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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मैं क्या हूँ ?

मैं क्या हूँ ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4262
आईएसबीएन :00000

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अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप का बोध कराने वाली पुस्तक....

पहला अध्याय

 

कः काल कानि मित्राणि को देशः कौ व्ययाऽऽगमौ।
कश्चाहं का च मे शक्तिरितिचिन्त्यं मुहर्मुहः।।

- चाणक्य नीति-४-१८

"कौन-सा समय है, मेरे मित्र कौन हैं, शत्रु कौन हैं, कौन-सा देश (स्थान) है, मेरी आय-व्यय क्या है, मैंकौन हूँ, मेरी शक्ति कितनी है? इत्यादि बातों का बराबर विचार करते रहो।

सभी विचारकों ने ज्ञान का एक ही स्वरूप बताया है, वह है-'आत्मबोध !' अपने संबंध में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहजाता। जीव असल में ईश्वर ही है। विकारों में बँधकर वह बुरे रूप में दिखाई देता है, परंतु उसके भीतर अमूल्य निधि भरी हुई। शक्ति का वह केंद्र है औरइतनी शक्ति है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। सारी कठिनाइयाँ, सारे दु:ख इसी बात के हैं कि हम अपने को नहीं जानते। जब आत्मस्वरूप को समझ जातेहैं, तब किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं रहता। आत्मस्वरूप का अनुभव करने पर वह कहता है-

"नाहं जातो जन्म मृत्युः कुतो मे,
नाहं प्राणः क्षुत्पिपासा कुतो मे।
नाहं चित्तं शोकमोहौ कुतो मे,
नाहं कर्ता बंधमोक्षौ कुतो मे।।"

मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ, फिर मेरा जन्म-मृत्यु कैसे? मैं प्राण नहीं हूँ, फिर भूख-प्यास मुझे कैसी? मैंचित्त नहीं हैं, फिर मुझे शोक-मोह कैसे? मैं कर्ता नहीं हूँ फिर मेरा बंध-मोक्ष कैसे?

जब वह समझ जाता है कि मैं क्या हूँ? तब उसे वास्तविक ज्ञान हो जाता है और सब पदार्थों कारूप ठीक से देखकर उसका उचित उपयोग कर सकता है। चाहे किसी दृष्टि से देखा जाए, आत्मज्ञान ही सर्वसुलभ और सर्वोच्च ज्ञान ठहरता है।

किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि आप कौन हैं? तो वह अपने वर्ण, कुल, व्यवसाय, पद या संप्रदायका परिचय देगा। ब्राह्मण हूँ, अग्रवाल हूँ, बजाज हूँ, तहसीलदार हूँ, वैष्णव हूँ आदि उत्तर होंगे। अधिक पूछने पर अपने निवास स्थान, वंश,व्यवसाय आदि का अधिकाधिक विस्तृत परिचय देगा। प्रश्न के उत्तर के लिए ही यह सब वर्णन हो, सो नहीं, उत्तर देने वाला यथार्थ में अपने को वैसा हीमानता है। शरीर भाव में मनुष्य इतना तल्लीन हो गया है कि अपने आपको वह शरीर ही समझने लगा है।

वंश, वर्ण, व्यवसाय या पद शरीर का होता है। शरीर मनुष्य का एक परिधान है, औजार है,परंतु भ्रम और अज्ञान के कारण मनुष्य अपने आपको शरीर ही मान बैठता है और शरीर के स्वार्थ तथा अपने स्वार्थ को एक कर लेता है। इसी गडबडी में जीवनअनेक अशांतियों, चिंताओं और व्यथाओं का घर बन जाता है।

