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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4258
आईएसबीएन :00000

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धर्म और अधर्म पर आधारित पुस्तक....



बहुत के लिए थोड़े का त्याग


द्विविधा पूर्ण गुत्थी को सुलझाने के लिए 'बहुत के लिए थोड़े का त्याग’ की नीति बहुत ही उपयुक्त है।किसान जब बीज बोता है तो फसल पर विशाल अन्न राशि प्राप्ति करने की इच्छा से घर में रखा हुआ अन्न खेत में बिखेर देता है। व्यापारी अपना कारोबारआरम्भ करता है, लाभ की आशा से नकद पूँजी को माल असबाब में फँसा देता है। महाजन सूद की आशा से अपना रुपया कर्जदार को दे देता है। कारण यह है कि हरएक बुद्धिमान व्यक्ति इस नीति से भली प्रकार परिचित है कि अधिक लाभ के लिए थोड़ी जोखिम उठाना भी आवश्यक है। बीमार होने पर सोने-चाँदी के जेवर बेचकरभी दवा-दारू कराई जाती है, यद्यपि सोना-चाँदी प्रिय वस्तुऐं हैं तो भी जिन्दगी के मुकाबले में उनका मूल्य कम है, इसलिए अधिक मूल्य की वस्तु केलिए कम मूल्यवान वस्तु खर्च कर दी जाती है। नामबरी के कार्यों में धर्म-कार्यों में, गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च कर दिया जाता है क्योंकि यशसे, पुण्य से मन को जो आनन्द मिलता है वह पैसा जमा करने के आनन्द की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होता है। घाव में कीड़े पड़ गये हैं डाक्टर देखताहै कि यदि कीड़े जीवित रहेंगे तो रोगी मर जायगा। उसके सामने धर्म-संकट आता है कि कीड़ों को मार दूँ या रोगी मरने दूँ? बुद्धि कहती है कि कीड़ों कीअपेक्षा संसार के लिए मनुष्य अधिक उपयोगी है, डाक्टर घाव पर विषैली दवा लगाता है। बच्चे के पाँव में काँटा घुस गया है, निकालने के लिए उस स्थानको छूते ही बालक दर्द के मारे चिल्लाता है। माता सोचती है निकालने में इसको कष्ट होता है, पर यदि काँटा लगा रहेगा तो कष्ट की मात्रा अनेक गुनीबढ़ जायगी। इसीलिए वह जबरदस्ती करती है, बच्चे के हाथ-पाँव पकड़कर काँटा निकालती है, बच्चा चीखता-चिल्लाता है, पर वह तो निकाल कर ही मानेगी। कारणयह है कि माता का विवेक उससे कहता है कि बड़े कष्ट का निवारण करने के लिए छोटा कष्ट देने में कोई हर्ज नहीं है। समाज के लिए हानि पहुँचाने वालेहिंसक, हत्यारे, डाकू लोग अदालत द्वारा मृत्यु-दण्ड पाते हैं। एक आदमी की जान जा रही है, पर उससे असंख्य व्यक्तियों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षकठिनाई का निवारण होता है। अतएव जज उस हिंसा की परवाह नहीं करता जो मृत्युदण्ड देने में होती है। बहुत के लाभ के लिए थोड़ी हानि भी उठाई जासकती है।

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