आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री का मंत्रार्थ गायत्री का मंत्रार्थश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री का मंत्रार्थ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
गायत्री के 24 अक्षरों में ज्ञान-विज्ञान का महान् भण्डार छिपा हुआ है।
उसके एक-एक अक्षर में इतना दार्शनिक तत्वज्ञान सन्निहित है जिसका पूरी तरह
पता लगाना कठिन है। आध्यात्मिक और भौतिक सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान उसके
गर्भ में मौजूद हैं, जिनका यदि ठीक-ठीक पता चल जाय तो मनुष्य उन सभी
वस्तुओं को प्राप्त कर सकता है जो उसे अभीष्ट हैं।
गायत्री वेद माता है। गायत्री से ही चारों वेद और उनकी ऋचायें निकली हैं। वेद समस्त विद्याओं के भण्डर हैं। समस्त तत्वज्ञान और भौतिक-विज्ञान वेदों के अन्तर्गत मौजूद हैं। जो कुछ वेद में है उसका सार गायत्री में है यदि कोई गायत्री को भली प्रकार समझ ले तो उसे वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद् आदि की सभी बातों का ज्ञान स्वयमेव हो सकता है।
एक -एक अक्षर का, एक-एक पद का, क्या अर्थ, भाव, रहस्य एवं सन्देश है, उसको जानने के लिए मनुष्य का एक-एक जीवन भी अपर्याप्त है। गायत्री के 24 अक्षर ज्ञान-विज्ञान के 24 समुद्र हैं उनका पार पाना साधारण काम नहीं है। फिर भी उनका कुछ संक्षिप्त-सा परिचय पाठकों को हो जाय, इस उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी गई है।
विभिन्न ऋषियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से गायत्री महामन्त्र का अर्थ किया है। अनेक ग्रन्थों में अनेक प्रकार से उसके भाष्य उपलब्ध हैं। यह भिन्नता प्रतिकूलता या विरोध की द्योतक नहीं वरन् एक-दूसरे की पूरक है। जो बात एक से छूट गयी है, वह दूसरे में पूरी की गई है, फिर भी यह सब मिलकार गायत्री का अर्थ सर्वांगपूर्ण हो गया है ऐसा नहीं कहा जा सकता। जितना प्रकट हुआ है उसकी अपेक्षा अनेक गुना रहस्य अभी अप्रकट है।
इतने विशद ज्ञान भण्डार की सम्पूर्णतया जानकारी होना मनुष्य की स्वल्प बुद्धि के लिए कठिन है। हमारे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए तो वह और भी कठिन है। सार्वजनिक उपयोग के लायक जितना कुछ अर्थ-ज्ञान हम उपस्थित कर सकते थे, उपस्थित किया है। आशा है कि गायत्री का अर्थ जानने के उत्सुक जिज्ञासुओं के लिए यह पुस्तक किसी हद तक उपयोगी ही सिद्ध होगी।
गायत्री वेद माता है। गायत्री से ही चारों वेद और उनकी ऋचायें निकली हैं। वेद समस्त विद्याओं के भण्डर हैं। समस्त तत्वज्ञान और भौतिक-विज्ञान वेदों के अन्तर्गत मौजूद हैं। जो कुछ वेद में है उसका सार गायत्री में है यदि कोई गायत्री को भली प्रकार समझ ले तो उसे वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद् आदि की सभी बातों का ज्ञान स्वयमेव हो सकता है।
एक -एक अक्षर का, एक-एक पद का, क्या अर्थ, भाव, रहस्य एवं सन्देश है, उसको जानने के लिए मनुष्य का एक-एक जीवन भी अपर्याप्त है। गायत्री के 24 अक्षर ज्ञान-विज्ञान के 24 समुद्र हैं उनका पार पाना साधारण काम नहीं है। फिर भी उनका कुछ संक्षिप्त-सा परिचय पाठकों को हो जाय, इस उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी गई है।
विभिन्न ऋषियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से गायत्री महामन्त्र का अर्थ किया है। अनेक ग्रन्थों में अनेक प्रकार से उसके भाष्य उपलब्ध हैं। यह भिन्नता प्रतिकूलता या विरोध की द्योतक नहीं वरन् एक-दूसरे की पूरक है। जो बात एक से छूट गयी है, वह दूसरे में पूरी की गई है, फिर भी यह सब मिलकार गायत्री का अर्थ सर्वांगपूर्ण हो गया है ऐसा नहीं कहा जा सकता। जितना प्रकट हुआ है उसकी अपेक्षा अनेक गुना रहस्य अभी अप्रकट है।
इतने विशद ज्ञान भण्डार की सम्पूर्णतया जानकारी होना मनुष्य की स्वल्प बुद्धि के लिए कठिन है। हमारे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए तो वह और भी कठिन है। सार्वजनिक उपयोग के लायक जितना कुछ अर्थ-ज्ञान हम उपस्थित कर सकते थे, उपस्थित किया है। आशा है कि गायत्री का अर्थ जानने के उत्सुक जिज्ञासुओं के लिए यह पुस्तक किसी हद तक उपयोगी ही सिद्ध होगी।
श्रीराम शर्मा आचार्य
मंगलाचरणम्
यन्मंडलं दीप्तिकरं विशालम्
रत्नप्रभं तीव्रमनादिरूपम्।
दारिद्र्य दुःखक्षयकारणं च,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।1।।
रत्नप्रभं तीव्रमनादिरूपम्।
दारिद्र्य दुःखक्षयकारणं च,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।1।।
जिसका मण्डल प्रकाश देने वाला, विशाल रत्न प्रभा वाला, तेजस्वी तथा अनादि
रूप है, जो दरिद्रता और दुःख को क्षय करने वाला है, वह उपासनीय सविता मुझे
पवित्र करे।
यन्मंडलं देवगणैः सुपूजितम्
विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम्।
तं देवदेवं प्रणमामि भर्गं,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।2।।
विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम्।