मनुष्य शरीर में रहता है, यह ठीक है, पर यह भी ठीक है कि वह शरीर नहीं है। जब प्राण निकलजाते हैं, तो शरीर ज्यों-का-त्यों बना रहता है, उसमें से कोई वस्तु घटती नहीं, तो भी वह मृत शरीर बेकाम हो जाता है। उसे थोड़ी देर रखा रहने दियाजाए, तो लाश सड़ने लगती है, दुर्गंध उत्पन्न होती है और कृमि पड़ जाते हैं। देह वही है, ज्यों की त्यों, पर प्राण निकलते ही उसकी दुर्दशा होनेलगती है। इससे प्रकट है कि मनुष्य शरीर में निवास तो करता है, पर वस्तुतः वह शरीर से भिन्न है। इस भिन्न सत्ता को आत्मा कहते हैं। वास्तव में यहीमनुष्य है। मैं क्या हैं? इसका सही उत्तर यह है कि, 'मैं आत्मा हूँ।'

शरीर और आत्मा की पृथकता की बात हम सब लोगों ने सुन रखी है। सिद्धांततः हम सब उसे मानतेभी हैं। शायद कोई ऐसा विरोध करे कि देह से जीव पृथक् नहीं है, इस पृथकता की मान्यता सिद्धांत रूप से जैसे सर्व साधारण को स्वीकार है, वैसे हीव्यवहार में सभी लोग उसे अस्वीकार करते हैं। लोगों के व्यवहार ऐसे होते हैं, मानो वे वस्तुतः शरीर ही हैं। शरीर के हानि-लाभ ही उनके हानि-लाभहैं। किसी व्यक्ति को बारीकी के साथ निरीक्षण किया जाए और देखा जाए कि वह क्या सोचता है? क्या कहता है? और क्या करता है? तो पता चलेगा कि वह शरीरके बारे में सोचता है, उसी के संबंध में संभाषण करता है और जो कुछ करता है, शरीर के लिए करता है। शरीर को ही उसने 'मैं' मान रखा है।

शरीर आत्मा का मंदिर है। उसकी स्वस्थता,, स्वच्छता और सुविधा के लिए कार्य करना उचित एवंआवश्यक है, परंतु यह अहितकर है कि केवल मात्र शरीर के ही बारे में सोचा जाए, उसे अपना स्वरूप मान लिया जाए और अपने वास्तविक स्वरूप को भुला दियाजाए। अपने आपको शरीर मान लेने के कारण शरीर के हानि-लाभों को भी अपने हानि-लाभ मान लेता है और अपने वास्तविक हितों को भूल जाता है। यहभूल-भुलैया का खेल जीवन को बड़ा कर्कश और नीरस बना देता है।

आत्मा शरीर से पृथक् है। शरीर और आत्मा के स्वार्थ भी पृथक हैं। शरीर के स्वार्थों काप्रतिनिधित्व इंद्रियाँ करती हैं। दस इंद्रियाँ और ग्यारहवाँ मन यह सदा ही शारीरिक दृष्टिकोण से सोचते और कार्य करते हैं। स्वादिष्ट भोजन, बढियावस्त्र सुंदर-सुंदर मनोहर दृश्य, मधुर श्रवण, रूपवती स्त्री, नानाप्रकार के भोग-विलास यह इंद्रिय की आकांक्षा हैं। ऊँचा पद, विपुल धन, दूर-दूर तकयश, रौब-दाब, यह सब मन की आकांक्षाएँ हैं। इन्हीं इच्छाओं को तृप्त करने में प्रायः सारा जीवन लगता है। जब ये इच्छाएँ अधिक उग्र हो जाती हैं, तोमनुष्य उनकी किसी भी प्रकार से तृप्ति करने की ठान लेता है और उचित-अनुचित का विचार छोड़कर जैसे भी बने वैसे स्वार्थ साधने की नीति पर उतर आता है।यही समस्त पापों का मूल केंद्र बिंदु है।

