आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म ? क्या अधर्म ? क्या धर्म ? क्या अधर्म ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म पर आधारित पुस्तक....
कहीं-कहीं कीर्ति की इच्छा को बुरा बताया गया है और यश आकांक्षा छोड़ देने के लिए कहा गया है।वहाँ अति का विरोध है। सुकर्म करके प्रशंसा प्राप्त करने के मध्यम मार्ग को उल्लंघन करके जब मनुष्य किसी भी प्रकार दूसरों के मुँह अपनी चर्चासुनने के लिए लालायित हो जाता है तो वह भले-बुरे का विचार छोड़ देता है। बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा की नीति अपना लेना यश की अति इच्छा कापरिणाम है। झूठा, शेखीखोर, ढोंगी मनुष्य अपनी यशेच्छा को अत्यन्त बढ़ जाने देते हैं और उसकी पूर्ति के लिए अनेक प्रकार उच्छृंखल, उद्दण्ड, अति साहसीलोग भारी जोखिम उठाते हैं, नीति-अनीति का विचार छोड़ देते हैं और ऐसे असाधारण कार्य करते हैं जिनसे उनकी चर्चा चारों ओर होने लगे। मुझे भूतचढ़ता है, मुझे देवता के दर्शन हुए, मैंने अमुक-अमुक साहसिक कार्य किए आदि मनगढ़न्त बातें कहकर कई व्यक्ति अपनी विशेषता प्रकाशित करते हैं और उसकेकारण होने वाली जन चर्चा से अपनी यशेच्छा को तृप्त करते हैं। किसी स्वतंत्र पुस्तक में हम यह बताने का प्रयत्न करेंगे कि यशेच्छा के विकृतरूप में लोग नाना प्रकार की बीमारियों और बुरी आदतें भी किस प्रकार अन्दर धारण कर लेते हैं। यश प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि उससे आध्यात्मिक लाभहोता है, परन्तु उसका अभाव और अति दोनों ही हानिकारक होने से अधर्म कहे जाते हैं।
समूह बनाने, मिल-जुलकर रहने, संगठन करने की इच्छा ने ही मनुष्य को सामाजिक प्राणी बना दिया है।कुटुम्ब, जाति, गोत्र, धर्म, समुदाय, राष्ट्र आदि का निर्माण इसी इच्छा ने कराया है। अनेक सभाऐं, पार्टी, संगठन, परिवार, सत्संग, गोष्ठी, गिरोह,यूनिटें, अखाड़े, दल, क्लब हम अपने चारों ओर गुप्त एव प्रकट रूप में फैले हुए देखते हैं। इन सबके मूल में मनुष्य की एक ही भूख काम कर रही है कि हमअधिक लोगों के साथ दल बाँध कर रहें। ऊपर कीर्ति की चर्चा करते हुए बता चुके हें कि मनुष्यों के शरीरों से निकलने वाले विद्युत प्रवाहों की गर्मीसे जीव को बल प्राप्त होता है, इसलिए उसे अकेले रहना बुरा लगता है और बहुत लोगों के बीच में रहते हुए प्रसन्नता प्राप्त होती है, इस सम्बन्ध में यहीएक बात और भी जान लेने की है कि रुचि का आकर्षण समानता में ही विशेष रूप से रहता है।
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