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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनुष्य चलता फिरता पेड़ नहीं है

मनुष्य चलता फिरता पेड़ नहीं है

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4292
आईएसबीएन :00000

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मनुष्य चलता-फिरता पेड़ नही.....

Manushya Chalta Phirta Ped Nahin Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


इसे एक मनोवैज्ञानिक चक्रव्यूह ही कहना चाहिए कि हम अपने को भूल बैठे हैं। अपने आपको अर्थात् आत्मा को। शरीर प्रत्यक्ष है, आत्मा अप्रत्यक्ष। चमड़े से बनी आँखें और मज्जा -तंतुओं से बना मस्तिष्क, केवल अपने स्तर के शरीर और मन को ही देख -समझ पाता है। जब तक चेतना-स्तर इतने तक सीमित रहेगा, तब तक शरीर और मन की सुख-सुविधाओं की बात ही सोची जाती रहेगी। उससे आगे बढ़कर तथ्य पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर सकना सम्भव ही न होगा कि हमारी आत्मा का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है और आन्तरिक प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए क्या किया जाना चाहिए ? क्या किया जा सकता है ?

जगत् मात्र जड़ तत्त्वों का उपादान नहीं


पिछली दशाब्दियों में विज्ञानवेत्ता समस्त जड़-चेतन जगत् को पदार्थ विनिर्मित मानते रहे हैं और चेतना को तत्त्वगत एवं रासायनिक सम्मिश्रण का परिणाम बताते रहे हैं। उनकी दृष्टि में आत्मा नाम की स्वतंत्र सत्ता को कोई अस्तित्व नहीं। वृक्ष-वनस्पतियों की तरह ही मनुष्य या पशु-पक्षी, कीट-पतंग भी हैं। छोटे स्तर के अविकसित प्राणियों में तथा मनुष्यों में जो विचार शक्ति पाई जाती है, वह उनके मस्तिष्क अवयव में होने वाली एक विशेष प्रकार की हल-चल भर है; किन्तु यह मान्यता समय के साथ-साथ धुँधली पड़ती चली आई है और अब इसने अधिक प्रमाण इकट्ठे हो गये हैं कि आत्मिक चेतना का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया जा सके।

‘अकस्मात्’ वादी नास्तिकवाद का कथन है कि यह संसार अकस्मात् पैदा हुआ है और बिना किसी नियंत्रण के स्वसंचालित रूप से समस्त गतिविधियाँ अनायास ही चल पड़ी हैं और चल रही हैं।

कहा जाता है कि जिस प्रकार सराय में पहुँचने पर अकस्मात् ही कोई मित्र मिल जाता है और उसके मिलते ही नमस्कार, मुस्कान, कुशल प्रश्न, उपहार आदि के आदान-प्रदान का क्रम चल पड़ता है; ठीक इसी तरह इस संसार का आविर्भाव तथा क्रम निर्धारण स्वयमेव, निरुद्देश्य चल पड़ा है।

किन्तु यह ‘अकस्मात्’ वाद कहने में जितना सरल  है, उतना आसानी से सिद्ध नहीं किया जा सकता। सृष्टि का हर जीवाणु-परमाणु एक सुव्यवस्थित क्रिया-प्रक्रिया के अनुसार चल रहा है।