शरीर भाव में जाग्रत् रहने वाला मनुष्य यदि आहार, निद्रा, भय, मैथुन के साधारणकार्यक्रम पर चलता रहे तो भी उस पशुवत्। जीवन में निरर्थकता ही है, सार्थकता कुछ नहीं। यदि उसकी इच्छाएँ जरा अधिक उग्र या आतुर हो जाएँ, तबतो समझिए कि वह पूरा पाप पुंज शैतान ही बन जाता है, अनीतिपूर्वक स्वार्थ साधने में उसे कुछ हिचक नहीं होती। इस दृष्टिकोण के व्यक्ति न तो स्वयंसुखी रहते हैं और न दूसरों को सुखी रहने देते हैं। काम और लोभ ऐसे तत्त्व हैं कि कितना ही अधिक-से-अधिक भोग क्यों न मिले वे तृप्त नहीं होते, जितनाभी मिलता है उतनी ही तृष्णा के साथ-साथ अशांति, चिंता, कामना तथा व्याकुलता भी दिन दूनी और रात चौगुनी होती चलती है। इन भोगों में जितनासुख मिलता है उससे अनेक गुना दुःख भी साथ-ही-साथ उत्पन्न होता चलता है। इस प्रकारं शरीरभावी दृष्टिकोण-मनुष्य को पाप, ताप, तृष्णा तथा अशांति की ओरघसीटे ले जाता है।

जीवन की वास्तविक सफलता और समृद्धि आत्मभाव में जाग्रत् रहने में है। जब मनुष्यअपने को आत्मा अनुभव करने लगता है तो उसकी इच्छा, आकांक्षा और अभिरुचि उन्हीं कामों की ओर मुड़ जाती है, जिनसे आध्यात्मिक सुख मिलता है। हमदेखते हैं कि चोरी, हिंसा, व्यभिचार छल एवं अनीति भरे दुष्कर्म करते हए अंतःकरण में एक प्रकार का कोहराम मच जाता है, पाप करते हुए पाँव काँपतेहैं और कलेजा धड़कता है। इसका तात्पर्य यह है कि इन कामों को आत्मा नापसंद करती है। यह उसकी रुचि एवं स्वार्थ के विपरीत है। किंतु जब मनुष्यपरोपकार, परमार्थ, सेवा, सहायता, दान, उदारता, त्याग, तप से भरे हुए पुण्य कर्म करता है, तो हृदय के भीतरी कोने में बड़ा ही संतोष, हलकापन, आनंद एवंउल्लास उठता है। इसका अर्थ है कि यह पुण्य कर्म आत्मा के स्वार्थ के अनुकूल है। वह ऐसे ही कार्यों को पसंद करता है। आत्मा की आवाज सुनने वालेऔर उसी की आवाज पर चलने वाले सदा पुण्यकर्मी होते हैं। पाप की ओर उनकी प्रवृत्ति ही नहीं होती, इसलिए वैसे काम उनसे बन भी नहीं पड़ते।

आत्मा को तत्कालीन सुख सत्कर्मों में आता है। शरीर की मृत्यु होने के उपरांत जीव कीसद्गति मिलने में भी हेतु सत्कर्म ही हैं। लोक और परलोक में आत्मिक सुख-शांति सत्कर्मों के ऊपर ही निर्भर है। इसलिए आत्मा का स्वार्थपुण्य-प्रयोजन में है। शरीर का स्वार्थ इसके विपरीत है, इंद्रियाँ और मन संसार के भोगों को अधिकाधिक मात्रा में चाहते हैं। इस कार्य प्रणाली कोअपनाने से मनुष्य नाशवान् शरीर की इच्छाएँ पूर्ण करने में जीवन को खर्च करता है और पापों का भार इकट्ठा करता रहता है। इससे शरीर और मन का अभिरंजनतो होता है, पर आत्मा को इस लोक और परलोक में कष्ट उठाना पड़ता है। आत्मा के स्वार्थ के सत्कर्मों में शरीर को भी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। तप,त्याग, संयम, ब्रह्मचर्य, सेवा, दान आदि के कार्यों में शरीर को कसा जाता है, तब ये सत्कर्म सधते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर का स्वार्थऔर आत्मा का स्वार्थ आपस में मेल नहीं खाता, एक के सुख में दूसरे का दुःख होता है। दोनों के स्वार्थ आपस में एक-दूसरे के विरोधी हैं।

