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आचार्य श्रीराम शर्मा >> दृश्य जगत् की अदृश्य पहेलियाँ

दृश्य जगत् की अदृश्य पहेलियाँ

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4289
आईएसबीएन :0000

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दृश्य जगत् की अदृश्य पहेलियाँ

Drishya Jagat Ki Adrishya Paheliyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विज्ञान की अधुनातन प्रगति और चंद्रमा तथा मंगल पर विजय जैसे अभियान निस्संदेह यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ और बुद्धिशील प्राणी है, परन्तु इसी कारण यह सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता, सामर्थ्यवान इकाई नहीं हो जाता। विपुला प्रकृति के थोड़े से रहस्य हाथ लग जाने पर मनुष्य अपने आपको प्रकृति और ईश्वर से भी बड़ा समझने लगा; लेकिन जब प्रकृति उसके सामने ऐसे सवाल कर देती है, जिन्हें वह सुलझा न सके, तब मनुष्य की क्षुद्रता और अल्प-सामर्थ्य का आभास होता है।

प्रकृति के ऐसे ही रहस्यपूर्ण सवाल जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं और उनका हल आज तक कोई भी वैज्ञानिक या बुद्धिशील मेधावी नहीं कर सका है।

ये रहस्य क्यों नहीं सुलझते


होनोलूलू से 75 मील की दूरी पर कवाई टापू है। यह पश्चिमी आइलैंड के हवाइयाँ ग्रुप में आता है। नहिली के किनारे एक 60 फुट ऊँची और आधा मील लंबी एक पहाड़ी है। इसमें बालू, कोरल, शेल्स तथा लावा के कण पाये जाते हैं; जो अपने आप में एक आश्चर्य हैं, उससे भी आश्चर्य यह है कि इस टीले से प्राय: कुत्ते के भौंकने की आवाज आया करती है। रात के अंधकार और प्राकृतिक प्रकोप जैसे अवसरों पर यह ध्वनि बहुतायत से सुनने को मिलती है। बच्चों के लिए यह क्षेत्र निषिद्ध है, क्योंकि यह बोली सुनकर बच्चे डर जाते हैं। आज तक कोई भी विशेषज्ञ, कोई भी वैज्ञानिक उस कारण की खोज नहीं कर पाया कि इस टीले से यह भौंकने की आवाज क्यों आती है ?

ऐसा भी नहीं कि पास के किसी गाँव से कोई कुत्ते भौंकते हों और उनकी प्रतिध्वनि आती हो। इतिहास में फ्रेड पैटजेल, जिसे ‘‘हाग कालर चैंपियन’’ के नाम से जाना जाता है, वह तो उदाहरण है, जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि वह इतना ऊँचा बोलता था कि उसकी आवाज तीन मील तक दूर तक मजे से सुनी जा सकती थी; किन्तु इस टापू में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं, कोई भी जन्तु नहीं, जिसकी आवाज इतनी दूर तक पहुँच सकती हो। रहस्य ज्यों का त्यों बना हुआ है और अपने विश्लेषण की एक लंबे समय से प्रतीक्षा कर रहा है।

प्रकृति के कुछ रहस्य तो ऐसे हैं, जिन्हें देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। गाने वाली बालू से भरे रेगिस्तान अभी भी अपने रहस्य बताने के लिए मानवी-बुद्धि को चुनौती दे रहे हैं।

गाने वाली बालू संसार के विभिन्न भागों में पाई जाती है। बारहवीं शताब्दी की बात है- मध्य-एशिया के दुर्गम रेगिस्तान टकला माकान को मार्कोपोलो अपने दल सहित पार कर रहा था।

