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आचार्य श्रीराम शर्मा >> शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म

शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4290
आईएसबीएन :0000

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शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म....

Shabad Braham Nad Braham

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वर से ‘अक्षर’ की अनुभूति

पुराणों में एक आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने एक बार लंबे समय तक यह जानने के लिए प्रव्रज्या की कि सृष्टि में आध्यात्मिक विकास की गति किस तरह चल रही है ? वे जहाँ भी गए, प्रायः प्रत्येक स्थान में लोगों ने एक ही शिकायत की भगवान परमात्मा की प्राप्ति अति कठिन है। कोई सरल उपाय बताइये, जिससे उसे प्राप्त करने, उसकी अनुभूति में अधिक कष्ट साध्य तितीक्षा का सामना न करना पड़ता हो। नारद ने इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् से पूछकर देने का आश्वासन दिया और स्वर्ग के लिए चल पड़े।

आपको ढूँढ़ने में तप-साधना की प्रणालियाँ बहुत कष्टसाध्य हैं, भगवन् ! नारद ने वहाँ पहुँचकर विष्णु से प्रश्न किया-ऐसा कोई सरल उपाय बताइए, जिससे भक्तगण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें ?


नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा।
मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।


नारद संहिता


हे नारद ! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं, अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।

इन पंक्तियों को पढ़ने से संगीत की महत्ता और भारतीय इतिहास का वह समय याद आ जाता है, जब यहाँ गाँव गाँव प्रेरक मनोरंजन के रूप में संगीत का प्रयोग बहुलता से होता था। संगीत में केवल गाना या बजाना ही सम्मिलित नहीं था, नृत्य भी इसी कला का अंग था। कथा, कीर्तन, लोक-गायन और विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक पर्व-त्यौहार एवं उत्सवों पर अन्य कार्यक्रमों के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता था। उससे व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में शांति और प्रसन्नता, उल्लास और क्रियाशीलता का अभाव नहीं होने पाता था।

अक्षर परब्रह्म परमात्मा की अनुभूति के लिए वस्तुतः संगीत साधना से बढ़कर अन्य कोई अच्छा माध्यम नहीं, यही कारण रहा है कि-यहां की उपासना पद्धति से लेकर कर्मकांड तक में सर्वत्र स्वर संयोजन अनिवार्य रहा है। मंत्र भी वस्तुतः छंद ही है। वेदों की प्रत्येक ऋचा का कोई ऋषि कोई देवता तो होता ही है, उसका कोई न कोई छंद जैसे ऋयुष्टुप, अनुष्टुप, गायत्री आदि भी होते हैं। इसका अर्थ ही होता है कि उस मंत्र के उच्चारण की ताल, लय और गतियाँ भी निर्धारित हैं। अमुक फ्रीक्वेन्सी पर बजाने से ही अमुक स्टेशन बोलेगा, उसी तरह अमुक गति, लय और ताल के उच्चारण से ही मंत्र सिद्धि होगी-यह उसका विज्ञान है।

कोलाहल और समस्याओं से घनीभूत संसार में यदि परमात्मा का कोई उत्तम वरदान मनुष्य को मिला है, तो वह संगीत ही है। संगीत से पीड़ित हृदय को शांति और संतोष मिलता है। संगीत से मनुष्य की सृजन शक्ति का विकास और आत्मिक प्रफुल्लता मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, शादी विवाहोत्सव से लेकर धार्मिक समारोह तक के लिए उपयुक्त संगीत निधि देकर परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम किया, मानवीय गुणों से प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाया।
शास्त्रकार कहते हैं-


‘‘स्वरेण संल्लीयते योगी’’

‘‘स्वर साधना द्वारा योगी अपने को तल्लीन करते हैं’’ और एकाग्र की हुई, मनःशक्ति को विद्याध्ययन से लेकर किसी भी व्यवसाय में लगाकर चमत्कारिक सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं, इसलिए वह मानना पड़ेगा कि संगीत दो वर्ष के बच्चे से लेकर विद्यार्थी, व्यवासायी, किसान, मजदूर, स्त्री-पुरुष सबको उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। उससे मनुष्य की क्रियाशक्ति बढ़ती और आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है। यह बात ऋषि मनीषियों ने बहुत पहले अनुभव की थी और कहा था-


‘‘अभि स्वरन्ति बहवो मनीषिणो राजानमस्य भुवनस्य निंसते।’’
ऋग्वेद 6/85/3


अर्थात्-अनेक मनीषी विश्व के महाराजाधिराज भगवान् की ओर संगीतमय स्वर लगाते हैं और उसी के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं।
एक अन्य मंत्र में बताया है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए ज्ञान और कर्मयोग मनुष्य के लिए कठिन है। भक्ति-भावनाओं से हृदय में उत्पन्न हुई अखिल करुणा ही वह सर्व सरल मार्ग है, जिससे मनुष्य बहुत शीघ्र, परमात्मा की अनुभूति कर सकता है और उस प्रयोजन में भक्ति-भावनाओं के विकास में संगीत का योगदान असाधारण है-