इन दो विरोधी तत्त्वों में से हमें एक को चुनना होता है। जो व्यक्ति अपने आपको शरीरसमझते हैं, वे आत्मा के सुख की परवाह नहीं करते और शरीर-सुख के लिए भौतिक संपदाएँ, भोग सामग्रियाँ एकत्रित करने में ही सारा जीवन व्यतीत करते हैं।ऐसे लोगों का जीवन पशुवत् पाप रूप, निकृष्ट प्रकार का हो जाता है। धर्म, ईश्वर, सदाचार, परलोक, पुण्य, परमार्थ की चर्चा वे भले ही करें पर यथार्थमें उनका पुण्य परलोक स्वार्थ-साधन की ही

चहारदीवारी के अंदर होता है। यश के लिए, अपने अहंकार को तृप्त करने के लिए, दूसरों परअपना सिक्का जमाने के लिए, वे धर्म का कभी-कभी आश्रय ले लेते हैं। वैसे उनकी मनःस्थिति सदैव शरीर से संबंध रखने वाले स्वार्थ-साधनों में हीनिमग्न रहती है, परंतु जब मनुष्य आत्मा के स्वार्थ को स्वीकार कर लेता है, तो उसकी अवस्था विलक्षण एवं विपरीत हो जाती है। भोग और ऐश्वर्य के प्रयत्नउसे बालकों की खिलवाड़ जैसे प्रतीत होते हैं। शरीर जो वास्तव में आत्मा का एक वस्त्र या औजार मात्र है, इतना महत्त्वपूर्ण उसे दृष्टिगोचर नहीं होताकि उसी के ऐश आराम में जीवन जैसे बहुमूल्य तत्त्व को बरबाद कर दिया जाए। आत्मभाव में जगा हुआ मनुष्य अपने आपको आत्मा मानता है और आत्मकल्याण के,आत्मसुख के कार्यों में ही अभिरुचि रखता तथा प्रयत्नशील रहता है। उसे धर्म-संचय के कार्यों में अपने समय को एक-एक घडी लगाने की लगन लगी रहतीहै। इस प्रकार शरीरभावी व्यक्ति का जीवन पाप की ओर, पशुत्व की ओर चलता है और आत्मभावी व्यक्ति का जीवन-प्रवाह पुण्य की ओर, देवत्व की ओर प्रवाहित्वहोता है। यह सर्वविदित है कि इस लोक और परलोक में पाप का परिणाम दुखदायी और पुण्य का परिणाम सुखदायी होता है। अपने को आत्मा समझने वाले व्यक्तिसदा आनंदमयी स्थिति का रसास्वादन करते हैं।

जिसे आत्मज्ञान हो जाता है, वह छोटी घटनाओं से अत्यधिक प्रभावित, उत्तेजित या अशांत नहींहोता। लाभ-हानि, जीवन-मरण, विरह-विछोह, मान-अपमान, लोभ, क्रोध, काम, भोग, राग-द्वेष की कोई घटना उसे अत्यधिक क्षुभित नहीं करती, क्योंकि वह जानताहै कि यह सब परिवर्तनशील संसार में नित्य का स्वाभाविक क्रम है। मनोवांच्छित वस्तु या स्थिति संदा प्राप्त नहीं होती, कालचक्र के परिवर्तनके साथ-साथ अनिच्छित घटनाएँ भी। घटित होती रहती हैं, इसलिए उन परिवर्तनों को एक मनोरंजन की तरह, नाट्य रंग-मंच की तरह, कुतूहल और विनोद की तरहदेखता है। किसी अनिच्छित स्थिति को सामने आया देखकर वह बेचैन नहीं होता। आत्मज्ञानी उन मानसिक कष्टों से सहज ही बचा रहता है, जिनमें से शरीरभावीलोग सदा व्यथित और बेचैन रहते हैं और कभी-कभी तो अधिक उत्तेजित होकर आत्महत्या जैसे दुःखद परिणाम उपस्थित कर लेते हैं।