एक शाम खेमा गाड़ते समय, उस दल ने सीटी जैसी सुरीली आवाज लगातार बजते सुनी। इसका कोई कारण समझ में नहीं आया, तो दल के कुली भाग खड़े हुए। उन्होंने उसे स्पष्टत: भूत का आतंक माना।
प्राय: सभी कुली भाग खड़े हुए थे; पर तीन को उसने बड़ी मुश्किल से रोका। भूत के आतंक से वे बदहवास हो रहे थे। इस सुनसान में लगातार इतनी मीठी वंशी रातभर आखिर भूत के अतिरिक्त और कौन बजा सकता है ? वे निरंतर भागने की आतुरता करते रहे। मार्कोपोलो ने बड़ी चतुरता से उन्हें रोक पाने में सफलता पाई। उसने बचे हुए तीन कुलियों को अपने पास एक जादू का ताबीज दिखाया और कहा- यह भूतों से रक्षा करने में पूरी तरह समर्थ है। कल जो कुली भागे थे, उन्हें सीटी बजाने वाले भूत ने सामने वाले टीले के पीछे पकड़कर चबा डाला है और उनकी चमड़ी डुग्गी बनाकर बजाता फिर रहा है। तुम भागना चाहो तो भले ही चले जाओ, पर तुम्हारी भी वही दुर्गति होगी। हाँ, मेरे पास रहोगे, तो यह ताबीज मेरी ही नहीं, तुम्हारी भी रक्षा कर लेगा। इस आश्वासन से कुली रुक गए और उस रेगिस्तान को पार कर सकना संभव हो गया। मार्कोपोलो ने उस सुनसान के संगीत का पता लगाने में बहुत अक्ल लड़ाई, पर कुछ नतीजा नहीं निकला। भूत पर वे विश्वास नहीं करते थे, पर कुछ इस नीरव-निनाद का अन्य कोई कारण भी तो समझ में नहीं आता था।

उस रहस्य पर से पर्दा इस शताब्दी के आरंभ में उठा है। सर आरेल स्टाइन ने गोबी मरुस्थल का सर्वे करते हुए यह विवरण प्रकाशित किया कि ‘टकला माकान’ क्षेत्र में बिखरी बालू ध्वनि मुखर है। उससे वाद्य-यंत्रों की तरह क्रमबद्ध ध्वनि-प्रवाह निकलता है। गोबी मरुस्थल प्राय: आठ लाख वर्गमील में बिखरा पड़ा है। इसके कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ बालू गाती है। इनकी आवाजें अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की हैं। टकला-माकान क्षेत्र के पश्चिमी अंचल ‘अंदास-पादशा’ के सारे क्षेत्र की बालू ध्वनि-मुखर है। वहाँ अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग तरह के संगीत बजते, गूँजते सुने जा सकते हैं।

स्पेन के एक यात्री एंटेनियो डी. अल्लोआ जब अपने दल के साथ ऐंड्रीज पर्वत श्रेणी पार कर रहा था, तो पंचामार्का नोटी के समीप वायुमंडल में गूँजता हुआ संगीत सुना। उसे सुनकर सारा दल भाग खड़ा हुआ। भगोड़ों ने यहाँ तक बताया कि उन्होंने अत्यन्त विशालकाय दैत्य की डरावनी छाया भी उस क्षेत्र में भागती दौड़ती अपनी आँखों से देखी थी।

प्रकृति के कतिपय अद्भुत रहस्यों का पता लगाने में अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण भाग खर्च करने वाले अन्वेषी लेवरी ने दक्षिणी अमेरिका के दुर्गम अंचलों की खोज-बीन की। उसने स्कूइवो नदी के रेतीले-मैदान में मुखरित होने वाले ध्वनि-संगीत का वर्णन किया है। इसका विवरण सर आर्थर कानन डायल की ‘लास्टवर्ल्ड’ में विस्तारपूर्वक दिया गया है।

इसी प्रकार नील नदी के उस पार कारनक के खंडहरों में दो पत्थर की घूरती हुई प्रतिमाएँ हैं। दोनों एक-दूसरे की ओर मुँह किये एक मील के फाँसले पर जमी हैं, इनमें से एक प्रतिमा तो पत्थर की तरह चुप खड़ी रहती है; पर दूसरी से अक्सर कुछ की आवाज आया करती है। पत्थर की मूर्ति क्यों और कैसे बोलती हैं ? उसका पता लगाने की हर संभव कोशिश की गयी, किन्तु अभी तक तो कुछ ज्ञात नहीं हो पाया। मूर्ति में रेडियो यंत्र भी नहीं लगे हैं, जिससे अनुमान किया जाए कि संभव है, वह अदृश्य शब्द प्रवाहों को पकड़ लेते हों और वह ध्वनि में परिवर्तित हो जाते हैं।

चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग के दो नवयुवकों के बारे में एक बड़ी विचित्र बात सुनने को आई। यह कि जब दोनों जोर-जोर से साँस लेते हैं, तो उनके शरीर के अंदर से विचित्र प्रकार की ध्वनियाँ और संगीत आने लगता है, जो किसी समीपवर्ती रेडियों स्टेशन का ब्राडकास्ट प्रोग्राम भी हो सकता है। दोनों युवक जोर-जोर से साँस लेते समय किसी लाउड-स्पीकर के सिरे का स्पर्श करते थे, तो आवाज इतनी ऊँची हो जाती थी कि सुनने वालों को ऐसा लगता था, जैसे कोई रेडियो पूरा खोल दिया गया हो।

दोनों युवक एक फैक्टरी में काम करते थे। डॉक्टरों ने उनकी पूरी शारीरिक परीक्षा की; पर कोई कारण न बता सके। अनेक पत्रकारों ने विस्तृत छानबीन की पर निराशा ही हाथ लगी। युवकों के शरीर से संगीत-ध्वनियों के प्रसारण का कोई कारण नहीं जाना जा सका।

विश्व विख्यात पर्यटक बर्ट्रेंड टामस ने एक बार अरब रेगिस्तान की यात्रा की तो उन्हें कुछ ऐसे बालू के टीले मिले, जो गाते थे और उनके गाने की ध्वनियाँ इतनी स्पष्ट और ऊँची होती थीं कि काफी दूर बैठकर भी उन्हें मजे से सुना जा सकता था। यात्रा संस्मरण में टामस ने लिखा है कि यह मधुर-संगीत कई तरह के वाद्य-यंत्रों से संयुक्त होता था। कभी ढोलक की आवाज आती थी, कभी वीणा की-सी झंकार।

सहारा के रोने वाले टीलों की कथा भी कुछ ऐसी ही है। केलीफोर्निया में भी बालू के कुछ ऐसे टीले हैं, जो गाते हैं। हवाई द्वीप का एक टीला कुत्ते की-सी आवाज में भौंकता है। दक्षिण अफ्रीका में कुछ ऐसी रहस्यमय भीतें हैं, वह अट्टहास तक करती सुनी गई हैं। योरोप में कुछ ऐसे समुद्र तट हैं, जहाँ यात्री मधुर संगीत ध्वनियों का रसास्वादन करते हैं। लंकाशायर के सेंट एनी के समुद्री तट की बालू को एक विशेष प्रकार से दबाया गया, तो उससे विचित्र तरह की ध्वनियाँ प्रसारित हुईं। वैज्ञानिकों ने इन सब रहस्यों का पता लगाने की चेष्टा की; पर अभी तक वे इतना ही जान पाए हैं कि प्रकृति में बालू की तरह के कुछ ऐसे कण हैं, जो परस्पर संघात से प्राकृतिक-ध्वनियाँ निकालते हैं।

एक बार केलीफोर्निया की एक स्त्री भोजन पकाने जा रही थी, अभी वह उसकी तैयारी कर ही रही थी कि चूल्हे से विचित्र प्रकार के गाने की ध्वनि निकलने लगी। गाना पूरा हो गया, उसके साथ ही ध्वनि आनी भी बंद हो गई। न्यूयार्क में एक बार बहुत-से लोग रेडियो प्रोग्राम सुन रहे थे, एकाएक संगीत-ध्वनि तो बंद हो गई और दो महिलाओं की ऊँची-ऊँची आवाज में बातें आने लगीं। रेडियो स्टेशन से पूछा गया तो पता चला कि वहाँ से केवल नियमबद्ध संगीत ही प्रसारित हुआ है। बीच की आवाज कहाँ से आई, यह किसी को पता नहीं है।

अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के तट पर सतराता सोनगाँव में बने एक शिव-मंदिर से आने वाली संस्कृत आवाज को बहुत-से लोगो ने जा-जाकर सुना। यह संगीतमय ध्वनि शिवलिंग पर डाले जाने वाले जल की निकासी के लिए बनायी गई नाली से आती थी। पूना के 80 वर्षीय इतिहासज्ञ श्री डी.पी. पोद्दार ने भी इस विचित्र ध्वनि की पुष्टि की थी और आगे अन्वेषण कराए जाने का सुझाव दिया था।
 
जैसलमेर में भी कुछ बालू के टीले पाए जाते हैं, जहाँ से कराहने आदि की कई तरह की ध्वनियाँ सुनी गई हैं। वहाँ के निवासियों का कहना है कि यह आवाजें इन टीलों में दबी प्रेतात्माओं की आवाजें हैं।


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