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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4258
आईएसबीएन :00000

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धर्म और अधर्म पर आधारित पुस्तक....


क्या धर्म? क्या अधर्म?

सच्चिदानन्द की आराधना


वैसे तो धर्म शब्द नाना अर्थों में व्यक्त होता है, पर दार्शनिक दृष्टि से धर्म का अर्थ स्वभावठहराता है। अग्नि का धर्म गर्मी है अर्थात अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हर एक वस्तु का एक धर्म होता है जिसे वह अपने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्तधारण किए रहती है। मछली का प्रकृति धर्म जल में रहना है, सिंह स्वभाबतः मांसाहारी है। हर एक जीवित एवं निर्जीव पदार्थ एक धर्म को अपने अन्दर धारणकिए हुए है। धातुऐं अपने-अपने स्वभाव धर्म के अनुसार ही काम करती हैं। धातु-विज्ञान के जानकार समझते हैं कि अमुक प्रकार का लोहा इतनी आग मेंगलता है और वह इतना मजबूत होता है, उसी के अनुसार वे सारी व्यवस्था बनाते है। यदि लोहा अपना धर्म छोड़ दे, कभी कम आग से गले कभी ज्यादा से इसीप्रकार उसकी मजबूती का भी कुछ भरोसा न रहे तो निस्संदेह लोहकारों का कार्य असम्भव हो जाय। नदियां कभी पूरब को बहें कभी पश्चिम को अग्नि कभी गरम होजाय कभी ठण्डी तो आप सोचिए कि दुनियाँ कितनी अस्थिर हो जाय। परन्तु ऐसा नहीं होता, विश्वास का एक-एक परमाणु अपने नियम धर्म का पालन करने में लगाहुआ है, कोई तिल भर भी इधर से उधर नहीं हिलता। धर्म रहित कोई भी वस्तु इस विश्व में स्थिर नहीं रह सकती।

बहुत काल की खोज के उपरान्त मनुष्य का मूल धर्म मालूम कर लिया गया है। जन्म से लेकर मृत्यु तकसम्पूर्ण मनुष्य अपने मूलभूत धर्म का पालन करने में प्रवृत्त रहते हैं। आपको यह सुनकर कि कोई भी मनुष्य धर्म रहित नहीं है, आश्चर्य होता होगाइसका कारण यह है कि आप मनुष्य कृत रीति-रिबाजों, मजहबों, फिरकों, प्रथाओं को धर्म नाम दे देते हैं। यह सब तो व्यवस्थायें हैं जो वास्तविक धर्म सेबहुत ऊपर की उथली वस्तुऐं हैं, आपको वास्तविकता का पता लगाने के लिए एक सत्य शोधक की भांति बहुत गहरा उतरकर मनुष्य स्वभाव का अध्ययन करना होगा।

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