आचार्य श्रीराम शर्मा >> सफलता के तीन साधन सफलता के तीन साधनश्रीराम शर्मा आचार्य
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सफल होने के तीन साधनों का वर्णन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
सफलता के तीन कारण होते हैं। (1) परिस्थिति (2) प्रयत्न (3) भाग्य। बहुत
बार ऐसी परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं जिनके कारण स्वल्प योग्यता वाले
मनुष्य बिना अधिक प्रयत्न के बड़े-बड़े लाभ प्राप्त करते हैं। बहुत बार
अपने बाहुबल से कठिन परिस्थियों को चीरता हुआ मनुष्य आगे बढ़ता है और लघु
से महान बन जाता है। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि न तो कोई उत्तम
परिस्थिति ही सामने है, न कोई योजना, न कोई योग्यता, न कोई प्रयत्न पर
अनायास ही कोई आकस्मिक अवसर आया जिससे मनुष्य कुछ से कुछ बन गया। इन तीन
कारणों से ही लोगों को सफलताएँ मिलती हैं।
पर इन तीन में से दो को कारण तो कह सकते हैं साधन नहीं। जन्मजात कारणों से या किसी विशेष अवसर पर जो विशेष परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, उनका तथा भाग्य के कारण अकस्मात टूट पड़ने वाली सफलताओं के बारे में कोई मार्ग मनुष्य के हाथ में नहीं है।
हम प्रयत्न को अपनाकर ही अपने बाहुबल से सफलता प्राप्त करते हैं। यही एक साधन हमारे हाथ में है। इस साधन के तीन भागों में बाँट दिया है- (1) आकांक्षा (2) कष्ट सहिष्णुता (3) परिश्रम शीलता। इन तीन साधनों को अपनाकर भुजबल से बड़ी सफलताएँ लोगों ने प्राप्त की हैं। इसी राजमार्ग पर पाठकों को अग्रसर करने का इस पुस्तक में प्रयत्न किया गया है। जो इन तीन साधनों को अपना लेंगे, वे अपने अभीष्ट उद्देश्य की ओर दिन-दिन आगे बढेंगे ऐसा हमारा सुनिश्चि विश्वास है।
पर इन तीन में से दो को कारण तो कह सकते हैं साधन नहीं। जन्मजात कारणों से या किसी विशेष अवसर पर जो विशेष परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, उनका तथा भाग्य के कारण अकस्मात टूट पड़ने वाली सफलताओं के बारे में कोई मार्ग मनुष्य के हाथ में नहीं है।
हम प्रयत्न को अपनाकर ही अपने बाहुबल से सफलता प्राप्त करते हैं। यही एक साधन हमारे हाथ में है। इस साधन के तीन भागों में बाँट दिया है- (1) आकांक्षा (2) कष्ट सहिष्णुता (3) परिश्रम शीलता। इन तीन साधनों को अपनाकर भुजबल से बड़ी सफलताएँ लोगों ने प्राप्त की हैं। इसी राजमार्ग पर पाठकों को अग्रसर करने का इस पुस्तक में प्रयत्न किया गया है। जो इन तीन साधनों को अपना लेंगे, वे अपने अभीष्ट उद्देश्य की ओर दिन-दिन आगे बढेंगे ऐसा हमारा सुनिश्चि विश्वास है।
श्रीराम शर्मा आचार्य
सफलता के तीन साधन
(1) आकांक्षा
मनुष्य-मनुष्य के बीच में आश्चर्यजनक अंतर है। एक मनुष्य उद्भट विद्वान है
दूसरा फूटा अक्षर भी नहीं जानता, एक राजा है तो दूसरा रंक है, एक धनकुवेर
है तो दूसरे दाने-दाने को मुहताज है, एक महात्मा है तो दूसरा नरक का कीड़ा
है, एक संसार का उज्ज्वल रत्न समझा जाने वाला महापुरुष है तो दूसरे के लिए
जीवन यात्रा भी चलाना भार हो रही है, एक ऐश आराम के साथ स्वर्ग का सुख लूट
