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आचार्य श्रीराम शर्मा >> चिरयौवन एवं शाश्वत सौन्दर्य

चिरयौवन एवं शाश्वत सौन्दर्य

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : अखण्ड ज्योति संस्थान प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :567
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4305
आईएसबीएन :00000

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चिरयौवन एवं शाश्वत सौन्दर्य....

Chiryauvan Evam Saswat Saundrya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पणम्

ॐ मातरं भगवतीं देवीं श्रीरामञ्ञ जगद्गुरुम्।
पादपद्मे तयो: श्रित्वा प्रणमामि मुहुर्मुह:।।

मातृवत् लालयित्री च पितृवत् मार्गदर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै श्रद्धा-प्रज्ञा युता च या।।

भगवत्या: जगन्मातु:, श्रीरामस्य जगद्गुरो:।
पादुकायुगले वन्दे, श्रद्धाप्रज्ञास्वरूपयो:।।

नमोऽस्तु गुरवे तस्मै गायत्रीरूपिणे सदा।
यस्य वागमृतं हन्ति विषं संसारसंज्ञकम्।।

असम्भवं सम्भवकर्तुमुद्यतं प्रचण्डझञ्झावृतिरोधसक्षमम्।
युगस्य निर्माणकृते समुद्यतं परं महाकालममुं नमाम्यहम्।।

त्वदीयं वस्तु गोविन्द ! तुभ्यमेव समर्पये।

भूमिका

मानवी स्वास्थ्य एवं आयुष्य का मूलभूत आधार है आध्यात्मिक जीवनक्रम अपनाते हुए अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं -चिरपुरातन आयुर्वेद की ‘‘स्वस्थवृत्त समुच्चय’’ जैसी धारणाओं को जीवन में उतारते हुए जीवनचर्या चलाना। आज व्यक्ति अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है। आधुनिक विज्ञान की बदौलत जीवित भी है तो दवाओं के आश्रय पर व किसी तरह जीवन की गाड़ी खींच रहा है। समस्त प्रगति के आयामों को पार करने के बावजूद भी ऐसा क्यों है कि बीमार सतत बढ़ते ही चले जाते हैं, रुग्णालय भी आयामों को पार करने के बावजूद भी ऐसा क्यों है कि बीमार सतत बढ़ते ही चले जाते हैं, रुग्णालय भी बढ़ रहे हैं व चिकित्सक भी किन्तु स्वास्थ्य लौटता कहीं नहीं दिखाई देता। अन्दर से वह स्फूर्ति तेजस्विता विरलों के ही अन्दर देखी जाती है। बहुसंख्य व्यक्ति निस्तेज रह किसी तरह तमाम असंयमों के साथ -साथ जीवन जीते देखे जाते हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने स्वास्थ्य सम्बन्धी इस खण्ड में नीरोग जीवन का, चिरयौवन का मूलभूत आधार बताने का प्रयास किया है।
 
हर व्यक्ति अपने लिए चिरस्थायी यौवन का खजाना ढूँढता दिखाई देता है पर यह उसे बहिरंग में उपलब्ध नहीं होगा। कस्तूरी मृग में छिपी नाभि के अन्दर वह ‘इटरनल फाऊण्टेन ऑफ यूथ’ अपने अन्दर ही है। वार्धक्य से हर व्यक्ति दूर रहना चाहता है, अशक्ति नहीं चाहता किन्तु करता वह सब कुछ वही है जो उसे वार्धक्य के और दृष्टि से मनुष्य खोखला हो गया है। कैसे वह स्वास्थ्य रूपी संजीवनी पुनः लौटे ताकि नीरोग रह जीवन का आनन्द लिया व धर्म अर्थ काम मोक्ष रूपी पुरुषार्थों का परिपालन किया जा सके, यह विस्तृत मार्गदर्शन इस खण्ड में हैं।

परमपूज्य गुरुदेव एक ऋषि दृष्टा स्तर की ऐसी सत्ता के रूप में ख्याति प्राप्त हैं जो न केवल एक वैज्ञानिक –चिन्तक- मनीषी थे किन्तु जिन्हें मानव की कारण –सूक्ष्म- स्थूल सत्ता का एक समग्र चिकित्सक माना जा सकता है। पूज्यवर लिखते हैं कि आरोग्य का आधार है-शारीरिक श्रम। आज व्यक्ति मशीनों का अवलम्बन लेता दिखाई देता है, हर दैनन्दिन जीवन के कार्य में। शारीरिक श्रम व्यक्ति को अक्षुण्य स्वास्थ्य देता है चाहे वह बागवानी के रूप में किया गया अपनी रुचि का एक अभ्यास ही क्यों न हो। आहार संयम, विचार संयम, सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण को मूलभूत धुरी बताते हुए उनने –मानसिक- शारीरिक -स्वास्थ्य को बनाए रखने का परिपूर्ण शिक्षण इस खण्ड के विभिन्न अध्यायों में दिया है।
 
