लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4258
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

59 पाठक हैं

धर्म और अधर्म पर आधारित पुस्तक....


एक पूर्ण मानव की रचना के ईश्वर ने दो भाग कर दिये हैं। चने की दो दालें मिलकर एक चना बनता है। इसीप्रकार स्त्री और पुरुष मिलकर पूर्ण मानव बनता है। न केवल शारीरिक विकास का वरन् मानसिक विकास की गति भी दाम्पत्य जीवन से बढ़ती है। इस धर्म विवेचनकी पुस्तक में शरीर रचना और काम विज्ञान की उन पेचीदगियों का वर्णन करने का स्थान नहीं है जिसके आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से यह सिद्ध किया जासकता है कि स्त्री और पुरुष बिना एक-दूसरे के बहुत ही क्षति पीड़ित रहते हैं। बालक-बालिकाऐं अपने माता-पिता, भाई-बहिनों से वह रस खींचते हैं। जिनलड़कियों को छोटे लड़कों के साथ खेलने का, पिता, चचा, ताऊ आदि के पास रहने का अवसर नहीं मिलता वे अनेक दृष्टियों से निर्बल रह जाती हैं। इसी प्रकारजो लड़के माता, बहिन, चाची, दादी, बुआ आदि के सम्पर्क से वंचित रहते हैं, उनमें भी अनेक भारी-भारी कमियाँ रह जाती हैं।

सरकारी जनसंख्या की रिपोर्ट देखने से पता चलता है कि विवाहितों की अपेक्षा विधवा एवं विधुरोंकी मृत्यु संख्या बहुत बड़ी-चढ़ी होती है। यहाँ साधू-महात्माओं के कुछ अपवादों की हम चर्चा नहीं करेगे क्योंकि वे तो एकाकी रहते हुए भी अन्यउपायों से क्षति की किसी प्रकार पूर्ति कर लेते हैं, पर यह सर्व साधारण के लिए संभव नहीं है। विवाह को पवित्र धार्मिक संस्कार माना गया है। पुत्र काविवाह कर देना पिता अपना धर्म कर्तव्य समझता है, कन्यादान के फल से कन्या का पिता स्वर्ग प्राप्ति की आशा करता है। कारण यह कि दाम्पत्य जीवन बितानामनुष्य की स्वाभाविक, ईश्वर प्रदत्त आवश्यकता है, उसकी पूर्ति करना धर्म कर्तव्य कहा ही जाना चाहिए। तरुण एकाकी स्त्री-पुरुषों को सन्देह कीदृष्टि से देखा जाता है। विधवाऐं और विधुर स्वाभाविक रीति से गृहस्थ जीवन बिताने वालों की उपेक्षा तिरस्कृत समझे जाते हैं, उन्हें भाग्यहीन समझाजाता है। शहरों में किसी सम्मिलित बड़े घर में एक हिस्सा किराये पर लेने के लिए विधुर लोग कोशिश करते हैं पर उन्हें बहुत बार सफलता नहीं मिलतीक्योंकि सद्गृहस्थों के बीच विधुर तो एक अविश्वासी, नीची श्रेणी का जीव समझा जायगा। सधवा स्त्रियाँ बाहर के लोगों से वार्तालाप कर सकती हैं,श्रृंगार कर सकती हैं, परन्तु विधवा का ऐसा करना संदेह से भरा हुआ समझा जायगा, क्योंकि अविवाहित रहना मनुष्य की स्वाभाविक ईश्वर प्रदत्त दृष्टिके अनुसार अवांछनीय है। यह अभाव जन्य अधर्म है। अब अतिजन्य अधर्म को लीजिए। व्यभिचारी, कुकर्मी, अप्राकृतिक कर्म करने वाले, अगम्या से गमनकरने वाले, जो अनुचित-उचित का भेद त्याग कर विवाह क्षुधा की अतिशय तृप्ति करने पर उतारू हो जाते है वे भी पापी कहे जाते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book