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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4263
आईएसबीएन :00000

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मरने का स्वरूप कैसा होता है....

मृत्यु की तैयारी


यह निर्विवाद है कि जो पैदा हुआ है, उसे मरना पड़ेगा। हमें भी मृत्यु की गोद में जाना है। उसमहान यात्रा की तैयारी यदि अभी से की जाए, तो इस समय जो भय और दु:ख होता है, वह न होगा। "मृत्यु के अभी बहुत दिन हैं, या तब की बात तब देखीजाएगी'', ऐसा सोचकर उस महत्त्वपूर्ण समस्या को आगे के लिए टालते जाना अंत में बड़ा दुखदायक होता है। मनुष्य जीवन एक महान उद्देश्य के लिए मिलता है,लाखों-करोड़ों योनियाँ पार करके बड़े समय और श्रम के बाद हमने उसे पाया है। ऐसे अमूल्य रत्न का सदुपयोग न करके यों ही व्यर्थ आँवा देना, भला इससेबढ़कर और क्या मूर्खता हो सकती है।

जीवन का महान उद्देश्य है कि हम ईश्वर का साक्षात्कार करें, परमपद को पाएँ। किंतु कितनेहैं, जो इस ओर ध्यान देते हैं ? किसी को तृष्णा से छुटकारा नहीं, कोई इंद्रिय भोगों में मस्त है, कोई अहंकार में इठा जा रहा है, तो कोई भ्रमजंजाल में ही मस्त है। इन विडंबनाओं को उलझाते-सुलझाते यह स्वर्ण अवसर बड़ी तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है, किंतु हमारा भूसी फटकने काकार्यक्रम उसी गति से चलता जाता है। मृत्यु सिर के ऊपर नाच रही है, पल का भरोसा नहीं, न जाने किस घड़ी गला दबा दे, आज क्या-क्या मनसूबे बाँध रहेहैं, हो सकता है कि कल यह सब धरेके-धरे रह जाएँ और हमारा डेरा किसी दूसरे देश में ही जा गड़े। ऐसी विषम वेला में अचेत रहना बड़े दुर्भाग्य की बातहै। पाठको! अब तक भूले पर अब मत भूलो! आँखें खोलो, सचेत होओ, जीवन क्या है, हम क्या हैं, संसार क्या है, हमारा उद्देश्य क्या है? इन प्रश्नों कोउतना ही महत्त्वपूर्ण समझो, जितना कि रोटी को समझते हो। निरंतर इन प्रश्नों पर विचार करने से आप उस मार्ग पर चल पड़ेंगे, जिसे मृत्यु कीतैयारी कहते हैं। जो काम कल करना है, उसका बंधन आज से सोचना होगा, आपकी मृत्यु का समय निर्धारित नहीं है इसलिए उसकी तैयारी आज से, इसी क्षण सेआरंभ करनी चाहिए।

अनासक्ति कर्मयोग के तत्त्वज्ञान को समझकर हृदयंगम कर लेना मृत्यु की सबसे उत्तमतैयारी है। माया के बंधन हमें इसलिए बाँध देते हैं कि हम उनमें लिपट जाते हैं, तन्मय हो जाते हैं। आप नित्य 'मैं क्या हूँ?' पुस्तक में बताए हुएसाधनों की क्रिया कीजिए और मन में यह धारणा दृढ़ करके प्रतिक्षण प्रयत्न करते रहिए कि “मैं अविनाशी, निर्विकार सच्चिदानंद आत्मा हूँ। संसार एकक्रीड़ाक्षेत्र है, मेरी संपत्ति नहीं'', यह विश्वास जितने-जितने सुदृढ़ होते जाते हैं, मनुष्य के ज्ञान-नेत्र उतने ही खुलते जाते हैं। स्त्री,पुत्र, कुटुंब, परिवार का बड़े प्रेमपूर्वक पालन कीजिए, उन्हें अपनी संपत्ति नहीं, पूजा का आधार बनाइए। संपत्ति उपार्जन कीजिए पर किसीसदुद्देश्य से, न कि शहद की मक्खियों की तरह कष्ट सहने के लिए। सब काम उसी प्रकार कीजिए जैसे संसारी लोग करते हैं, पर अपना दृष्टिकोण दूसरा रखिए।गिरह बाँध लीजिए, बार-बार हृदयंगम कर लीजिए कि “संसार की वस्तुएँ आपकी वस्तु नहीं हैं। दूसरी आत्माएँ आपकी गुलाम नहीं हैं। या तो सब कुछ आपका हैया कुछ भी आपको नहीं है। या तो मैं कहिए, या तू कहिए। 'मेरा' 'तेरा दोनों एक साथ नहीं रह सकते। बस, माया की सारी गाँठ इतनी ही है। योग का साराज्ञान इसी गाँठ को सुलझाने के लिए है।'' पाप कर्म हम इसलिए करते हैं कि हमारा 'अहंभाव' बहुत ही संकुचित होता है। आप अपनी महानता को विस्तृतकीजिए, दूसरों को अपना ही समझिए, पराया कोई नहीं सब अपने ही हैं। यह अपनापन ऊँचे दर्जे का होना चाहिए, जैसा माता का अबोध पुत्र के प्रति होताहै। वैसा नहीं जैसा चोर का दूसरों की तिजोरी पर होता है।

