साथहमें यह भी जानना चाहिए कि स्वास्थ्य, अध्ययन, चिन्तन, मनन की, बौद्धिक विकास की प्रक्रिया सम्पन्न किए बिना केवल कलम कागज के आधार पर लेख नहींलिखा जा सकता? न कविताएँ बनाई जा सकती हैं? आन्तरिक उत्कृष्टता बौद्धिक विकास की तरह है और पूजा अच्छी कलम की तरह। दोनों का समन्वय होने से हीबात बनती है। एक को हटा दिया जाय तो बात अधूरी रह जाती है। हमने यह ध्यान रखा कि साधना की गाड़ी एक पहिए पर न चल सकेगी, इसलिए दोनों पहियों कीव्यवस्था ठीक तरह जुटाई जाय। हमने उपासना कैसे की, इसमें कोई रहस्य नहीं है। गायत्री महाविज्ञान में जैसा लिखा है उसी क्रम से हमारा गायत्रीमन्त्र का सामान्य उपासना क्रम चलता रहा है। हाँ जितनी देर तक भंजन करने बैठे हैं उतनी देर तक यह भावना अवश्य करते रहे हैं कि ब्रह्म की परमतेजोमयी सत्ता माता गायत्री का दिव्य प्रकाश हमारे रोम-रोम में ओत-प्रोत हो रहा है और प्रचण्ड अग्नि में पड़कर लाल हुए लोहे की तरह हमारा भौंड़ाअस्तित्व उसी स्तर का उत्कृष्ट बन गया है जिस स्तर का कि हमारा इष्टदेव है। शरीर के अणु-परमाणुओं में गायत्री माता का वर्चस्व समा जाने से कायाका हर अवयव ज्योतिर्मय हो उठा और अग्नि से इन्द्रियों की लिप्सा, जलकर भस्म हो गयी, आलस्य आदि दुर्गुण नष्ट हो गये। रोग-विकारों को उस अग्नि नेअपने में जला दिया। 

शरीर तो अपना है, पर उसके भीतर प्रचंड ब्रह्मवर्चस लहरा रही है, व वाणी मेंकेवल सरस्वती ही शेष है। असत्य, छल और स्वाद के वह असुर उस दिव्य मन्दिर को छोड़कर पलायन कर गये। नेत्रों में गुण ग्राहकता और भगवान् का सौन्दर्यहर जड़-चेतन में देखने की क्षमता भर शेष है। छिद्रान्वेषण, कामुकता जैसे दोष आँखों में नहीं रहे। कान केवल, जो मंगलमय है उसे सुनते हैं। बाकीकोलाहल मात्र है जो श्रवणेन्द्रिय के पर्दे से टकराकर वापस लौट जाता है। 

गायत्री माता का परम तेजस्वी प्रकाश सूक्ष्म शरीर में-अन्त:करण चतुष्टय में-मन, बुद्धि,चित्त, अहंकार में प्रवेश करते और प्रकाशवान् होते देखा तथा अनुभव किया कि ब्रह्मवर्चस अपने मन को उस भूमिका में घसीटे लिये जा रहा है जिसमें पाशविकइच्छा आकांक्षाएँ विरत हो जाती हैं और दिव्यता परिप्लावित कर सकने वाली आकांक्षाएँ सजग हो उठती हैं। बुद्धि निर्णय करती है कि क्षणिक आवेशों केलिए, तुच्छ प्रलोभनों के लिए मानव जीवन जैसी उपलब्धि विनष्ट नहीं की जा सकती, इसका एक-एक पल आदर्शों की प्रतिष्ठापना के लिए खर्च किया जानाचाहिए। चित्त में उच्च निष्ठाएँ जमानी और सत्यं शिवं-सुन्दरम् की ओर बढ़ चलने की उमंगंउ उत्पन्न करनी हैं। सविता देवता का तेजसू अपनी अन्तः भूमिकामें प्रवेश करके “अहं” को परिष्कृत करता है। मरणधर्मा जीवधारियों की स्थिति से योजनों ऊपर उड़ा ले जाकर ईश्वर के सर्व समर्थ, परम पवित्र औरसच्चिदानन्द स्वरूप में अवस्थित कर देता है। 