कामुक चिन्तन- कुदृष्टि मानसिक ब्रह्मवर्चस् को भंग करना भी क्रमशः व्यक्ति को छूँछ बनाता चला जाता है। किसी चलनी में दूध नहीं दुहा जा सकता। इसी प्रकार व्यक्ति को संयम अपनाते हुए अपने चिन्तन को सतत विधेयात्मक, सतोगुणी, ऊर्ध्वगामी बनाए रखना होगा तभी उसका स्वास्थ्य सही रह सकता है। मनःस्थित स्वास्थ्य पर प्रभाव डालती है एवं सतत शरीर के हर जीवकोश को प्रभावित करती रहती है यदि मनःस्थिति सही हो तो परिस्थितियाँ व्यक्ति अपनी निश्चित रुपेण सही बना सकता है। आहार भी व्यक्ति के विचार भी -रहने की जीवन शैली भी स्वास्थ्य पर पूरा प्रभाव डालते हैं। आहार सम्बन्धी -कामेन्द्रियों सम्बन्धी असंयम को अपनाकर व्यक्ति आत्मघात ही करता है। आध्यात्मिक चिन्तन कर कैसे इसे सही रखा जाय, सात्विक आहार द्वारा कैसे नीरोग, सतत स्फूर्ति मस्ती भरा जीवन जिया जाय- इसकी कुंजी इस खण्ड में है।

प्रकृति की समरसता के अनुकूल जीवन ही सही जीवन है। इस आवश्यकता और उपयोगिता को नैसर्गिक जीवन के साहचर्य की फल श्रुतियों को इस खण्ड में विस्तार से बताया गया है। पंचतत्त्वों की इस काया को प्रकृति में विद्यमान पंचतत्त्वों को सुव्यवस्थित कर सही रखा जा सकता है। प्राकृतिक जीवन आज के भौतिकवादी युग में कैसे जिया जाय- इसका मार्गदर्शन पाठकगण पा सकते व लाभान्वित हो सकते हैं पंचतत्त्व चिकित्सा, सूर्य चिकित्सा धूप स्नान, वाष्प स्नान, मालिश आदि व निद्रां जागरण की सुव्यवस्थित नीति अपनाकर हर कोई स्वस्थ रह सकता है।

इस खण्ड में अक्षुण्य स्वास्थ्य, दीर्घजीवन, चिरयौवन, स्फूर्ति भरे जीवन के हर क्षण के कुछ मूलभूत सिद्धान्त बताये गये हैं। इनमें से यदि कुछ का भी परिपालन किया जा सके तो व्यक्ति को कभी चिकित्सक का मुँह देखने की जरूरत नहीं है। कब्ज से मुक्ति पाकर कोष्ठ शुद्धि कर व्यक्ति कैसे दोष मुक्त एवं स्वस्थ हो सकता है, यह हर कोई जानता है। कब्ज हमारी अपनी ही आहार की आदतों- जीवन शैली की देन है। सड़ा हुआ मल ही व्यक्ति को निस्तेज बनाता रोगी एवं क्रमशः खोखला बनाता चला जाता है। इसी प्रकार बहिरंग-अंतरंग की स्वच्छता के कुछ नियम यदि पाले जा सकें तो वे भी शरीर को स्वस्थ बनाए रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।

आध्यात्मिक-मानसिक-शारीरिक हर दृष्टि से सर्वागंपूर्ण स्वस्थ जीवन हर कोई जी सकता है। जरूरत मात्र इस बात की है कि व्यक्ति आत्म नियंत्रण सीख लें। विचार संयम, इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम इन्हें अपनाकर हर कोई चिरयौवन को प्राप्त हो सकता है यह एक ध्रुव सत्य है, जिसे इस खण्ड़ में प्रतिपादित किया गया है।

ब्रह्मवर्चस

चिरस्थायी यौवन

यौवन क्या है?


