आचार्य श्रीराम शर्मा >> मैं क्या हूँ ? मैं क्या हूँ ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप का बोध कराने वाली पुस्तक....
चौथा अध्याय
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
‘संसार में जितना भी कुछ है, वह सब ईश्वर से ओत-प्रोत है।
पिछले अध्यायों में आत्मस्वरूप और उसके आवरणों से जिज्ञासुओं को परिचित कराने का प्रयत्नकिया गया है। इस अध्याय में आत्मा और परमात्मा का संबंध बताने का प्रयत्न किया जाएगा। अब तक जिज्ञासु 'अहम्' का जो रूप समझ सके हैं, वास्तव में वहउससे कहीं अधिक है। विश्वव्यापी आत्मा परमात्मा, महत्तत्त्व, परमेश्वर का ही वह अंश है। तत्त्वतः उसमें कोई भिन्नता नहीं है।
आपको अब इस तरह अनुभव करना चाहिए कि 'मैं' अब तक अपने को जितना समझता हूँ, उससे कई गुनाबड़ा हूँ। ‘अहम्' की सीमा समस्त ब्रह्मांडों के छोर तक पहुँचती है। वह परमात्म शक्ति की सत्ता में समाया हुआ हैं और उसी से इस प्रकार पोषण लेरहा है जैसे गर्भस्थ बालक अपनी माता के शरीर से। वह परमात्मा का निज तत्त्व है। आपको आत्मा और परमात्मा की एकता का अनुभव करना होगा और क्रमशःअपनी अहंता को बढ़ाकर अत्यंत महान् कर देने को अभ्यास में लाना होगा। तब उस चेतना में जग सकोगे, जहाँ पहुँचकर योग के आचार्य कहते हैं-'सोऽहम्'।
आइए, अब इसी अभ्यास की यात्रा आरंभ करें। अपने चारों ओर दूर तक नजर फैलाओ और अंतरनेत्रों से जितनी दूरी तक के पदार्थों को देख सकते हो देखो, प्रतीत होगा कि एक महान् विश्व चारों ओर बहुत दूर, बहुत दूर तक फैला हुआ है। यह विश्वकेवल ऐसा ही नहीं है, जैसा मोटे तौर पर समझा जाता है, वरन्। यह एक चेतना का समुद्र है। प्रत्येक परमाणु आकाश एवं ईथर तत्त्व में बराबर गति करताहुआ आगे को बह रहा है। शरीर के तत्त्व हर घड़ी बदल रहे हैं। आज जो रासायनिक पदार्थ एक वनस्पति में है, वह कल भोजन द्वारा हमारे शरीर मेंपहुँचेगा और परसों मल रूप में निकलकर अन्य जीवों के शरीर का अंग बन जाएगा। डॉक्टर बताते हैं कि शारीरिक कोश हर घडी बदल रहे हैं, पुराने नष्ट हो जातेहैं और उनके स्थान पर नये आ जाते हैं। यद्यपि देखने में शरीर ज्यों-का-त्यों रहता है, पर कुछ ही समय में । वह बिलकुल बदल जाता है औरपुराने शरीर का एक कण भी बाकी नहीं बचता। वायु, जल और भोजन द्वारा नवीन पदार्थ शरीर में प्रवेश करते हैं और श्वास-क्रिया तथा मल-त्याग के रूप मेंबाहर निकल जाते हैं। भौतिक पदार्थ बराबर अपनी धारा में बह रहे हैं। नदी-तल में पड़े हुए कछुए के ऊपर होकर नवीन जलधारा बहती रहती है, तथापि वह केवलइतना ही अनुभव करता है कि पानी मुझे घेरे हुए है और मैं पानी में पड़ा हुआ हूँ। हम लोग भी उस निरंतर बहने वाली प्रकृति-धारा से भली भाँति परिचितनहीं होते, तथापि वह पल भर भी ठहरे बिना बराबर गति करती रहती है। यह मनुष्य शरीर तक ही सीमित नहीं, वरन् अन्य जीवधारियों, वनस्पतियों औरजिन्हें हम जड मानते हैं, उन सब पदार्थों में होती हुई आगे बढ़ती रहती है। हर चीज हर घड़ी बदल रही है। कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाए, इस प्रवाहकी एक बूंद को क्षण भर भी रोककर नहीं रखा जा सकता, यह भौतिक सत्य, आध्यात्मिक सत्य भी है। फकीर गाते हैं—'यह दुनिया आनी-जानी है।'