जीवन को शुद्ध, सरल, स्वाभाविक एवं पुण्य-प्रतिष्ठा से भरा-पूरा बनाने का राजमार्ग यह हैकि हम अपने आपको शरीरभाव से ऊँचा उठावें और आत्मभाव में जाग्रत् हों। इससे सच्चा सुख, शांति और जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति होती है। अध्यात्म विद्या केआचार्यों ने इस तथ्य को भली प्रकार अनुभव किया है। और अपनी साधनाओं में सर्वप्रथम स्थान आत्मज्ञान को दिया है। मैं क्या हैं? इस प्रश्न पर विचारकरने पर यही निष्कर्ष निकलता है। कि 'मैं आत्मा हूँ।' क्ह भाव जितना ही सुदृढ़ होता जाता है उतने ही उसके विचार और कार्य आध्यात्मिक एवं पुण्यरूप होते जाते हैं। इस पुस्तक में ऐसी ही साधनाएँ निहित हैं जिनके द्वारा हम अपने आत्मरूप को पहिचानें और हृदयंगम करें। आत्मज्ञान हो जाने पर वहसच्चा मार्ग मिलता है, जिस पर चलकर हम जीवन-लक्ष्य को, परमपद को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

आत्मस्वरूप को पहिचानने से मनुष्य समझ जाता है कि मैं स्थूल शरीर एवं सूक्ष्म शरीर नहींहैं। यह मेरे कपड़े हैं। मानसिक चेतनाएँ भी मेरे उपकरण मात्र हैं। इनसे मैं बँधा हुआ नहीं हैं। ठीक बात को समझते ही सारा भ्रम दूर हो जाता है औरबंदर मुट्ठी का अनाज छोड़ देता है। आपने यह किस्सा सुना होगा कि एक छोटे मुँह के बर्तन में अनाज जमा था। बंदर ने उसे लेने के लिए हाथ डाला औरमुट्ठी में भरकर अनाज निकालना चाहा। छोटा मुँह होने के कारण वह निकाल न सका, बेचारा पड़ा-पड़ा चीखता रहा कि अनाज ने मेरा हाथ पकड़ लिया है, परज्योंही उसे असलियत का बोध हुआ कि मैंने ही मुट्ठी बाँध रखी है, इसे छोड़ें तो सही। जैसे ही उसने उसे छोड़ा कि अनाज ने बंदर को छोड़ दिया।काम, क्रोधादि हमें इसलिए सताते हैं कि उनकी दासता हम स्वीकार करते हैं। जिस दिन हम विद्रोह का झंडा खड़ा कर देंगे, भ्रम अपने बिल में धंस जाएगा।भेड़ों में पला हआ शेर का बच्चा अपने को भेड़ समझता था, परंतु जब उसने पानी में अपनी तस्वीर देखी तो पाया कि मैं भेड़ नहीं, शेर हूँ। आत्मस्वरूपका बोध होते ही उसका सारा भेड्पन क्षणमात्र में चला गया। आत्मदर्शन की महत्ता ऐसी ही है, जिसने इसे जाना उसने उन सब दुःख-दरिद्रता से छुटकारा पालिया, जिनके मारे वह हर घड़ी हाय-हाय किया करता था।

जानने योग्य इस संसार में अनेक वस्तुएँ हैं, पर उन सबमें प्रधान अपने आपको जानना है।जिसने अपने को जान लिया उसने जीवन का रहस्य समझ लिया। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों ने अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार किए हैं। प्रकृति के अंतराल मेंछिपी हुई विद्युत् शक्ति, ईथर शक्ति, परमाणु शक्ति आदि को ढूंढ निकाला है। अध्यात्म जगत् के महान् अन्वेषकों ने जीवन-सिंधु का मंथन करके 'आत्मा'रूपी अमृत उपलब्ध किया है। इस आत्मा को जानने वाला सच्चा ज्ञानी हो जाता है और इसे प्राप्त करने वाला विश्व-विजयी मायातीत कहा जाता है। इसलिए हरव्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने आपको जाने। मैं क्या हैं? इस प्रश्न को अपने आपसे पूछे और विचार, चिंतन तथा मननपूर्वक उसका सही उत्तर प्राप्तकरे। अपना ठीक रूप मालूम हो जाने पर, हम अपने वास्तविक हित-अहित को समझ सकते हैं। विषयानुरागी अवस्था में जीव जिन बातों को लाभदायक समझता है,उनके लिए लालायित रहता है, वे लाभ आत्मानुरक्त होने पर तुच्छ एवं हानिकारक प्रतीत होने लगते हैं और माया लिप्त जीव जिन बातों से दूर भागता है, उसमेंआत्मपरायण का रस आने लगता है। आत्मसाधन के पथ पर अग्रसर होने वाले पथिक की भीतरी आँखें खुल जाती हैं और वह जीवन के महत्त्वपूर्ण रहस्य को समझकरशाश्वत सत्य की ओर तेजी से कदम बढ़ाता चला जाता है।