यौवन जीवन की एक स्थिति है। एक ऐसा लक्षण है, जिससे यह ज्ञात होता है कि जीवन किस दशा में चल रहा है ? जीवन में प्राणशक्ति का प्रवाह उच्च अथवा निम्न किस ओर प्रवाहित हो रहा है। यौवन जीवन का प्रतीक है यह शक्ति प्राण अथवा जीवाणु तत्वों का चिन्ह है। जीवन का सरस बसन्त है। मानव जीवन में जो रस, माधुर्य, सौन्दर्य या मादकता है, वह यौवन में प्रस्फुटित होता है।

यौवन जीवन की एक परिभाषा है। यह वह स्थिति है, जिसमें मनुष्य का जीवन- क्रम अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में सम्पूर्ण स्फूर्ति से कार्य क्षेत्र में प्रविष्ट होकर द्रुतगति से सरल, कठिन, शुष्क कार्य सरलता से करता चलता है। स्नायुशैथिल्य या रक्त की विकृतावस्था का शिकार नहीं होता। यौवन जीवन की सरल हरियाली है, रसयुक्त बहुमुख तंरगिणी है, मधुर आनन्ददायिनी, सौन्दर्यशील अमरता का आनन्द स्रोत है।

यौवन स्वास्थ्य और प्राणशक्ति का चिह्न है। प्रायः लोग आयु पूछकर किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य और प्राणशक्ति के विषय में कल्पनायें किया करते हैं। अमुक व्यक्ति की आयु चालीस को पार कर गई है, अतः अब उसमें निर्बलता होनी ही चाहिये। अमुक व्यक्ति कमजोर बीमार-सा प्रतीत होता है। वह अधेड़ आयु का होना चाहिये। अमुक व्यक्ति बीमार पड़ता है, उसमें प्राणशक्ति का ह्रास हो गया है। अतः वह वृद्ध होना चाहिये। वह सभी कल्पनायें मूर्खताजन्य हैं।

हम कल्पना करते हैं कि आयु अधिक होने से वृद्धावस्था का आगमन प्रारम्भ हो गया है। अब हमारी कार्यशक्ति का क्षय प्रारम्भ हो जायेगा। वृद्धावथा आ रही है। अब मृत्यु समीप है, अब जीवन में क्या अवशेष है ? ये सब हमारी मूर्खतापूर्ण अनीतिकर थोथी कल्पनायें हैं। इन कुत्सित कल्पनाओं ने मानव समाज का बड़ा अनर्थ किया है। जवानी हृदय की भावनाओं की ताजगी का नाम है।

युवावस्था ही सच्चा जीवन है


‘‘यौवन’’ और ‘जीवन’’ दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, जिसमें जितना शेष है, वह उसी अनुपात में युवक है। जीवन की रक्षा, प्राणशक्ति की अभिवृद्धि मानसिक आशावादिता सब हमारी जिन्दगी के अनमोल तत्व हैं। उम्र से यौवन का कोई सम्बन्ध नहीं है। उम्र अधिक होने से यौवन का ह्रास नहीं होता। मनुष्य की आयु तो उसी के द्वारा निर्मित एक विधान है। जो व्यक्ति तीस वर्ष की आयु में मरता है, वह इक्कीस वर्ष की आयु में युवक कहा जायेगा किन्तु वरनार्डशॉ की जो 94 वर्ष तक जीवन का माधुर्य लुटता रहा, उसकी जवानी तीस वर्ष से प्रारम्भ होकर 80 या 90 वर्ष तक रह सकती है।

 जिसकी आयु जितनी ही अधिक रहेगी, उसका यौवन भी उसी के अनुसार निश्चित किया जायेगा। संसार में जो दीर्घजीवी व्यक्ति हुये हैं, जिनकी आयु 90 वर्ष से ऊपर होकर रही है, उनकी जवानी दीर्घकाल तक चलती रही। जीवन की उच्चतम शक्तियों का प्रभाव उसी गति से अन्त तक चलता रहा जिससे वह यौवन के प्रभात में प्रारम्भ हुआ था। आयु और यौवन दो भिन्न-भिनन मान्यताएँ हैं। आयु एक अनन्त समुद्र है, जिसकी गहनता, अगाधता नापी नहीं जा सकती, यौवन उसकी उठने वाली, उस सतत् सचेतन, सतेज सक्रिय रखने वाली तरंगे हैं। यौवन, उत्साह का शक्ति और आशा का द्योतक है। आयु मानव की एक मर्यादा मात्र है।


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