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आचार्य श्रीराम शर्मा >> जीवजंतु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं

जीवजंतु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4285
आईएसबीएन :0000

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जीव-जन्तु बोलते भी है और सोचते भी है....

Jeevjantu Bolte Bhi Hain Sochte Bhi Hain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शरीर बुद्धि भावनायें, उनकी अभिव्यक्ति और भाषा की दृष्टि से मनुष्य का अन्य प्राणियों की तुलना में बढ़ा-चढ़ा होना मात्र एक भ्रम है यह आभास जरूर होता है कि वह अन्य प्राणियों से बढ़ा-चढ़ा और उन्नत है। संभव है यह भ्रम अन्य प्राणियों में भी हो। जिन आधारों पर मनुष्य की श्रेष्ठता सिद्ध की जाती है, वे तो झूठ हैं ही, परंतु उसका यह अर्थ नहीं है कि वस्तुतः मनुष्य अन्य प्राणियों के समान ही है। निस्संदेह मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ और परमात्मा का सबसे बड़ा पुत्र है, क्योंकि मनुष्य जीवन एक अवसर है, जिसमें यह सिद्ध किया जा सकता है कि परमात्मा ने हमें जो वस्तुएँ, जो विशेषताएँ और जो अधिकार दिये हैं, उनका हम सदुपयोग कर सकते हैं और अपनी प्रामाणिकता कर्तव्य परायणता के आधार पर और अधिक उच्च स्थिति प्राप्त करने के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।

क्या सचमुच मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ?


मनुष्य द्वारा अपनी सर्वश्रेष्ठता को ढेरों प्रमाणों और अनेकों तथ्यों के आधार पर चाहे जिस ढंग से सिद्ध कर लिया जाये, पर इसमें कोई तथ्य है भी अथवा नहीं यह भी विचार किया जाना चाहिए।

मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता का आधार यही तो माना जाता है कि उसमें बुद्धि एवं विवेक का तत्त्व विशेष है। उसमें कर्त्तव्यपरायणता, परोपकार, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सहृदयता तथा संवेदनशीलता के गुण पाये जाते हैं, किन्तु इस आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ तभी माना जा सकता है, जब सृष्टि के अन्य प्राणियों में इन गुणों का सर्वथा अभाव हो और मनुष्य इन गुणों को पूर्ण रूप से, क्रियात्मक रूप से प्रतिपादित करें। यदि इन गुणों का अस्तित्व अन्य प्राणियों में भी पाया जाता है और वे इसका प्रतिपादन भी करते हैं, तो फिर मनुष्य को सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के अहंकार का क्या अर्थ रह जाता है।

शेर, हाथी, गैंडा, चीता, बैल, भैंस, गीध, शतुरमुर्ग, मगर, मत्स्य आदि न जाने ऐसे कितने थलचर, नभचर और जलभर जीव परमात्मा की इस सृष्टि में पाये जाते हैं, जो मनुष्य से सैकड़ों गुना अधिक शक्ति रखते हैं। मछली जल में जीवन भर तैर सकती है, पक्षी दिन-दिन भर आकाश में उड़ते रहते हैं। क्या मनुष्य इस विषय में उसकी तुलना कर सकता है ? परिश्रमशीलता के संदर्भ में हाथी, घोड़े, ऊँट, बैल, भैंस आदि उपयोगी घरेलू जानवर कितना परिश्रम करते और उपयोगी सिद्ध होते हैं, उतना शायद मनुष्य नहीं हो सकता। जबकि इन पशुओं तथा मनुष्य के भोजन में बहुत बड़ा अंतर होता है।