स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः।
ऋग्वेद 8/33/2


हे शिष्य ! तुम अपने आत्मिक उत्थान की इच्छा से मेरे पास आये हो। मैं तुम्हें ईश्वर का उपदेश करता हूँ, तुम उसे प्राप्त करने के लिए संगीत के साथ उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा।
पौराणिक उपाख्यान है कि ब्रह्मा जी के हृदय में उल्लास जागृत हुआ तो वह गाने लगे। उसी अवस्था में उनके मुख से गायत्री छंद प्रादुर्भूत हुआ-


गायत्री मुखादुदपतदिति च ब्राह्मणम्।

-निरुक्त 7/12


गान करते समय ब्रह्मा जी के मुख से निकलने के कारण गायत्री नाम पड़ा।
संगीत के अदृश्य प्रभाव को खोजते हुए भारतीय योगियों को वह सिद्धियाँ और अध्यात्म का विशाल क्षेत्र उपलब्ध हुआ, जिसे वर्णन करने के लिए एक पृथक वेद की रचना करनी पड़ी। सामवेद में भगवान् की संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य प्रतिपादित और पिरोये हुए हैं, जिनका अवगाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों को, कितनी ही तुच्छ हों-भगवान् से मिला सकता है। अब इस संबंध में पाश्चात्य विद्वानों की मान्यताएँ भी भारतीय दर्शन की पुष्टि करने लगी हैं।
 
विदेशों में विज्ञान की तरह ही एक शाखा विधिवत संगीत का अनुसंधान कर रही है और अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं, वह मनुष्य को इस बात की प्रबल प्रेरणा देते हैं कि यदि मानवीय गुणों और आत्मिक आनंद को जीवित रखना है तो मनुष्य अपने आपको संगीत से जोड़े रहे। संगीत की तुलना प्रेम से की गई है। दोनों ही समान उत्पादक शक्तियाँ हैं, इन दोनों का ही प्रकृति (जड़ तत्त्व) और जीवन (चेतन तत्त्व) दोनों पर ही चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है।

‘‘संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा उपाय है, इसलिए हमेशा वाद्य यंत्र के साथ गाना चाहिये।’’ यह पाइथागोरस की मान्यता थी; पर डॉ. मैकफेडेन ने वाद्य अपेक्षा गायन को ज्यादा लाभकारी बताया है। मानसिक प्रसन्नता की दृष्टि से पाइथागोरस की बात अधिक सही लगती है। मैकफेडेन ने लगता है, केवल शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ऐसा लिखा है। इससे भी आगे की कक्षा आत्मिक है, उस संबंध में कविवर रवींद्रनाथ टैगोर का कथन उल्लेखनीय है। श्री टैगोर के शब्दों में स्वर्गीय सौंदर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है, तो उसे संगीत ही होना चाहिये। रस्किन ने संगीत को आत्मा के उत्थान, चरित्र की दृढ़ता कला और सुरुचि के विकास का महत्त्वपूर्ण साधन माना है।

विभिन्न प्रकार की सम्मतियाँ वस्तुतः अपनी-अपनी तरह की विशेष अनुभूतियाँ हैं, अन्यथा संगीत में शरीर, मन और आत्मा तीनों को बलवान् बनाने वाले तत्त्व परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं, इसी कारण भारतीय आचार्यों और मनीषियों ने संगीत शास्त्र पर सर्वाधिक जोर दिया। साम वेद की स्वतंत्र रचना उसका प्रणाम है। समस्त स्वर-ताल, लय, छंद, गति, मंत्र, स्वर, चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि साम वेद से ही निकले हैं। किसी समय इस दिशा में भी भारतीयों ने योग सिद्धि प्राप्त करके, यह दिखा दिया था कि स्वर साधना के समक्ष संसार की कोई और दूसरी शक्ति नहीं। उसके चमत्कारिक प्रयोग भी सैकड़ों बार हुए हैं।

अकबर की राज्य- सभा में संगीत प्रतियोगिता रखी गई। प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे तानसेन और बैजूबावरा। यह आयोजन आगरे के पास वन में किया गया। तानसेन ने टोड़ी राग गाया और कहा जाता है कि उसकी स्वर लहरियां जैसे ही वन खंड में गुंजित हुईं, मृगों का एक झुंड वहाँ दौड़ता हुआ चला आया। भाव-विभोर तानसेन ने अपने गले पड़ी माला एक हरिण के गले में डाल दी। इस क्रिया से संगीत प्रवाह रुक गया और तभी सब के सब सम्मोहित हरिण जंगल में भाग गये।
टोड़ी राग गाकर तानसेन ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत मनुष्यों की ही नहीं, प्राणिमात्र की आत्मिक-प्यास है, उसे सभी लोग पसंद करते हैं। इसके बाद बैजूबाबरा ने मृग रंजनी टोड़ी राग का अलाप किया। तब केवल एक वह मृग दौड़ता हुआ राज्य-सभा में आ गया, जिसे तानसेन ने माला पहनाई थी। इस प्रयोग से बैजूबावरा ने यह सिद्ध कर दिया कि शब्द के सूक्ष्मतम कंपनों में कुछ ऐसी शक्ति और सम्मोहन भरा पड़ा है कि उससे किसी भी दिशा के कितनी ही दूरस्थ किसी भी प्राणी तक अपना संदेश भेजा जा सकता है।
 


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