रहा है तो दूसरा कष्ट और अभावों की चक्की में पिसा जा रहा है, एक के
होंठों पर हँसी नाचती रहती है तो दूसरे को वेदना और पीड़ा से छुटकारा
नहीं। एक निरंतर आनंद उल्लास और उन्नति की ओर बढ़ता चला जा रहा है तो
दूसरे का प्रत्येक कदम दुःख, अंधकार, पतन और अवनति की ओर बढ़ रहा है। ऐसी
आश्चर्यजनक विषमता मनुष्य के बीच में चारों ओर फैली हुई हम देखते हैं।
साधारणतः हर जाति के जीवों को करीब एक-सी स्थिति परमात्मा ने प्रदान की है। रीछ, सिंह, व्याघ्र आदि शिकारी पशु, घोड़े, हाथी, गधे, खच्चर, ऊँट आदि वाहन-पशु, गाय, भैंस, बकरी, भेड़ आदि दूध देने वाले पशु, हिरन, श्रृगाल, लोमड़ी, बंदर, लंगूर, सुअर आदि वनों में विचरण करने वाले पशु आपस में करीब एक-सी स्थिति के होते हैं। यों थोड़ा बहुत रंग-रूप का, सबलता-निर्बलता का अंतर तो सब में पाया जाता है, पर इतना अंतर नहीं होता जितना मनुष्य, मनुष्य के बीच में है। एक रीछ दूसरे रीछ से इतना ऊँचा-नीचा नहीं होता, जितना मनुष्य आपस में होता है। बकरी-बकरी में, हाथी-हाथी में, गधे-गधे में, ऊँट-ऊँट में इतना अंतर नहीं है, जितना कि मनुष्यों में होता है। पक्षियों को लीजिए, कबूतर, मोर, तोता, मैंना, कोयल, कौआ, चील बतख, अपनी जाति में करीब एक-सी स्थिति के हैं। मेंढक, मछली, चूहा, नेवला, सर्प, छिपकली तथा मक्खी, मच्छर, तितली, कीट –पतंग आदि भी अपनी-अपनी जाति में बहुत अधिक नीचे-ऊँचे नहीं ठहरते। प्राकृतिक सौंदर्य को कायम रखने के लिए जितनी भिन्नता की आवश्यकता है, उसके सिवाय किसी जाति के जीव-जंतुओं में परमात्मा ने अधिक विषमता नहीं रखी है।
इस दृष्टि से मनुष्य-मनुष्य के बीच में भी बहुत अधिक अंतर नहीं है। हर एक मनुष्य के शरीर में प्रायः एक से अवयव हैं। यदि बाहर के चमड़े को उधेड़ कर हजारों मनुष्यों को देखा जाए तो कोई विशेष अंतर न मिलेगा। दूसरे प्रकार से भी देखिए-आहार में, निद्रा के घंटों में, काम करने की आत्मशक्ति में, इंद्रियों की अभिरुचि में, करीब-करीब सभी मनुष्य समान हैं। समान इसलिए हैं कि न्यायकारी परमपिता परमात्मा ने लगभग एक समान स्थिति सब को दे दी है। ठीक भी है, वह किसी को कम किसी को अधिक उपहार देकर स्वयं पक्षपाती एवं अन्यायी क्यों बने ? वस्तुतः मनुष्य को ईश्वर के यहाँ से एक समान शारीरिक और मानसिक स्थितियाँ प्राप्त हुई हैं। माता के गर्भ से उत्पन्न होने के उपरांत एक शिशु की शारीरिक और मानसिक स्थिति दूसरे शिशुओं के समान ही होती है, तोल में, लंबाई-चौड़ाई में, ज्ञान में, चेष्टा में रुचि, सामर्थ्य में प्रायः सभी बालक एक समान होते हैं, फिर जो आश्चर्यजनक असमानता मनुष्य जाति में दिखाई पड़ती है, यह कहाँ से आती है ? किस प्रकार उत्पन्न होती है ? कौन उसे पैदा करता है ? यह प्रश्न विचारणीय है।