पशु-पक्षियों के समान स्वावलंबी तथा शिल्पी तो मनुष्य हो ही नहीं सकता। पशु-पक्षी अपने जीवन तथा जीवनोपयोगी सामग्री के लिए किसी पर कभी निर्भर नहीं रहते। वे जंगलों, पर्वतों, गुफाओं तथा पानी में अपना आहार आप खोज लेते हैं। उन्हें न किसी पथ-प्रदर्शक की आवश्यकता पड़ती है और न किसी संकेतक की। पशु-पक्षी स्वयं एक-दूसरे पर भी इस संबंध में निर्भर नहीं रहते। अपनी रक्षा तथा अरोग्यता के उपाय भी बिना किसी से पूछे ही कर लिया करते हैं। जीवन के किसी भी क्षेत्र में पशु-पक्षियों जैसा स्वालंबन मनुष्यों में कहाँ पाया जाता है ? यहाँ तो मनुष्य एक-दूसरे पर इतना निर्भर है कि यदि वे एक-दूसरे की सहायता न करते रहें तो जीना ही कठिन हो जाये।

विलक्षण बौद्धिक क्षमतायें आदि काल से ही वैज्ञानिकों और जीवशास्त्रियों के लिए एक प्रकार की चुनौती रही हैं। बुद्धि, ज्ञान, चिंतन की क्षमता- यही वह तत्त्व हैं जो मृत और जीवित का अंतर स्पष्ट करते हैं। अतएव जीवन को बौद्धिक क्षमता में केन्द्रित कर वैज्ञानिक प्रयोगों की प्रणाली अपनाई गयी। इस दिशा में मस्तिष्क की जटिल संरचना एक बहुत बड़ी बाधा है। इस कारण रहस्य अभी तक रहस्य ही बने हुए हैं, तथापि अब तक जितना जाना जा सका है, उससे वैज्ञानिक यह अनुभव करने लगे हैं कि बुद्धि एक सापेक्ष तत्त्व है अर्थात् सृष्टि के किसी कोने से समाष्टि मस्तिष्क काम कर रहा हो तो आश्चर्य नहीं, जीवन जगत उसी से जितना अंश पा लेता है उतना ही बुद्धिमान होने का गौरव अनुभव करता है।

वैज्ञानिक अब इस बात को अत्याधिक गंभीरता से विचारने लगे हैं कि मानव-मस्तिष्क और उसकी मूलभूत चेतना का समग्र इतिहास अपने इन कम विकसित समझे जाने वाले जीवों के मस्तिष्क की प्रक्रियाओं से ही माना जा सकता है। इसके लिए अब तरह-तरह के प्रयोग प्रारंभ किये गये हैं।

मनुष्य की तरह ही देखा गया है कि कई बार एक कुत्ता अत्यधिक बुद्धिमान पाया गया। जबकि उसी जाति के अन्य कुत्ते निरे बुद्धू निकले। चूजे अपने बाप मुर्गे की अपेक्षा अधिक बुद्धि-चातुर्य का परिचय देते हैं। डाल्फिन मछलियों की बुद्धिमत्ता की तो कहानियाँ भी गढ़ी गयी हैं। बुद्धि परीक्षा के लिए कोई बहुत संवेदनशील यंत्र तो अभी तक नहीं गढ़े जा सके, किन्तु स्वादिष्ट भोजन की पहचान, जटिल परिस्थितियों के हल आदि के लिए जो विभिन्न प्रयोग किये गये गये, उनसे पहली दृष्टि में यह स्पष्ट हो गया कि बंदर, डाल्फिन, काली की अपेक्षा लाल लोमड़ी अधिक चतुर होते हैं। नीलकंठ, संघकाक और कौवों की बुद्धि स्वार्थ प्रेरित जैसी होती है- विवेक जनक नहीं। रूस के प्रसिद्धि वैज्ञानिक प्रो. लियोनिद क्रुशिन्स्का ने अपने विचित्र प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि जिस तरह चिंतन से मानवीय शक्ति का ह्वास होता है, पशु-पक्षियों में भी यह प्रक्रिया यथावत होती है। इनमें कुछ तो डर जाते हैं, कुछ बीमार पड़ जाते हैं। संभवत: इन्हीं कारणों से वे जीवन की गहराइयों में नहीं जाकर प्राकृतिक प्रेरणा से सामान्य जीवन यापन और आमोद-प्रमोद के क्रिया-कलापों तक ही सीमित रह जाते हैं।