भौतिक द्रव्य प्रवाह को आप समझ गए होंगे। यही बात मानसिक चेतनाओं की है। विचारधाराएँ,शब्दावलियाँ, संकल्प आदि का प्रवाह भी ठीक इसी प्रकार जारी है। जो बातें एक व्यक्ति सोचता है, वही बात दूसरे के मन में उठने लगती है। दुराचार केअड्डों का वातावरण ऐसा घृणित होता है कि वहाँ जाते-जाते नये आदमी का दम घुटने लगता है। शब्दधारा अब वैज्ञानिक यंत्रों के वश में आ गई है। रेडियो,बेतार का तार शब्द लहरों का प्रत्यक्ष प्रमाण। मस्तिष्क में आने-जाने वाले विचारों के अब फोटो लिए जाने लगे हैं, जिससे यह पता चल जाता है कि अमुकआदमी किन विचारों को ग्रहण कर रहा हैं? है और कैसे विचार छोड़ रहा है? बादलों की तरह विचार-प्रवाह आकाश में माता रहता है और लोगों की आकर्षणशक्ति द्वारा खींचा व फेंका जा सकता है। यह विज्ञान बड़ा महत्त्वपूर्ण और विस्तृत है, इस छोटी पुस्तक में उसका वर्णन कठिन है।
मन के तीनों अंग-प्रवृत्त मानस, प्रबुद्ध मानस, आध्यात्मिक मानस भी अपने स्वतंत्रप्रवाह रखते हैं अर्थात् यों समझना चाहिए कि 'नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।' आत्मा को छोड़कर शेष संपूर्ण शारीरिक और मानसिक परमाणु गतिशील हैं। ये सब वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थानों को चलती रहतीहैं। जिस प्रकार शरीर के पुराने तत्त्व आगे बढ़ते और नये आते रहते हैं, उसी प्रकार मानसिक पदार्थों के बारे में भी समझना चाहिए। उस दिन आपकानिश्चय था कि आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा, आज विषय-भोगों से नहीं अघाते। उस दिन निश्चय था कि अमुक व्यक्ति की जान लेकर अपना बदला चुकाऊँगा, आज उनकेमित्र बने हुए हैं। उस दिन रो रहे थे कि किसी भी प्रकार धन कमाना चाहिए, आज सब कुछ कमाकर संन्यासी हो रहे हैं। ऐसे असंख्य परिवर्तन होते रहते हैं।क्यों? इसलिए कि पुराने विचार चले गए और नये उनके स्थान पर आ गए।
विश्व की दृश्य-अदृश्य सभी वस्तुओं की गतिशीलता की धारणा, अनुभूति और निष्ठा यहविश्वास करा सकती है कि संपूर्ण संसार एक है। एकता के आधार पर उसका निर्माण हुआ है। मेरी अपनी वस्तु कुछ भी नहीं है या संपूर्ण वस्तुएँ मेरीहैं। तेज बहती हुई नदी के बीच धार में आपको खड़ा कर दिया जाए और पूछा जाए कि पानी के कितने और कौन-से परमाणु आपके हैं, तब क्या उत्तर दोगे? विचारकरोगे कि पानी की धारा बराबर बह रही है। पानी के जो परमाणु इस समय मेरे शरीर को छू रहे हैं, पलक मारते-मारते बहुत दूर निकल जाएँगे। जलधारा बराबरमुझसे छूकर चलती जा रही है, तब या तो संपूर्ण जलधारा को अपनी बताऊँ या यह कहूँ कि मेरा कुछ भी नहीं है, यह विचार कर सकते हो।
संसार जीवन और शक्ति का समुद्र है। जीव इसमें होकर अपने विकास के लिए आगे को बढ़ता जाताहै और अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुएँ लेता और छोड़ता जाता है। प्रकृति मृतक नहीं है। जिसे हम भौतिक पदार्थ कहते हैं, उसके समस्त परमाणु जीवित हैं। वेसब शक्ति से उत्तेजित होकर लहलहा, चल, सोच और जी रहे हैं। इसी जीवित समुद्र की सत्ता के कारण हम सबकी गतिविधि चल रही हैं। एक ही तालाब की हमसब मछलियाँ हैं। विश्वव्यापी शक्ति, चेतना और जीवन के परमाणु विभिन्न अनूभूतियों को झंकृत कर रहे हैं।
