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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4267
आईएसबीएन :00000

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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक


ऋषियों ने संन्यास आश्रम की व्यवस्था करके घर छोड़ने की बात भी कही थी, लेकिन जीवन के शेष चौथे भाग में, वृद्धावस्था में वह भी मुक्ति के लिए नहीं, अपितु जीवन भर अर्जित ज्ञान से समाज को लाभान्वित करने, परमार्थ का जीवन बिताने के लिए। सांसारिक दृष्टि से भी धर्म-अर्थ-काम के बाद फिर मोक्ष का नंबर आता है। खेद होता है जब लोग विभिन्न परिस्थितियों में जीवन के निखरे बिना, संस्कारित हुए बिना अपने स्वाभाविक जीवन पथ को छोड़कर संसार को छोड़ते हैं, अपने कर्तव्य-उत्तरदायित्वों से मुँह मोड़ते हैं। चूँकि उनकी वृत्तियाँ परिमार्जित तो होती नहीं, इसलिए आगे चलकर अनेकों द्विविधाओं, द्वंद्वों में पड़कर वे अशांति और असंतोष का जीवन बिताते हैं। अपने आपको कोसने लगते हैं। संसार में क्षण-भंगुरता के पाठ को पढ़कर न जाने कितने होनहार व्यक्तियों का जीवन नष्ट हो जाता है। अपने लिए या समाज के लिए वे जो कोई महत्त्वपूर्ण कार्य करते वह तो होता ही नहीं, उल्टे ऐसे लोग समाज पर भार-स्वरूप बनकर रहने लगते हैं, क्योंकि शरीर रहते कोई कितना ही त्यागी बने, उसे भोजन-वस्त्र आदि की आवश्यकता तो होती है।

वस्तुतः 'मुक्ति' जीवन के सहज विश्वास क्रम की वह अवस्था है, जहाँ मानवीय चेतना सर्वव्यापी विश्व-चेतना से युक्त होकर स्पंदित होने लगती है और उसमें से परमार्थ कार्यों का मधुर संगीत गूंजने लगता है। तब व्यक्ति अपने सुख, अपने लाभ, अपनी मुक्ति को भूलकर सबके कल्याण के लिए लग जाता है। इस ऊँची मंजिल तक सांसारिक परिस्थितियों में साधनामय जीवन बिताने से ही पहुँचा जा सकता है। जिस तरह बिना सीढ़ियों के छत पर नहीं पहुँचा जा सकता, उसी तरह संसार में अपने कर्तव्य, उत्तरदायित्वों को पूर्ण किये बिना जीवन मुक्ति की मंजिल तक नहीं पहुँचा जा सकता। ऋषियों ने जीवन के सहज पथ का अनुगमन करके पारिवारिक जीवन में रहकर ही अपूर्व आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त किया था—ब्रह्म का साक्षात्कार भी।

जब तक शरीर है संसार में रहना है। भूख, प्यास महसूस होती है तब तक इस संसार को नाशवान्, क्षण-भंगुर कहकर लोकजीवन की उपेक्षा करना बहुत बड़ी भूल है; अपने आपको धोखा देना है। ऐसी स्थिति में मुक्ति असंभव है। अपने वैयक्तिक, सामाजिक, सांसारिक उत्तरदायित्वों को त्यागकर जीवन मुक्ति की चाह रखने वाले व्यक्ति को इस संबंध में निराश ही रहना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं। अध्यात्म शास्त्र के प्रणेता ऋषियों ने तो मनुष्य को उत्तरोत्तर कर्तव्ययुक्त जीवन बिताने का निर्देश दिया था। चार आश्रमों में प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम में विद्याध्ययन, गुरु सेवा, आश्रम के कार्य, फिर इससे बढ़कर गृहस्थ में परिवार के भरण-पोषण का भार, समाज के कर्तव्यों का उत्तरदायित्व सौंपा था। क्रमशः वानप्रस्थ और संन्यास लोक-शिक्षण, जन-सेवा के लिए निश्चित थे। इस व्यवस्था के अनुसार, एक क्षण भी मनुष्य उत्तरदायित्वहीन जीवन नहीं बिता सकता। कैसा था उनका अध्यात्म? जनक राजा होकर भी जीवन मुक्त थे। हरिश्चंद्र सत्यवादी-राम अवतारी। कृष्ण भोगी होकर भी योगी थे। क्रोधी स्वभाव होने पर भी दुर्वासा महर्षि थे, श्रीकृष्ण के गुरु।

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    अनुक्रम

  1. भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
  2. क्या यही हमारी राय है?
  3. भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
  4. भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
  5. अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
  6. अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
  7. अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
  8. आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
  9. अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
  10. अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
  11. हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
  12. आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
  13. लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
  14. अध्यात्म ही है सब कुछ
  15. आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
  16. लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
  17. अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
  18. आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
  19. आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
  20. आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
  21. आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
  22. आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
  23. अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
  24. आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
  25. अपने अतीत को भूलिए नहीं
  26. महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न

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