प्रो. क्रुशिन्स्की के अनुसार तर्क, विवेक और प्राकृतिक हलचलों के अनुरूप अपने को समायोजित करने की बुद्धि अन्य प्राणियों में भी अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं, जबकि मनुष्य उसमें बुरी तरह जकड़ता जा रहा है। उसके अपने कारनामे चाहे वह विशाल औद्योगिक प्रगति हो या अणु-आयुधों का निर्माण, उसके अपने ही विनाश के साधन बनते जा रहे हैं।

पेट ही मनुष्य का साध्य हो, तब तो उससे अच्छा कर्कट है, जो रहता तो समुद्र में है, किन्तु वह नारियल वृक्ष पर चढ़कर फल तोड़ लाता है।

जीवों की बुद्धिमत्ता अपने विकसित रूप में तब अभिव्यक्त होती है, जब उनके सामने कोई संकट आ जाता है और आत्म रक्षा की आवश्यकता पड़ती है। हिरन, खरगोश, चीते कंगारू बहुत तेज दौड़ते हैं, किन्तु जब इन्हें अपने सामने कोई संकट आता दिखाई देता है, तब वे जानते हैं कि उस स्थिति में सामान्य गति से बचा नहीं किया जा सकता। अतएव वे अपनी गति को अत्यधिक तीव्र कर देते हैं। चीता उस स्थिति में 100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ जाता है, कंगारु उस स्थिति में हवा में जोरदार कुलाचें लगाता है, जिससे उसकी मध्यम गति अपनी प्रखरता तक पहुँच जाती है। यदि भागने में जी जान न बचे तो वह खड़े होकर अपना शक्ति प्रदर्शन करते हैं। बिल्ली अपने बाल फुलाकर तथा गुर्राकर यह प्रदर्शित करती है उसकी शक्ति कम नहीं। कुछ जानवर दाँत दिखाकर शत्रु का डराते हैं, तो कुछ घुड़ककर, कुछ पंजों से मिट्टी खोदकर इस बात के लिए भी तैयार हो जाते हैं कि आओ जब नहीं मानते तो दो-दो हाथ कर ही लिये जायें। साही तो मुँह विपरीत दिशा में करके अपने नुकीले तेज काँटे इस तरह फर्राकर फैला देती है कि शत्रु को लौटते ही बनता है। अमेरिका में पाई जाने वाली स्कंक नामक गिलहरी अपने शरीर से एक विलक्षण दुर्गंध निकाल कर शत्रु को भगा देती है। आस्ट्रेलिया के कंगारू रैट तो सचमुच ही आँखों में धूल झोंकना, जो कि बुद्धिमत्ता का मुहावरा है जानता है। कई बार साँप का उससे मुकाबला हो जाता है तो यह अपनी पिछली टाँगों से इतनी तेजी से धूल झाड़ता है कि कई बार सर्प अंधा तक हो जाता है। उसे अपनी जान बचाकर भागते ही बनता है।

कछुआ, कर्कट तथा अमेरिका में पाये जाने वाले पैंगोलिन व आर्मडिलो शत्रु-आक्रमण के समय अपने सुरक्षा कवच में दुबककर अपनी रक्षा करते हैं, तो बारहसिंगा युद्ध में दो-दो हाथ की नीति अपनाकर अपने पैने सींगों से प्रत्याक्रमण कर शत्रु को पराजित कर देता है।

कहते हैं कि भालू मृत व्यक्ति पर आक्रमण नहीं करते। इसकी पहचान के लिए नथुनों के पास मुँह ले जाकर यह देखते हैं कि अभी साँस चल रही है या नहीं। चतुर लोग अपनी साँस रोककर उसे चकमा दे जाते हैं। यह बात कहाँ तक सच है कहा नहीं जा सकता, किन्तु ओपोसम सचमुच ही विलक्षण बुद्धि और धैर्य का प्राणी है। वह संकट के समय अपनी आँखें पलटकर जीभ लटकाकर मृत होने का ऐसा कुशल अभिनय करता है, जैसा ‘सिनेमा के नायक’। इस तरह अपनी सूझबूझ से वह अपने को मृत्यु के मुख में जाने से बचा लेता है।

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