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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

२. पंचकोशों का स्वरूप


पाँचकोशों को पाँच शरीर ही माना गया है-(१) अन्नमय कोश को फिजिकल बॉडी (२) प्राणमय कोश को ईथरिक बॉडी (३) मनोमय कोश को एस्ट्रल बॉडी (४) विज्ञानमय कोश को कॉस्मिक बॉडी (५) आनंदमय कोश को कॉजल बॉडी कहते हैं। अन्नमय कोश ऐसे पदार्थों का बना है जो आँखों से देखे और हाथ से छुए जा सकते हैं, जिस पर शल्य क्रिया और चिकित्सा-उपचार का प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त चार शरीर ऐसे सूक्ष्म तत्त्वों से बने हैं जो इन्द्रियगम्य तो नहीं है, किंतु बुद्धिगम्य अवश्य हैं। उनके अस्तित्व का परिचय उनकी गतिविधियों से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं को देखकर आसानी से जाना जा सकता है। जीवित मनुष्य में आँका जाने वाला विद्युत प्रवाह, तेजोवलय एवं मरने के बाद प्रेत-सत्ता के रूप में अनुभव आने वाला कलेवर प्राणमय कोश कहा जाता है। मानसिक कल्पनाओं, बौद्धिक प्रखरताओं के फलस्वरूप जो विज्ञान, कला, साहित्य आदि के क्षेत्रों में चमत्कारी उपलब्धियाँ सामने आती हैं, वे मनोमय कोश की कृतियाँ कही जा सकती हैं।

यो प्राण को नाड़ी समूह में काम करने वाली और कोशिकाओं में उभरने वाली बिजली के रूप में आँका जा सकता है। मन को मस्तिष्क के अणुओं में लिपटा हुआ पाया जा सकता है। फिर भी यह प्राण और मन चेतना के स्वतंत्र स्तर हैं जो नाड़ी संस्थान और मस्तिष्क संस्थान के माध्यम से प्रकट होते हैं। यों तो आत्मा का परिचय भी शरीर के माध्यम से ही मिलता है, फिर भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व शरीर से भिन्न है। विज्ञानमय कोश चेतना की तरह है, जिसे अतींद्रिय-क्षमता एवं भाव-संवेदना के रूप में जाना जाता है। आनंदमय कोश वह है, जिसके सजग होने पर आत्मबोध होता है और स्थितिप्रज्ञ की, जीवन मुक्त की, परमहंस की दिव्य-दृष्टि प्राप्त होती है।

सामान्यतया चेतना की दिव्य परतें प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं। उनका बहुत थोड़ा अंश ही कामकाजी दैनिक जीवन में प्रयुक्त होता है। शेष सुरक्षित पूँजी की तरह जमा रहता है। साधनात्मक पात्रता सिद्ध करने पर ही उन प्रसुप्त विभूतियों को प्राप्त किया जा सकता है। पिता द्वारा उत्तराधिकार में छोड़ी गई संपत्ति का स्वामित्व तो बच्चों का हो जाता है, पर वे उसे स्वेच्छापूर्वक उपयोग तभी कर सकते हैं, जब वयस्क हो जाते हैं। अल्प वयस्क रहने तक उस संपदा का स्वामित्व दूसरे संरक्षकों के हाथ में ही रहता है। बीज में विशाल वृक्ष की समग्र संभावनाएँ सन्निहित रहती हैं, किंतु उसका विस्तार उगाने, सींचने की कृषि विद्या के सहारे ही होता है। जीवात्मा बीज है, उसमें कल्पवृक्ष बनने की समस्त संभावनाएँ विद्यमान हैं, उन संभावनाएँ को साकार बनाने की सफलता साधना द्वारा ही उपलब्ध होती है।