सांसारिक जीवों में प्रभु की मूर्ति विराजमान देखिए और उनकी पूजा के लिए अपना हृदय बिछादीजिए। स्त्री को आप दासी नहीं देवी मानिए, वैसी, जैसी मंदिरों में विराजमान रहती है। पुत्र को आप वैसा ही महान समझिए जैसा गणेशजी को मानतेहैं। सांसारिक व्यवहार के अनुसार उनके प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पालन कीजिए। स्त्री की आवश्यकताएँ पूरी कीजिए और पुत्र की शिक्षा-दीक्षा मेंदत्तचित्त रहिए, पर खबरदार ! होशियार !! सावधान !!! उन्हें अपनी जायदाद न मानाना। नहीं तो बुरी तरह मारे जाओगे, बड़ा भारी धोखा खाओगे और ऐसी मुसीबतमें फंस जाओगे कि बस, मामला सुलझाने से नहीं सुलझेगा। संसार के समस्त दुःखों का बाप है-'मोह'। जब आप कहते हैं कि मेरी जायदाद इतनी है तोप्रकृति गाल पर तमाचा मारती है और कहती है कि मूर्ख! तू तीन दिन से आकर इस पर अधिकार जमाता है, यह प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है। सोना-चाँदी तेरानहीं है, यह प्रकृति का है, जिसे तू स्त्री-समझता है, यह असंख्यों बार तेरी माँ हो चुकी होगी। आत्माएँ स्वतंत्र हैं, कोई किसी का गुलाम नहीं।अज्ञानी मनुष्य कहता है-''यह तो सब मेरा है, इसे तो अपने पास रखूँगा।'' तत्त्वज्ञान की आत्मा चिल्लाती है-''अज्ञानी बालको! विश्व का कण-कण बड़ीद्रुतगति से नाच रहा है। कोई वस्तु स्थिर नहीं है, पानी बह रहा है, हवा चल रही है, पृथ्वी दौड़ रही है, तेरे शरीर में से पुराने कण भाग रहे हैं औरनए आ रहे हैं, तू एक तिनके पर भी अधिकार नहीं कर सकता। इस प्रकार बहती हुई नदी का आनंद देखना है तो देख, रोकने खड़ा होगा तो लात मारकर एक ओर हटादिया जाएगा।''

दुःख, विपत्ति, व्यथा और पीड़ा का कारण अज्ञान है। मृत्यु के समय दुःख प्राप्त करने का,नरक की ज्वाला में जलने का, भूतप्रेतों में भटकने का, जन्म-मरण की फाँसी में लटकने का एक ही कारण है-अज्ञान, केवल अज्ञान। हे पाठको! अंधकार सेप्रकाश की ओर चलो, मृत्यु से अमृत की ओर चलो। ईश्वर प्रेम रूप है, प्रेम की उपासना करो। स्वर्ग पैसे से नहीं खरीदा जा सकता, खुशामद से मुक्ति नहींमिल सकती, मजहबी कर्मकांड आत्मा का कल्याण नहीं कर सकते। दूसरों की ओर मत ताकिए कि कोई हमें पार कर देगा, क्योंकि वास्तव में किसी भी दूसरे में ऐसीशक्ति नहीं है। “उद्धरेत आत्मनात्मानम्'' आत्मा का आत्मा से ही उद्धार कीजिए, अपना कल्याण आप ही करिए। अपने हृदय को विशाल, उदार, उच्च और महान बना दीजिए।अहंभाव का प्रसार करके सबको आत्मदृष्टि से देखिए, अपनी अंतरात्मा को प्रेम में सराबोर कर लीजिए और उस प्रेम का अमृत समस्त संसार पर बिना भेदभाव केछिड़किए। अपना कर्तव्य धर्मनिष्ठापूर्वक पालन कीजिए, व्यवहार कर्मों में रत्तीभर भी शिथिलता मत आने दीजिए, पर रहिए ‘कमल पत्रवत्'। राजा जनक की तरह कर्मयोगी बनिए, अनासक्त रहिए, सर्वत्र आत्मीयता की दृष्टि सेदेखिए, अपनी महानता का अनुभव कीजिए और गर्व के साथ सिर ऊँचा उठाकर कहिए-'सोऽहम्', वह मैं हूँ।

आत्मज्ञान द्वारा आप परलोक को परिपूर्ण आनंदमय बना सकते हैं, मृत्यु फिर आपको दु:ख नदेगी, वरन एक खेल प्रतीत होगी, आप ऊँचे उठेंगे और महान उद्देश्य को प्राप्त कर लेंगे। मृत्यु की तैयारी के लिए आज से ही आत्मा के विशुद्धस्वरूप का चिंतन आरंभ कर देना चाहिए। अपनी महानता का ज्ञान होते ही मायामोह के सारे बंधन टूटकर गिर पड़ेंगे और आनंददायक दृष्टि प्राप्त होजाएगी। अपने तुच्छ और स्वार्थपूर्ण विचार को त्यागकर अपनी महान आत्मा के दरवाजे पर सिंहनाद कीजिए-'सोऽहम्', वह मैं हूँ।

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