इस प्रश्न पर अध्यात्म तत्त्व के आचार्यों ने बहुत गंभीर मनन और चिंतन किया है। बहुत खोज के पश्चात वे एक निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। उन्होंने बताया है कि ‘आकांक्षा’ ही वह तत्त्व है जिसके द्वारा इस संसार में नाना प्रकार की संपदा, विभूतियाँ, सामर्थ्य और योग्यताएँ प्राप्त होती हैं। ‘‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’’ सूत्र में सिद्धि प्राप्ति का सर्वप्रथम आधार जिज्ञासा को माना है। यदि जिज्ञासा न हो तो आगे को तनिक भी प्रगति नहीं हो सकती। इस संसार में जिस किसी ने जो कुछ प्राप्त किया है, वह इच्छा शक्ति के, जिज्ञासा के, आकांक्षा के आधार पर प्राप्त किया है। रामायण कहती है –
साधारणतः हर जाति के जीवों को करीब एक-सी स्थिति परमात्मा ने प्रदान की है। रीछ, सिंह, व्याघ्र आदि शिकारी पशु, घोड़े, हाथी, गधे, खच्चर, ऊँट आदि वाहन-पशु, गाय, भैंस, बकरी, भेड़ आदि दूध देने वाले पशु, हिरन, श्रृगाल, लोमड़ी, बंदर, लंगूर, सुअर आदि वनों में विचरण करने वाले पशु आपस में करीब एक-सी स्थिति के होते हैं। यों थोड़ा बहुत रंग-रूप का, सबलता-निर्बलता का अंतर तो सब में पाया जाता है, पर इतना अंतर नहीं होता जितना मनुष्य, मनुष्य के बीच में है। एक रीछ दूसरे रीछ से इतना ऊँचा-नीचा नहीं होता, जितना मनुष्य आपस में होता है। बकरी-बकरी में, हाथी-हाथी में, गधे-गधे में, ऊँट-ऊँट में इतना अंतर नहीं है, जितना कि मनुष्यों में होता है। पक्षियों को लीजिए, कबूतर, मोर, तोता, मैंना, कोयल, कौआ, चील बतख, अपनी जाति में करीब एक-सी स्थिति के हैं। मेंढक, मछली, चूहा, नेवला, सर्प, छिपकली तथा मक्खी, मच्छर, तितली, कीट –पतंग आदि भी अपनी-अपनी जाति में बहुत अधिक नीचे-ऊँचे नहीं ठहरते। प्राकृतिक सौंदर्य को कायम रखने के लिए जितनी भिन्नता की आवश्यकता है, उसके सिवाय किसी जाति के जीव-जंतुओं में परमात्मा ने अधिक विषमता नहीं रखी है।
इस दृष्टि से मनुष्य-मनुष्य के बीच में भी बहुत अधिक अंतर नहीं है। हर एक मनुष्य के शरीर में प्रायः एक से अवयव हैं। यदि बाहर के चमड़े को उधेड़ कर हजारों मनुष्यों को देखा जाए तो कोई विशेष अंतर न मिलेगा। दूसरे प्रकार से भी देखिए-आहार में, निद्रा के घंटों में, काम करने की आत्मशक्ति में, इंद्रियों की अभिरुचि में, करीब-करीब सभी मनुष्य समान हैं। समान इसलिए हैं कि न्यायकारी परमपिता परमात्मा ने लगभग एक समान स्थिति सब को दे दी है। ठीक भी है, वह किसी को कम किसी को अधिक उपहार देकर स्वयं पक्षपाती एवं अन्यायी क्यों बने ? वस्तुतः मनुष्य को ईश्वर के यहाँ से एक समान शारीरिक और मानसिक स्थितियाँ प्राप्त हुई हैं। माता के गर्भ से उत्पन्न होने के उपरांत एक शिशु की शारीरिक और मानसिक स्थिति दूसरे शिशुओं के समान ही होती है, तोल में, लंबाई-चौड़ाई में, ज्ञान में, चेष्टा में रुचि, सामर्थ्य में प्रायः सभी बालक एक समान होते हैं, फिर जो आश्चर्यजनक असमानता मनुष्य जाति में दिखाई पड़ती है, यह कहाँ से आती है ? किस प्रकार उत्पन्न होती है ? कौन उसे पैदा करता है ? यह प्रश्न विचारणीय है।