उपर्युक्त अनुभूति आत्मा के उपकरणों और वस्त्रों के विस्तार के लिए काफी है। हमेंसोचना चाहिए कि केवल यह सब शरीर मेरे हैं, जिनमें एक ही चेतना ओत-प्रोत हो रही है। जिन भौतिक वस्तुओं तक आप अपनापन सीमित रख रहे हो, अब उससे बहुतआगे बढ़ना होगा और सोचना होगा कि 'इस विश्वसागर की इतनी बूंदें ही मेरी हैं, यह मानस भ्रम हैं। मैं इतना बड़ा वस्त्र पहने हुए हैं, जिसके अंचलमें समस्त संसार ढका हुआ है।' यही आत्मशरीर का विस्तार है।
इसका अनुभव उस श्रेणी पर ले पहुँचेगा, जिस पर पहुँचा हुआ मनुष्य योगी कहलाता है। गीताकहती है-
सर्व भूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मका सर्वत्र समदर्शनः।।
सर्वव्यापी अनंत चेतना में एकीभाव से स्थिति रूप योग से। युक्त हुए आत्मा वाला तथा सबको समभाव से देखने वालायोगी, आत्मा को संपूर्ण भूतों में और संपूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है।
अपने परिधान का विस्तार संपूर्ण जीवों के बाह्य स्वरूपों में आत्मीयता का अनुभव करता है।आत्माओं की आत्माओं में तो आत्मीयता है ही, ये सब आपस में परमात्म सत्ता द्वारा बँधे हुए हैं। अधिकारी आत्माएँ आपस में एक हैं। इस एकता के ईश्वरबिलकुल निकट हैं। यहाँ हम परमात्मा के दरबार में प्रवेश पाने योग्य और उनमें घुल-मिल जाने योग्य होते हैं, वह दशा अनिर्वचनीय है। इसी अनिर्वचनीयआनंद की चेतना में प्रवेश करना समाधि है और उनका निश्चित परिणाम आजादी, स्वतंत्रता, स्वराज्य, मुक्ति, मोक्ष होगा।
एकता का अनुभव करने का अभ्यास
ध्यानावस्थित होकर भौतिक जीवन-प्रवाह पर चित्त जमाओ। अनुभव करो कि समस्त ब्रह्मांडोंमें एक ही चेतना शक्ति लहलहा रही है, उसी के विकार भेद से पंचतत्त्व निर्मित हुए हैं। इंद्रियों द्वारा जो विभिन्न प्रकार के सुख-दुःख अनुभवहोते हैं, वह तत्त्वों की विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाएँ हैं, जो इंद्रियों के तारों से टकराकर विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार कीझंकारें उत्पन्न करती हैं। समस्त लोकों का मूल शक्ति तत्त्व एक ही है और उससे मैं भी उसी प्रकार गति प्राप्त कर रहा हूँ जैसे दूसरे। यह एक साझे काकंबल है, जिसमें लिपटे हुए हम सब बालक बैठे हैं। इस सचाई को अच्छी तरह कल्पना में लाओ, बुद्धि का ठीक-ठीक अनुभव करने, समझने और हृदय को स्पष्टतःअनुभव करने दो।
स्थूल भौतिक पदार्थों की एकता का अनुभव करने के बाद सूक्ष्म मानसिक तत्त्व की एकता कीकल्पना करो। वह भी भौतिक द्रव्य की भाँति एक ही तत्त्व है। आपका मन महामन की एक बूंद है। जो ज्ञान और विचार मस्तिष्क में भरे हुए हो, वह मूलतःसार्वभौम ज्ञान और विचारधारा के कुछ परमाणु हैं और उन्हें पुस्तकों द्वारा, गुरु-मुख द्वारा या ईथर-आकाश में बहने वाली धाराओं से प्राप्तकिया गया होता है। यह भी एक अखंड गतिमान शक्ति है और उसका उपयोग वैसे ही कर रहे हो, जैसे नदी में पड़ा हुआ कछुआ अविचल गति से बहते हुए जल-परमाणुओंमें से कुछ को पीता है और फिर उसी में मूत्ररूप में त्याग देता है। इस सत्य को भी बराबर हृदयंगम करो और अच्छी तरह मानस-पटल पर अंकित कर लो।
