आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाएश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक
एक समय था, जब भारतवर्ष में अध्यात्म की इस साधना पद्धति का पर्याप्त प्रचलन रहा। देश का ऋषि वर्ग उसी समय की देन है। जो-जो पुरुषार्थी इस सूक्ष्म साधना को पूरा करते गये, वे ऋषियों की श्रेणी में आते गये। यद्यपि आज इस साधना के सर्वथा उपयुक्त न तो साधन हैं और न समय, तथापि यह परंपरा पूरी तरह से उठ नहीं गई है। अब भी यदा-कदा, यत्र-तत्र इस साधना के सिद्ध पुरुष देखे-सुने जाते हैं, किंतु इनकी संख्या बहुत विरल है। वैसे योग का स्वाँग दिखाकर और सिद्धों का वेश बनाकर पैसा कमाने वाले रंगे सियार तो बहुत देखे जाते हैं। किंतु उच्चस्तरीय अध्यात्म-विद्या की पूर्वोक्त वैज्ञानिक पद्धति से सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने वाले सच्चे योगी नहीं के बराबर ही हैं। जिन्होंने साहसिक तपस्या के बल पर ही आत्मा की सूक्ष्म शक्तियों को जाग्रत् कर प्रयोग योग्य बना लिया होता है, वे संसार के मोह जाल से दूर प्रायः अप्रत्यक्ष ही रहा करते हैं। शीघ्र किसी को प्राप्त नहीं होते और पुण्य अथवा सौभाग्य से जिसको मिल जाते हैं, उसका जीवन उनके दर्शन मात्र से ही धन्य हो जाता है।
इतनी बड़ी तपस्या को छोटी-मोटी साधना अथवा थोड़े से कर्मकांड द्वारा पूरी कर लेने की आशा करने वाले बाल-बुद्धि के व्यक्ति ही माने जायेंगे। यह उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधना शीघ्र पूरी नहीं की जा सकती। स्तर के अनुरूप ही पर्याप्त समय, धैर्य, पुरुषार्थ एवं शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति धीरे-धीरे अपने बाह्य जीवन के परिष्कार से प्रारंभ होती है। बाह्य की उपेक्षा कर सहसा ही आत्मिक स्तर पर साधना में लग जाना अक्रमिक है, जिसमें सफलता की आशा नहीं की जा सकती।
आज हम सब जिस स्थिति में चल रहे हैं, उसमें जीवन-निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना ही संभव है। इस स्तर से शुरू किये बिना काम भी तो नहीं चल सकता। बाह्य जीवन को यथास्थिति में छोड़कर आत्मिक स्तर पर पहुँच सकना भी तो संभव नहीं है। अस्तु, हमें उस अध्यात्म को लेकर ही चलना होगा, जिसे जीवन-जीने की कला कहा गया है।
जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से संबंधित है। हमें चाहिए कि हम अपने में गुणों की वृद्धि करते रहें। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण हैं, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। व्यसन, अव्यवस्था, अस्त-व्यस्तता व आलस्य-प्रमाद जीवन-कला के विरोधी दुर्गुण हैं। इनका त्याग करने से जीवन-कला को बल प्राप्त होता है। हमारे कर्म भी गुणों के अनुसार ही होने चाहिए। गुण और कर्मों में परस्पर विरोध रहने से जीवन में न शक्ति का आगमन होता है और न प्रगतिशीलता का समावेश। हममें सत्य-निष्ठा का गुण तो हो पर इसे कर्मों में मूर्तिमान् करने का साहस न हो तो कर्म तो जीवन-कला के प्रतिकूल होते ही हैं, वह गुण भी मिथ्या हो जाता है।
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- भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
- क्या यही हमारी राय है?
- भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
- भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
- अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
- अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
- अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
- आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
- अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
- अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
- हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
- आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
- लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
- अध्यात्म ही है सब कुछ
- आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
- लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
- अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
- आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
- आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
- आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
- आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
- आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
- अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
- आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
- अपने अतीत को भूलिए नहीं
- महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न