इस प्रश्न पर अध्यात्म तत्त्व के आचार्यों ने बहुत गंभीर मनन और चिंतन किया है। बहुत खोज के पश्चात वे एक निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। उन्होंने बताया है कि ‘आकांक्षा’ ही वह तत्त्व है जिसके द्वारा इस संसार में नाना प्रकार की संपदा, विभूतियाँ, सामर्थ्य और योग्यताएँ प्राप्त होती हैं। ‘‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’’ सूत्र में सिद्धि प्राप्ति का सर्वप्रथम आधार जिज्ञासा को माना है। यदि जिज्ञासा न हो तो आगे को तनिक भी प्रगति नहीं हो सकती। इस संसार में जिस किसी ने जो कुछ प्राप्त किया है, वह इच्छा शक्ति के, जिज्ञासा के, आकांक्षा के आधार पर प्राप्त किया है। रामायण कहती है –
जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू।
सो तेहि मिलत न कछु संदेहू।।
सो तेहि मिलत न कछु संदेहू।।
यह सच्चा स्नेह ही वह तत्त्व है, जिसके कारण किसी भी वस्तु के प्राप्त
होने में संदेह नहीं रहता। गीता में कई स्थानों पर भगवान ने कहा है कि
‘‘अनन्य भाव से चिंतन करने वाले को मैं उसके अभीष्ट
विषय में
सफलता प्रदान करता हूँ।’’
मनुष्य जिस प्रकार की इच्छा करता है, वैसी ही परिस्थितियाँ उसके निकट एकत्रित होने लगती हैं। इच्छा एक प्रकार की चुंबकीय शक्ति है, जिसके आकर्षण से अनुकूल परिस्थितियाँ खिंची चली आती हैं। जहाँ गड्ढा होता है वहाँ चारों ओर से वर्षा का पानी सिमट आता है और वह गड्ढा भर जाता है, किंतु जहाँ ऊँचा टीला है वहाँ भारी वर्षा होने पर भी पानी नहीं ठहरता। इच्छा एक प्रकार का गड्ढा है, जहाँ सब ओर से अनुकूल स्थितियाँ खिंच-खिंच कर एकत्रित होने लगती हैं। जहाँ इच्छा नहीं वहाँ कितने अनुकूल साधन मौजूद हों, पर कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं होती।
देखा गया है कि अमीरों के लड़के अक्सर नालायक निकलते हैं और गरीबों के लड़के बड़ी-बड़ी उन्नतियाँ कर जाते हैं। संसार के इतिहास को पलटते जाइए, अधिकांश महापुरुष गरीबों के धर में पैदा हुए व्यक्ति ही मिलेंगे। कारण यह है कि ऐश-आराम की काफी सामग्री सुगमतापूर्वक मिल जाने के कारण उनकी रुचि सुखभोग में लग जाती है। किसी दिशा में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा उन्हें नहीं होती। अभिलाषा के बिना पौरुष जागृत नहीं होता और पुरुषार्थ के बिना कोई महत्त्वपूर्ण सफलता कठिन है। गरीबों के लड़के अभावग्रस्त स्थिति में पैदा होते हैं, अपनी हीनता और दूसरों की उन्नति देखकर उनके अन्तःकरण में एक आघात लगता है, इस आघात के कारण उनमें एक हलचल और बेचैनी उत्पन्न होती है, जिसे शांत करने के लिए वे उन्नत अवस्था में पहुँचने की आकांक्षा रखते हैं। यह आकांक्षा ही उन्हें उस मार्ग पर ले दौड़ती है। जिस पर चलते हुए महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त हुआ करता हैं।
साधन-सुविधा और संपन्नता की दृष्टि से अमीरों के लड़के अच्छी स्थिति में होते हैं। पैसा एवं जानकार व्यक्तियों का सहयोग उनके सामने प्रचुर मात्रा में मौजूद रहता है, जिसके द्वारा यदि वे चाहें तो बड़ी शीघ्र, बड़ा आसानी से किसी भी दिशा में अच्छी सफलता प्राप्त कर सकते हैं। उनके लिए उन्नति का मार्ग बहुत ही सरल एवं प्रशस्त है, फिर भी अधिकांश अमीरों के लड़के फिसड्डी और नालायक निकलते हैं। इसका कारण यह है कि लाड़-प्यार और ऐश-आराम के वातावरण में उन्हें कोई अभाव अनुभव नहीं होता और न आकांक्षा जागृत होती है। जिस कमी के कारण अमीरों के लड़के उन्नति से वंचित रह जाते हैं वह आकांक्षा की कमी है। यह कमी गरीबों के घरों में नहीं होती। इसीलिए साधन और सुविधाओं का पूर्ण अभाव रहते हुए भी निर्धनों के घर में उत्पन्न बालक विभिन्न दिशाओं में आशातीत उन्नति कर जाते हैं और महापुरुषों के बीच अपना स्थान बनाते हैं।