अपने शारीरिक और मानसिक वस्त्रों की भावना दृढ होते ही संसार आपका और आप संसार के होजाओगे। कोई वस्तु बिरानी मालूम पड़ेगी। यह सब मेरा है या मेरा कुछ भी नहीं, इन दोनों वाक्यों में तब आपको कुछ भी अंतर न मालूम पड़ेगा। वस्त्रोंसे ऊपर आत्मा को देखो-यह नित्य, अखंड, अक्षर, अमर, अपरिवर्तनशील और एकरस है। वह जड़, अविकसित, नीच प्राणियों, तारागणों, ग्रहों, समस्त ब्रह्मांडोंको प्रसन्नता और आत्मीयता की दृष्टि से देखता है। बिराना, घृणा करने योग्य, सताने के लायक या छाती से चिपटी रखने के लायक कोई पदार्थ वह नहींदेखता। अपने घर और पक्षियों के घोंसले के महत्त्व में उसे तनिक भी अंतर नहीं दीखता। ऐसी उच्च कक्षा का प्राप्त हो जाना केवल आध्यात्मिक उन्नति औरईश्वर के लिए ही नहीं, वरन् सांसारिक लाभ के लिए भी आवश्यक है। इस ऊँचे टीले पर खड़ा होकर आदमी संसार का सच्चा स्वरूप देख सकता है और यह जान सकताहै कि किस स्थिति में किससे, क्या बर्ताव करना चाहिए? उसे सद्गुणों का पुंज, उचित क्रिया, कुशलता और सदाचार सीखने नहीं पड़ते, वरन् केवल यहीचीजें उसके पास शेष रह जाती हैं। और वे बुरे स्वभाव न जाने कहाँ विलीन हो जाते हैं, जो जीवन को दुःखमय बनाए रहते हैं?
यहाँ पहुँचा हुआ स्थितप्रज्ञ देखता है कि सब अविनाशी आत्माएँ यद्यपि इस समय स्वतंत्र,तेजस्वरूप और गतिवान् प्रतीत होती हैं, तथापि उनकी मूलसत्ता एक ही है, विभिन्न घटों में एक ही आकाश भरा हुआ है और अनेक जलपात्रों में एक हीसूर्य का प्रतिबिंब झलक रहा है। यद्यपि बालक का शरीर पृथक् है, परंतु सका सारा भाग माता-पिता के अंश का ही बना है। आत्मा सत्य है, पर उसकी सत्यतापरमेश्वर है। विशुद्ध और मुक्त आत्मा परमात्मा है, अंत में आकर यहाँ एकता है। वहीं वह स्थित है, जिस पर खड़े होकर जीव कहता है-'सोऽहमस्मि' अर्थात्वह परमात्मा मैं हूँ और उसे अनुभूति हो जाती है कि संसार के संपूर्ण स्वरूपों के नीचे एक जीवन, एक बल, एक सत्ता, एक असलियत छिपी हुई है।
दीक्षितों को इस चेतना में जग जाने के लिए हम बार-बार अनुरोध करेंगे, क्योंकि मैं क्याहैं?' इस सत्यता का ज्ञान प्राप्त करना सच्चा ज्ञान है। जिसने सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसका जीवन प्रेम, दया, सहानुभूति, सत्य और उदारता सेपरिपूर्ण होना चाहिए! कोरी कल्पना या पोथी-पाठ से क्या लाभ हो सकता है? सच्ची सहानुभूति ही सच्चा ज्ञान है और सच्चे ज्ञान की कसौटी उसका जीवनव्यवहार में उतारना ही हो सकता है।
इस पाठ के मंत्र
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मेरी भौतिक वस्तुएँ महान् भौतिक तत्त्व की एक क्षणिक झाँकी हैं।
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मेरी मानसिक वस्तुएँ अविच्छिन्न मानस तत्त्व का एक खंड है।
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भौतिक और मानसिक तत्त्व निर्बाध गति से बह रहे हैं,
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इसलिए मेरी वस्तुओं का दायरा सीमित नहीं, समस्त ब्रह्मांडों की वस्तुएँ मेरी हैं।अविनाशी आत्मा परमात्मा का अंश है और अपने विशुद्ध रूप में वह परमात्मा ही है।
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मैं विशुद्ध हो गया हूँ, परमात्मा और आत्मा की एकता का अनुभव कर रहा हूँ।
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'सोऽहमस्मि'- मैं वह हूँ।
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