अनेक साधक अध्यात्म-पथ पर बढ़ने का प्रयत्न करते हैं, पर उन्हें केवल एकांगी औरआंशिक साधना करने के तरीके ही बताए जाते हैं। खुमारी उतारना तो वह है, जिस दशा में मनुष्य अपने रूप को भली भाँति पहचान सके। जिस इलाज से सिर्फहाथ-पैर पटकना ही बंद होता है या आँखों की सुर्ख ही मिटती हो, वह पूरा इलाज नहीं। यज्ञ, तप, दान, व्रत, अनुष्ठान, जप आदि साधन लाभप्रद हैं, इनकीउपयोगिता से कोई इनकार नहीं कर सकता। परंतु यह वास्तविकता नहीं है। इससे पवित्रता बढ़ती है, सतोगुण की वृद्धि होती है, पुण्य बढ़ता है, किंतु वहचेतना प्राप्त नहीं होती, जिसके द्वारा संपूर्ण पदार्थों का वास्तविक रूप जाना जा सकता है। और सारा भ्रम-जाल कट जाता है। इस पुस्तक में हमाराउद्देश्य साधक को आत्मज्ञान की चेतना में जगा देने का है, क्योंकि हम समझते हैं कि मुक्ति के लिए इससे बढ़कर सरल एवं निश्चित मार्ग हो नहींसकता। जिसने आत्मस्वरूप का अनुभव कर लिया, सद्गुण उसके दास हो जाते हैं और दुर्गुणों का पता भी नहीं लगता कि वे कहाँ चले गए?

आत्मदर्शन का यह अनुष्ठान साधकों को ऊँचा उठावेगा, इस अभ्यास के सहारे वे उस स्थान से ऊँचेउठ जाएँगे जहाँ कि पहले खड़े थे। इस उच्च शिखर पर खड़े होकर वे देखेंगे कि दुनिया बहुत बड़ी है। मेरा भार बहुत बड़ा है। मेरा राज्य बहुत दूर तक फैलाहुआ है। जितनी चिंता अब तक थी उससे अधिक चिंता अब मुझे करनी है, वह सोचता है कि मैं पहले जितनी वस्तुओं को देखता था, उससे अधिक चीजें मेरी हैं। अबवह और ऊँची चोटी। पर चढ़ता है कि मेरे पास कहीं इससे भी अधिक पूँजी तो नहीं है? जैसे-जैसे ऊँचा चढ़ता है वैसे ही वैसे उसे अपनी वस्तुएँ अधिकाधिकप्रतीत होती जाती हैं और अंत में सर्वोच्च शिखर पर पहुँचकर वह जहाँ तक दृष्टि फैला सकता है, वहाँ तक अपनी ही अपनी सब चीजें देखता है। अब तक उसेएक बहन, दो भाई, माँ-बाप, दो घोड़े, दस नौकरों के पालन की चिंता थी, अब उसे हजारों गुने प्राणियों के पालने की चिंता होती है। यही अहंभाव काप्रसार है। दूसरे शब्दो में इसी को अहंभाव का नाश कहते हैं। बात एक ही है फर्क सिर्फ कहने-सुनने का है। रबड़ के गुब्बारे जिनमें हवा भरकर बच्चेखेलते हैं, आपने देखे होंगे। इनमें से एक लो और उसमें हवा भरो। जितनी हवा भरती जाएगी, उतना ही वह बढ़ता जाएगा और फटने के अधिक निकट पहुँचता जाएगा।कुछ ही देर में उसमें इतनी हवा भर जाएगी कि वह गुब्बारे को फाड़कर अपने विराट् रूप आकाश में भरे हुए महान् वायुतत्त्व में मिल जाए। यही आत्मदर्शनप्रणाली है। आपको यह पुस्तक बतावेगी कि आत्मस्वरूप को जानो और विस्तार करो। बस इतने से ही सूत्र में वह सब महान् विज्ञान भरा हुआ है, जिसके आधारपर विभिन्न अध्यात्म पथ बनाए गए हैं। वे सब इस सूत्र में बीज रूप से मौजूद हैं, जो किसी भी सच्ची साधना से कहीं भी और किसी भी प्रकार हो सकते हैं।