पंचकोश जागरण का उद्देश्य यही है कि अंतर्जगत की इन पाँचों प्रचंड धाराओं को मूर्च्छना की स्थिति से उबारा जाय और प्रखर प्रेरणा से सिद्धि-समर्थता के रूप में विकसित किया जाय। तीन शरीरों के अंतर्गत ही पाँच कोश आते हैं। स्थूल शरीर और अन्नमय कोश एक ही बात है। सूक्ष्म शरीर में प्राणमय और मनोमय कोश आते हैं-कारण शरीर में विज्ञानमय और आनंदमय कोशों की गणना की जाती है। विभाजन दोनों ही प्रकार किया जा सकता है। तीन शरीर एवं पाँचकोश, यह ऐसी ही गणना है जैसा कि एक रुपया या चार चवन्नी में अंतर दीखता है। बारह मास या वामन सप्ताह मोटे तौर से भिन्न मालूम पड़ते हैं, पर वे वस्तुतः है एक ही। इसी प्रकार तीन शरीर एवं पाँच कोशों को वर्गीकरण की सुविधा ही कहा जा सकता है। शरीर को सिर, धड़ एवं पैरों के रूप अथवा त्वचा, रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा के रूप में वर्गीकृत किया जाय, शरीर की मूल सत्ता में कोई अंतर नहीं आता।

तत्त्ववेत्ताओं के मतानुसार पाँचों कोश असाधारण क्षमता संपन्न हैं। जिस प्रकार प्रत्येक शुक्राणु में एक बालक उत्पन्न करने की क्षमता होती है, उसी प्रकार पाँच कोशों में से प्रत्येक में अपने ही स्तर का एक स्वतंत्र देव पुरुष गढ़ लेने की क्षमता होती है। अलाद्दीन के चिराग के साथ पाँच जिन्न कहे गए हैं, जो इशारा पाते ही बड़े-बड़े काम कर दिखाते थे। विक्रमादित्य की कथाओं में उसके पाँच दिव्य शरीरधारी पाँच 'वीर' होने की बात कही जाती है। वे भी ऐसे ही काम कर दिखाते थे जो शरीरधारी मनुष्यों के बलबूते के नहीं थे, यह उत्पादन आत्मसत्ता का है। यह 'वीर'"जिन्न' या 'देव पुरुष' वस्तुतः अपनी ही चेतना द्वारा उत्पन्न की गई संतानें होती हैं। छाया पुरुष के बारे में कहा जाता है कि अपनी ही क्षमता को धूप में खड़े होकर अथवा दर्पण के सहारे सिद्ध कर लिया जाय तो वह शरीर रहित, शरीरधारी सेवक की तरह आज्ञापालन करती और बताए काम पूरे करती है। अपने ही स्तर का एक नया व्यक्तित्त्व उत्पन्न कर लेना छाया पुरुष कहलाता है। पाँच कोशों में छाया पुरुष जैसे पाँच समर्थ व्यक्तित्त्व प्रकट, उत्पन्न, सिद्ध कर लेने की गुंजाइश है। वे विश्वस्त एवं समर्थ सहयोगी मित्रों की तरह सहायता करने में निरंतर जुटे रह सकते हैं।

प्रस्तुत साधना में इन कोशों को जागृत-सशक्त बनाने के लिए उनसे संबंधित विशिष्ट केंद्रों, चक्रों में सविता शक्ति के प्रवेश एवं संचार का ध्यान प्रयोग किया गया है। हर कोश से एक विशेष चक्र का संबंध है। यह चक्र दो तरह की क्षमता रखते हैं-एक आकर्षणग्रहण की, दूसरी संचार-प्रसारण की। इसीलिए इनकी संगति भँवर एवं चक्रवात से बिठा ली जाती है। भंवर में जो चीज पड़ती है वह अंदर खींच ली जाती है, यह ग्रहण की प्रक्रिया है। चक्रवात में पड़ कर हर वस्तु ऊपर उठती है, दूर तक फैल जाती है, यह संचरण का प्रतीक है। सविता शक्ति के प्रभावों से केंद्रों की यह दोनों क्षमताएँ और अधिक विकसित होती हैं। दिव्य अनुदानों को ग्रहण करना, आत्मसंस्थान में संचरित करना, दूसरों की संवेदनाओं की अनुभूति, अपनी संवेदनाओं का फैलाव, विकारों का निष्कासन आदि इसी आधार पर संभव होता है। अतः कोशों के जागरण अनावरण क्रम में इन केंद्रों की शक्ति एवं क्रिया-कलापों का भली प्रकार समावेश किया जाना आवश्यक है।

ध्यान करें सविता देवता के प्रकाश से अपने अंतजर्गत में प्रभात जैसी स्थिति पैदा हुई है। हर अवयव, हर कोश जाग रहा है, सविता शक्ति का पान करके सशक्त-तेजस्वी बनने के लिए आतुर है। शरीर में अनेक तरह के दिव्य प्रवाह पैदा हो रहे हैं।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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