मनुष्य जिस प्रकार की इच्छा करता है, वैसी ही परिस्थितियाँ उसके निकट एकत्रित होने लगती हैं। इच्छा एक प्रकार की चुंबकीय शक्ति है, जिसके आकर्षण से अनुकूल परिस्थितियाँ खिंची चली आती हैं। जहाँ गड्ढा होता है वहाँ चारों ओर से वर्षा का पानी सिमट आता है और वह गड्ढा भर जाता है, किंतु जहाँ ऊँचा टीला है वहाँ भारी वर्षा होने पर भी पानी नहीं ठहरता। इच्छा एक प्रकार का गड्ढा है, जहाँ सब ओर से अनुकूल स्थितियाँ खिंच-खिंच कर एकत्रित होने लगती हैं। जहाँ इच्छा नहीं वहाँ कितने अनुकूल साधन मौजूद हों, पर कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं होती।
देखा गया है कि अमीरों के लड़के अक्सर नालायक निकलते हैं और गरीबों के लड़के बड़ी-बड़ी उन्नतियाँ कर जाते हैं। संसार के इतिहास को पलटते जाइए, अधिकांश महापुरुष गरीबों के धर में पैदा हुए व्यक्ति ही मिलेंगे। कारण यह है कि ऐश-आराम की काफी सामग्री सुगमतापूर्वक मिल जाने के कारण उनकी रुचि सुखभोग में लग जाती है। किसी दिशा में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा उन्हें नहीं होती। अभिलाषा के बिना पौरुष जागृत नहीं होता और पुरुषार्थ के बिना कोई महत्त्वपूर्ण सफलता कठिन है। गरीबों के लड़के अभावग्रस्त स्थिति में पैदा होते हैं, अपनी हीनता और दूसरों की उन्नति देखकर उनके अन्तःकरण में एक आघात लगता है, इस आघात के कारण उनमें एक हलचल और बेचैनी उत्पन्न होती है, जिसे शांत करने के लिए वे उन्नत अवस्था में पहुँचने की आकांक्षा रखते हैं। यह आकांक्षा ही उन्हें उस मार्ग पर ले दौड़ती है। जिस पर चलते हुए महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त हुआ करता हैं।
साधन-सुविधा और संपन्नता की दृष्टि से अमीरों के लड़के अच्छी स्थिति में होते हैं। पैसा एवं जानकार व्यक्तियों का सहयोग उनके सामने प्रचुर मात्रा में मौजूद रहता है, जिसके द्वारा यदि वे चाहें तो बड़ी शीघ्र, बड़ा आसानी से किसी भी दिशा में अच्छी सफलता प्राप्त कर सकते हैं। उनके लिए उन्नति का मार्ग बहुत ही सरल एवं प्रशस्त है, फिर भी अधिकांश अमीरों के लड़के फिसड्डी और नालायक निकलते हैं। इसका कारण यह है कि लाड़-प्यार और ऐश-आराम के वातावरण में उन्हें कोई अभाव अनुभव नहीं होता और न आकांक्षा जागृत होती है। जिस कमी के कारण अमीरों के लड़के उन्नति से वंचित रह जाते हैं वह आकांक्षा की कमी है। यह कमी गरीबों के घरों में नहीं होती। इसीलिए साधन और सुविधाओं का पूर्ण अभाव रहते हुए भी निर्धनों के घर में उत्पन्न बालक विभिन्न दिशाओं में आशातीत उन्नति कर जाते हैं और महापुरुषों के बीच अपना स्थान बनाते हैं।
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