इतना ही नहीं, उसके पीछे भावी परिणामों की सूझ-बूझ भी है और परिस्थिति को देखते हुए अपनी गतिविधियों में हेर-फेर कर लेने की दूरदर्शिता भी है। इन तथ्यों पर विचार करने पर जड़ समझी जाने वाली प्रकृति में चेतना का बहुमुखी आधार विद्यमान सिद्ध होता है।
स्पेन का दार्शनिक इब्नबाजा कहता था- जगत् की रचना परिछिन्न गतियुक्त पिंड़-परमाणुओं से हुई है। वे कण न तो निश्चेष्ट हैं और न मृतक। उसमें क्रिया भी विद्यमान है और चेतना भी। वह स्थिति अस्त-व्यस्त भी नहीं वरन् पूर्णतया क्रमबद्ध भी है। इसी क्रम निर्धारण और नियामक सत्ता को कोई भी अपने समीपतम क्षेत्र में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। इस प्रमाण को प्रमाणित करने की किसे क्या आवश्यकता पड़ेगी ?
शरीर से पृथक आत्मा की अपनी स्वतंत्र सत्ता के संबंध में वैज्ञानिक क्षेत्रों में कितने ही अन्वेषण कार्य हुए हैं। इन्हीं प्रयोगों में एक प्रयास मनोविज्ञान अनुसंधान समिति का है। उस संस्था ने अपने शोध परिणाम ‘दी ह्यूमन परसनैलिटी एंड इट्स सरवाइवल ऑफ बॉडीली डैथ’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किये हैं। इस पुस्तक में कितने ही उदाहरण ऐसे प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें शरीर से भिन्न आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध होता है। कुछ उदाहरण विशेष घटनाओं के पश्चात् व्यक्तियों की जीवन भर की संचित स्मृति पूर्णतया नष्ट होकर एक अजनबी व्यक्तित्व उस शरीर में काम करने लगने के हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि शरीर पर आधिपत्य रखने वाली आत्मा को धकेलकर उस स्थान पर कोई दूसरी आत्मा कब्जा कर सकती है और जब तक चाहे वहाँ रह सकती है। इन घटनाओं में कुछ ऐसी भी है जिनमें आधिपत्य जमाने वाली आत्मा ने अपना कब्जा छोड़कर पुरानी आत्मा को उस शरीर में वापस लौट आने का अवसर दिया।
उपरोक्त पुस्तक में ऐसे छोटे बच्चों के उद्धरण भी दिये हैं, जो गणित, संगीत, ज्यामिति, चित्रकला आदि में इतना पारंगत थे जितने उस विषय के प्राध्यापक भी नहीं होते। बिना शिक्षा-व्यवस्था के पाँच-छह वर्ष जितनी छोटी आयु में ही इस प्रकार का असाधारण ज्ञान होना, इसी एक आधार पर संभव होता है कि किसी आत्मा को अपने पूर्व जन्म की संचित ज्ञान सामग्री उपलब्ध हो। यह पूर्व जन्म की सिद्धि आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

स्वीडन देश के स्टॉकहोम नगर में एक भविष्य सूचना की विवरण डेजन्स नेहटर पत्र में कुछ समय पूर्व प्रकाशित हुआ था, जो अक्षरश: सत्य सिद्ध हुआ। बात यह थी कि हेन्स क्रेजर नामक एक व्यक्ति ने अपने कमरे में बैठे एक दिवास्वप्न देखा कि चौथी मंजिल पर एक अधेड़ व्यक्ति ने एक नवयुवती की चाकू मारकर हत्या कर दी। हेन्स को वह घटना इतनी सत्य प्रतीत हुई कि वह अपने को रोक न सका और सीधा पुलिस दफ्तर में रिपोर्ट करने पहुँचा। पुलिस बताये गये कक्ष में पहुँची तो पाया कि वह कमरा मुद्दतों से बंद था और उसमें थोड़ा-सा फर्नीचर मात्र ही रखा था। झूठी रिपोर्ट करने के अभियोग में हेन्स को पागलखाने भेजा गया।

जाँच पूरी भी न हो पाई थी कि एक सप्ताह के भीतर ही वह रिपोर्ट अक्षरश: सत्य हो गई। किसी व्यक्ति ने उस मकान को किराये पर लिया और साथ वाली औरत की चाकू से हत्या कर दी। चीख पुकार के बीच हत्यारा पकड़ा गया। मृत युवती और आक्रमणकारी अधेड़ का हुलिया बिल्कुल वैसा ही था जैसा कि रिपोर्ट में उल्लेख किया गया था। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए उपरोक्त अखबार ने टिप्पणी की कि इस संसार में बहुत कुछ पूर्व व्यवस्थित क्रम से हो रहा है और उनकी जानकारी आत्मा की प्रखर चेतना समय से पूर्व भी जान सकती है।
पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय (अमेरिका) के प्राचार्य लेंबरटन एक वैज्ञानिक गुत्थी को सुलझाने में वर्षों से लगे थे। एक रात को उन्होंने स्वप्न देखा कि सामने की बड़ी दीवार पर उनके प्रश्न का उत्तर चमकदार अक्षरों में लिखा है। जागने पर उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ कि इतना सही उत्तर किस प्रकार उन्हें स्वप्न में प्राप्त हो गया।