तं देवदेवं प्रणमामि भर्गं,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।2।।
जिसका मण्डल देवगणों द्वारा पूजित है, मानवों को मुक्ति देने वाला है,
विप्रगण जिसका स्तुति करते हैं, उस देव सूर्य को प्रणाम करता हूँ, वह
उपासनीय सविता मुझे पवित्र करे।
यन्मंडलं ज्ञानघनंत्वगम्यं,
त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्मरूपम्।
समस्त तेजोमय दिव्य रूपं
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।3।।
त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्मरूपम्।
समस्त तेजोमय दिव्य रूपं
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।3।।
जिसका मण्डल ज्ञान के घनत्व को जानता है, जो त्रय लोक द्वारा पूजित एवं
प्रकृति स्वरूप है, तेज वाला एवं दिव्य रूप है। वह उपासनीय सविता मुझे
पवित्र करे।
यन्मण्डलं गूढ़यति प्रबोधम्,
धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्।
तत् सर्वपापक्षय कारणं च,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।4।।
धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्।
तत् सर्वपापक्षय कारणं च,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।4।।
जिसका मण्डल गुप्त योनियों को प्रबोध रूप है, जो जनता के धर्म की वृद्धि
करता है, जो समस्त पापों के क्षय का कारणीभूत है वह उपासनीय सविता मुझे
पवित्र करे।
यन्मण्डलं ब्याधि विनाशदक्षम्,
यदृग यजुः समासु सम्प्रगीतम्।
प्रकाशितं ये न च भूर्भुवः स्वः,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।5।।
यदृग यजुः समासु सम्प्रगीतम्।
प्रकाशितं ये न च भूर्भुवः स्वः,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।5।।
जिसका मण्डल रोगों को नष्ट करने में दक्ष है, जिसका वर्णन ऋक्, यजु और साम
में हुआ है, जो पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्ग तक प्रकाशिक है वह उपासनीय
सविता मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति,
गायन्ति यच्चारण सिद्धसंघाः।
यद्योगिनो योगजुषां च संघाः,
पुनातु मा तत्सवितुर्वरेण्यम्।।6।।
गायन्ति यच्चारण सिद्धसंघाः।
यद्योगिनो योगजुषां च संघाः,
पुनातु मा तत्सवितुर्वरेण्यम्।।6।।
वेदज्ञ जिसके मण्डल का वर्णन करते हैं, जिसका गान चारण तथा सिद्धगण करते
हैं, योग युक्त योगी लोग जिसका ध्यान करते हैं वह उपासनीय सविता मुझे
पवित्र करे।
यन्मण्डलं सर्व जनेषु पूजितं,
ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्त्यलोके।
यत्काल कालादिमनादि रूपम्,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम।।7।।
ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्त्यलोके।
यत्काल कालादिमनादि रूपम्,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम।।7।।
जिसके मण्डल का पूजन सब लोग करते हैं, मृत्युलोक में जो प्रकाश फैलाता है,
जो काल का भी काल रूप है, अनादि है वह उपासनीय सूर्य मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं विष्णुचतुर्मुखास्यं,
यदक्षरं पापहरं जनानाम्।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।8।।
यदक्षरं पापहरं जनानाम्।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।8।।
जिसका मण्डल विष्णु तथा ब्रह्मस्वरूप है, जो अक्षर है और जनों का पाप नष्ट
करता है, जो काल को भी नष्ट करने में समर्थ है, वह उपासनीय सूर्य मुझे
पवित्र करे।
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं,
उत्पत्तिरक्षा प्रलय प्रगल्भम्।
यस्मिन् जगत् संहरतेऽखिलं च,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।9।।
उत्पत्तिरक्षा प्रलय प्रगल्भम्।
यस्मिन् जगत् संहरतेऽखिलं च,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।9।।
जिसके मण्डल द्वारा विश्व का सृजन हुआ है, जो उत्पत्ति, रक्षा तथा संहार
करने में समर्थ है, जिसमें यह समस्त जगत लीन हो जाता है, वह उपासनीय सविता
मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोः,
आत्मा परं धाम विशुद्धतत्वम्।
सूक्ष्मातिसूक्ष्मयोगपथानुगम्यं,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।10।।
आत्मा परं धाम विशुद्धतत्वम्।
सूक्ष्मातिसूक्ष्मयोगपथानुगम्यं,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।10।।
जिसका मण्डल सर्वव्यापक विष्णु का स्वरूप है, जो आत्मा का परम धाम है और
जो विशुद्ध तत्त्व है, योग पथ से सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद को भी जानता है,
वह उपासनीय सविता मुझे पवित्र करे।
यन्मण्डलं ब्रह्माविदो वदन्ति,
गायन्ति यच्चारण सिद्धसंघाः।
यन्मण्लं वेदविदः स्मरन्ति,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।11।।
गायन्ति यच्चारण सिद्धसंघाः।
यन्मण्लं वेदविदः स्मरन्ति,
पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्।।11।।
जिसके मण्डल का वर्णन ब्रह्मज्ञ करते हैं, जिसका यशोगान चारण और सिद्धि गण
करते हैं, जिसकी महिमा का वेदविद् स्मरण करते हैं, वह उपासनीय सविता मुझे
पवित्र करे।
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