गायत्री पुरश्चरणों के समय केवल जप ही नहीं किया जाता रहा, साथ ही भाव तरंगों सेमन भी हिलोरें लेता रहा। कारण शरीर भावभूमि का अन्तस्थल के आत्मबोध, आत्म दर्शन, आत्मानुभूति और आत्म विस्तार की अनुभूति अन्तज्योति के रूप मेंअनुभव किया जाता रहा। लगा अपनी आत्मा परम तेजस्वी सविता देवता के प्रकाश में पतंगों के दीपक पर समर्पित होने की तरह विलीन हो गयी। अपना अस्तित्वसमाप्त, उसकी स्थान पूर्ति परम तेजस् द्वारा। मैं समाप्त- सत् का आधिपत्य। आत्मा और परमात्मा के अद्वैत मिलने की अनुभूति में ऐसे ब्रह्मानन्द कीसरसता की क्षण-क्षण अनुभूति होती रही जिस पर संसार भर का समवेत विषयानन्द निछावर किया जा सकता है। जप के साथ स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों में दिव्यप्रकाश की प्रतिष्ठापना, का आरम्भ प्रयत्नपूर्वक धारण के रूप में की गई थी। पीछे वह स्वाभाविक प्रकृति बनी और अन्तत: प्रत्यक्ष अनुभूति बन गई।जितनी देर उपासना में बैठा गया-अपनी सत्ता के भीतर और बाहर परम तेजस्वी सविता की दिव्य ज्योति का सागर लहलहाता रहा और यही प्रतीत होता रहा किहमारा अस्तित्व इस दिव्य ज्योति से ओतप्रोत हो रहा है। प्रकाश के अतिरिक्त अन्तरंग और बहिरंग में कुछ है ही नहीं। प्राण के हर स्फुरण में ज्योतिस्फुलिंगों के अतिरिक्त कुछ बचा ही नहीं। इस अनुभूति ने कम से कम पूजा के समय की अनुभूति को दिव्य दर्शन अनुभव से ओतप्रोत बनाये ही रखा। साधना काप्राय: सारा समय इसी अनुभूति के साथ बीता। 

पूजा के ६ घण्टे, शेष और १८ घण्टों की भरपूर प्रेरणा देते। काम का जो समय रहाउसमें यह लगता रहा। कि इष्ट देवता का तेजस् ही अपना मार्गदर्शक है। उनके संकेतों पर ही प्रत्येक क्रिया-कलाप बना और चल रहा है। लालसा और लिप्सासे, तृष्णा और वासना से प्रेरित अपना कोई कार्य हो रहा हो ऐसा कभी लगा ही नहीं छोटे बालक को माँ जिस प्रकार उँगली पकड़कर चलाती है, उसी प्रकारदिव्य सत्ता ने मस्तिष्क को पकड़कर ऊँचा सोचने और शरीर को पकड़कर ऊँचा करने के लिए विवश कर दिया। उपासना के अतिरिक्त जाग्रत अवस्था के जितनेघण्टे रहे उनमें शारीरिक नित्य कर्मों से लेकर आजीविका उपार्जन, स्वाध्यायचिन्तन परिवार व्यवस्था आदि की समस्त क्रियाएँ इस अनुभूति के साथचलती रहीं मानो परमेश्वर इन सबका नियोजन और संचालन कर रहा हो। रात को सोने के ६ घण्टे ऐसी गहरी नींद में बीतते रहे मानो समाधि लग गई हो और माता केआँचल में अपने को सौंपकर परम शान्ति और सन्तुष्टि की भूमिका आत्म सत्ता से तादात्म्य प्राप्त कर रही हो। सोकर जब उठे तो लगा- नया जीवन, नया उल्लास,नया प्रकाश अग्रिम मार्गदर्शन के लिए पहले से ही पथ प्रदर्शन के लिएसामने खड़ा है। 

२४ वर्ष के २४ महापुरश्चरण काल में कोई सामाजिक पारिवारिक जिम्मेदारियाँ कन्धे परनहीं थी, सो अधिक तत्परता और तन्मयता के साथ यह जप-ध्यान-साधना का क्रम ठीक तरह चलता रहा। मातृवत् परदारेषु और पर द्रव्येषु लोष्ठवत् की अटूटनिष्ठा ने काया को पाप कर्मों से बचाये रखा, अन्न की सात्विकता ने मन को अध:पतन के गर्त में गिरने से भली प्रकार रोक रखने में सफलता पाई। जौ कीरोटी और गाय की छाछ का आहार रुचा भी और पचा भी। जैसा अन्न वैसा मन की सचाई हमने अपने जीवन काल में पग-पग पर अनुभव की, यदि शरीर और मन का संयम कठोरतापूर्वक न बरता गया होता तो शायद जो थोड़ी-सी प्रगति हो सकी, वह हो सकी होती या नहीं। 

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