रॉयल सोसाइटी के अध्यक्ष सर ऑलीवर लॉज तथा सर विलियम क्रुक्स, सर आर्थर कानन डायल, डॉ. मेयर्स आदि वैज्ञानिक विद्वानों ने अपने अनुसंधान द्वारा निकले हुए निष्कर्षों को सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में छपाया था, जिनसे मृत्यु के उपरांत पुनर्जन्म के प्रमाण मिलते हैं, साथ ही यह भी सिद्ध होता है मरण और नवीन जन्म के बीच कतिपय मनुष्यों को सूक्ष्म शरीर धारण करके प्रेत रूप में भी रहना पड़ता है।

सर ऑलीवर लॉज की मरणोत्तर जीवन पर प्रकाश डालने वाली ‘केमंड मेंथून’, ‘विज्ञान और मानव विकास’ तथा ‘मैं आत्मा के अमरत्व में क्यों विश्वास करता हूँ ?’ नामक तीन पुस्तकों में विस्तृत प्रकाश डाला है। इसी प्रकार उच्च कोटि के कितने ही विज्ञानवेत्ताओं ने इसी प्रकार की पुष्टि की है। ऐसे विद्वानों में एलफ्रेड रसल, वैलेस सर विलियम क्रुक्स, सर एडवर्ड मार्शल के नाम अधिक प्रख्यात हैं।

मनोविज्ञानी जे. डब्ल्यू. ड्रेवर ने अपनी पुस्तक ‘दी कनफ्लिक्ट बिटवीन रिलीजन एंड साइन्स’ पुस्तक में प्राचीन यूनान की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि- ‘‘रोम निवासियों की यह मान्यता रही है कि आत्मा का सूक्ष्म आकार स्थूल शरीर जैसा होता है और शरीर की स्थिति के साथ-साथ आत्मा की स्थिति में भी अंतर आता है।’’ यह प्रतिपादन भारतीय अध्यात्म के साथ मेल नहीं खाता, तो भी इतना तो स्पष्ट है कि शरीर से भिन्न आत्मा की सत्ता को न केवल भारतीय तत्वज्ञान ही ने माना है, वरन् संसार के अन्य भागों में भी उस सिद्धांत को मान्यता प्राप्त रही है।

भविष्यवाणी के इतिहास पर दृष्टिपात करते हुए यह तथ्य स्पष्ट हो चला है कि किन्हीं व्यक्तियों में पूर्वाभास की क्षमता आश्चर्यजनक रूप से पाई जाती है। उनकी भविष्यवाणियाँ असंदिग्ध रूप से समय पर सत्य सिद्ध होती हैं। इसका कारण क्या है ? और इस शक्ति को प्राप्त कर सकना हर किसी के लिए संभव है या नहीं ? है तो किस प्रकार ? आदि प्रश्नों के उत्तर आज उपलब्ध नहीं हैं; फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि संसार में असंदिग्ध भविष्यवाणियाँ कर सकने वाले लोग भी हुए हैं। यह तथ्य भी जड़ जगत् में किसी अलौकिक सत्ता का अस्तित्व सिद्ध करने का कम महत्त्वपूर्ण आधार नहीं है।

महायुद्ध छिड़ने से पहले की बात है, लंदन में स्पेन दूतावास में एक भोज दिया गया, जिसमें ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री लार्ड हैली फैक्स सम्मिलित थे। आमंत्रित अतिथियों में भविष्यवक्ता डी.ह्लोल भी थे। वे संयोग से विदेश मंत्री महोदय की बगल में ही बैठे थे। उन्होंने चुपके से भावी महायुद्ध उसके संबंध में हिटलर की पूर्व योजनाओं की जानकारी बताने का अनुरोध किया। उसके उत्तर में ह्वेल ने कई ऐसी बातें बताईं, जो अप्रत्याशित थीं। हैली फैक्स ने वायदा किया कि यदि उनकी भविष्यवाणी सच निकली तो उन्हें सम्मानित सरकारी पद दिया जायेगा। भविष्यवाणी सच निकली। तदनुसार उन्हें फौज में कैप्टन का पद दिया गया।


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