आत्मा के वास्तविक स्वरूप को एक बार झाँकी कर लेने वाला साधक फिर पीछे नहीं लौटसकता। प्यास के मारे जिसके प्राण सूख रहे हैं, ऐसा व्यक्ति सुरसरी का शीतल कूल छोड़कर क्या फिर उसी रेगिस्तान में लौटने की इच्छा करेगा, जहाँ प्यासके मारे क्षण-क्षण पर मृत्यु समान असहनीय वेदना अब तक अनुभव करता रहा है? भगवान् कहते हैं-'यद्गत्वा न निवर्तते तद्धाम् परमं मम।” जहाँ जाकर फिरलौटना नहीं होता, ऐसा मेरा धाम है। सचमुच वहाँ पहुँचने पर पीछे को पाँव पड़ते ही नहीं। योग भ्रष्ट हो जाने का वहाँ प्रश्न ही नहीं उठता। घर पहुँचजाने पर भी क्या कोई घर का रास्ता भूल सकता है?

काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार और इंद्रिय वासनायें मनुष्य के आनंद में बाधक बनकर उसेदुःख-जाल में डाले हुए हैं। पाप और बंधन ही यह मूल हैं। पतन इन्हीं के द्वारा होता है और क्रमशः नीच श्रेणी में इनके द्वारा जीव घसीटा जाता रहताहै। विभिन्न अध्यात्म पथों की विराट् साधनाएँ इन्हीं दुष्ट शत्रुओं को पराजित करने के चक्रव्यूह हैं। अर्जुन रूपी मन को इसी महाभारत मेंप्रवृत्त होने का भगवान् का उपदेश है।

इस पुस्तक के अगले अध्यायों में आत्मदर्शन के लिए जिन सरल साधनों को बताया गया है, उनकीसाधना करने से हम उस स्थान तक ऊँचे उठ सकते हैं, जहाँ सांसारिक प्रवृत्तियों की पहुँच नहीं हो सकती। जब बुराई न रहेगी, तो जो शेष रह जाए,वह भलाई ही होगी। इस प्रकार आत्मदर्शन का स्वाभाविक फल दैवी संपत्ति को प्राप्त करना है। आत्मस्वरूप का, अहंभाव का आत्यंतिक विस्तार होते-होतेरबड़ के थैले के समान बंधन टूट जाते हैं और आत्मा परमात्मा में जा मिलता है। इस भावार्थ को जानकर कई व्यक्ति निराश होंगे और कहेंगे—यह तोसंन्यासियों का मार्ग है, जो ईश्वर में लीन होना चाहते हैं या परमार्थ साधना करना चाहते हैं, उनके लिए ही यह साधन उपयोगी हो सकता है। इसका लाभकेवल पारलौकिक है, किंतु हमारे जीवन का सारा कार्यक्रम इहलौकिक है। हमारा जो दैनिक कार्यक्रम व्यवसाय, नौकरी, ज्ञान-संपादन, द्रव्य उपार्जन,मनोरंजन आदि है, उसमें से थोड़ा समय पारलौकिक कार्यों के लिए निकाल सकते हैं, परंतु 'अधिकांश जीवनचर्या हमारी सांसारिक कार्यों में निहित है।इसलिए अपने अधिकांश जीवन के कार्यक्रम में हम इसका क्या लाभ उठा सकेंगे?

उपर्युक्त शंका स्वाभाविक है, क्योंकि हमारी विचारधारा आज कुछ ऐसी उलझ गई है कि लौकिक औरपारलौकिक स्वार्थों के दो विभाग करने पड़ते हैं। वास्तव में ऐसे कोई दो खंड नहीं हो सकते। जो लौकिक है, वही पारलौकिक है। दोनों एक-दूसरे से इतनेअधिक बँधे हुए हैं जैसे पेट और पीठ। फिर भी हम पूरी विचारधारा को उलटकर पुस्तक के कलेवर का ध्यान रखते हुए नये सिरे से समझाने की यहाँ आवश्यकतानहीं समझते। यहाँ तो इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि आत्मदर्शन व्यावहारिक जीवन को सफल बनाने की सर्वश्रेष्ठ कला है। आत्मोन्नति के साथही सभी सांसारिक उन्नति रहती है। जिसके पास आत्मबल है, उसके पास सब कुछ है और सारी सफलताएँ उसके हाथ के नीचे हैं।

साधारण और स्वाभाविक योग का सारा रहस्य इसमें छिपा हुआ है कि आदमी आत्मस्वरूप कोजानें, अपने गौरव को पहचाने, अपने अधिकार की तलाश करें और अपने पिता की अतुलित संपत्ति पर अपना हक पेश करे। यह राजमार्ग है। सीधा, सच्चा और बिनाजोखिम का है। यह मोटी बात हर किसी की समझ में आ जानी चाहिए कि अपनी शक्ति और साधनों की कार्यक्षमता की जानकारी एवं अज्ञानता किसी भी काम कीसफलता-असफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि उत्तम से उत्तम बुद्धि भी तब तक ठीक-ठीक फैसला नहीं कर सकती, जब तक उसे वस्तुओं का स्वरूप ठीक तौरसे न मालूम हो जाए।

अध्यात्म शास्त्र कहता है कि ऐ अविनाशी आत्माओं ! आप तुच्छ नहीं, महान् हो। आपको किसी अशक्तता का अनुभवकरना या कुछ माँगना नहीं है। आप अनंत शक्तिशाली हो, तुम्हारे बल का पारावार नहीं। जिन साधनों को लेकर आप अवतीर्ण हुए हो, वे अचूकब्रह्मास्त्र हैं। इनकी शक्ति अनेक इंद्रवज्रों से अधिक है। सफलता और आनंद आपका जन्मजात अधिकार है। उठो ! अपने को, अपने साधनों को और काम को भलीप्रकार पहचानो तथा बुद्धिपूर्वक जुट जाओ। फिर देखें, कैसे वह चीजें नहीं मिलतीं, जिन्हें आप चाहते हो। आप कल्पवृक्ष हो, कामधेनु हो और सफलता कीसाक्षात् मूर्ति हो।

भय और निराशा का एक कण भी आपकी पवित्र रचना में नहीं लगाया गया है। यह लो, अपना अधिकारसँभालो।

यह पस्तक बतावेगी कि आप शरीर नहीं हो, जीव नहीं हो, वरन् ईश्वर हो। शरीर की, मन कीजितनी भी महान् शक्तियाँ हैं, वे आपके औजार हैं। इंद्रियों के आप गुलाम नहीं हो, आदतें आपको मजबूर नहीं कर सकतीं, मानसिक विकारों का कोई अस्तित्वनहीं, अपने को और अपने वस्त्रों को ठीक तरह से पहचान लो। फिर जीव का स्वाभाविक धर्म उनका ठीक उपयोग करने लगेगा। भ्रमरहित और तत्त्वदर्शीबुद्धि से हर काम कुशलतापूर्वक किया जा सकता है। यही कर्म-कौशल योग है। गीता कहती हैं-'योगः कर्मसु कौशलम्। आप ऐसे ही कुशल योगी बनो। लौकिक औरपारलौकिक कार्यों में आप अपना उचित स्थान प्राप्त करते हुए सफलता प्राप्त कर सको और निरंतर विकास की ओर बढ़ते चलो, यही इस साधन का उद्देश्य है।

ईश्वर आपको इसी पथ पर प्रेरित करें।

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