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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनस्विता प्रखरता और तेजस्विता

मनस्विता प्रखरता और तेजस्विता

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : अखण्ड ज्योति संस्थान प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :422
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4310
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत है मनस्विता प्रखरता और तेजस्विता....

Manasvita Prakharata Aur Tejswita

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पणम्

ॐ मातरं भगवतीं देवीं श्रीरामञ्ञ जगद्गुरुम्।
पादपद्मे तयो: श्रित्वा प्रणमामि मुहुर्मुह:।।

मातृवत् लालयित्री च पितृवत् मार्गदर्शिका।
नामोऽस्तु गुरुसत्तायै श्रद्धा-प्रज्ञा युता च या।।

भगवत्या: जगन्मातु:, श्रीरामस्य जगद्गुरो:।
पादुकायुगले वन्दे, श्रद्धाप्रज्ञास्वरूपयो:।।

नमोऽस्तु गुरवे तस्मै गायत्रीरूपिणे सदा।
यस्य वागमृतं हन्ति विषं संसारसंज्ञकम्।।

असम्भवं सम्भवकर्तुमुद्यतं प्रचण्डझञ्झावृतिरोधसक्षमम्।
युगस्य निर्माणकृते समुद्यतं परं महाकालममुं नमाम्यहम्।।

त्वदीयं वस्तु गोविन्द ! तुभ्यमेव समर्पये।

भूमिका

चमत्कारों को, जो हम दैनन्दित में भौतिक-आध्यात्मिक जगत में होते देखते हैं, असंभव-सा मान बैठते है एवं कार्य-कारण से उसकी संगति नहीं बिठा पाते है, वस्तुतः संकल्पशक्ति रूपी कल्पवृक्ष की परिणित ही मानना चाहिए। कल्पनाएं तो रंगीन स्वप्न है-मनोरंजन मात्र पूरा कर पाती है। ऊँची उड़ानें उड़ने और रंग-बिरंगे सपने देखने वालों की कोई कमी नहीं है। मनोरथ पूरा न होने पर ऐसे व्यक्ति खिन्न व उदास देखे जाते हैं महत्त्वपूर्ण सफलताएँ सदैव दृढ़ संकल्प-शक्ति के आधार पर ही मिलती हैं, भले ही उन्हें उस व्यक्ति की जीवन के आधार पर मिली उपलब्धि माना जाय अथवा एक चमत्कार। परमपूज्य गुरुदेव प० श्रीराम शर्मा जी आचार्य ने सदैव विधेयात्मक चितंन-सुदृढ़ मनोबल बढ़ाने की दिशा में प्रेरणा देने वाला साहित्य सृजन किया एंव लिखा कि आदमी की प्रखरता व तेजस्विता जो बहिरंग में दृष्टिगोचर होती है, इसी मानस्विता की दृढ़ संकल्पशक्ति की ही एक फलश्रुति है। वे लिखते हैं कि जैसे किसान बीजों को रोपता है एवं अंकुर उगने से लेकर फसल की उत्पत्ति तक एक सुनियोजित क्रमबद्ध प्रयास करता है, उसी प्रकार संकल्प भी एक प्रकार का बीजारोपण है। किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए एक सुनोयोजित निर्धारण का नाम ही संकल्प है। अभीष्ट तत्परता बरती जाने पर यही संकल्प जब पूरा होता है तो उसकी चमत्कारी परिणित सामने दिखायी पड़ती है। उज्ज्वल भविष्य में प्रवक्ता परमपूज्य गुरुदेव नवयुग के उपासक के रूप में संकल्पशक्ति के अभिवर्द्धन से तेजस्वी-प्रतिभाओं समुदाय के उभरने की चर्चा वाङमय के इस खण्ड में करते हैं।

संकल्पशीलता को व्रतशीलता भी कहा गया है। व्रतधारी ही तपश्वी और मानवी कहलाते हैं। मनःसंस्थान का नूतन नवनिर्मांण कर पाना संकल्प का ही काम है। संकल्पवानों के, प्राणवानों के संकल्प कभी अधूरे नहीं रहते। सृजनात्मक संकल्प ही व्यवहार में सक्रियता एवं प्रवृत्तियों में प्रखरता का समावेश कर पाते है। परमपूज्य गुरुदेव बार-बार संकल्पशीलता के इस पक्ष को अधिक महत्ता के साथ प्रतिपादित करते हुए एक ही तथ्य लिखते हैं कि आज नवयुग की आधारशिला हमें रखनी है तो वह संकल्पशीलों के प्रखर पुरुषार्थ से उनकी तेजस्विता एवं मनस्विता के आधार पर ही संभव हो सकेगी। ऐसे व्यक्ति जितनी अधिक संख्या में समाज में बढ़ेंगे परिवर्तन का चक्र उतना ही द्रुतगति से चल सकेगा।
 
यह एक निर्धारित एवं सुविख्यात तथ्य है कि विचारों से मनोभूमि पर स्थायी प्रभाव पड़ता है और जिनसे अतःकरण पर अमिट छाप पड़ती है, वे पुनरावृत्ति के कारण स्वभाव का एक अंग बन जाते है। विधेयात्मक चिन्तन की बारम्बार पुनरावृत्ति करने व उन विचारों को क्रमबद्ध रीति से सजाने की कला जिन्हें आती है। वे मानव भाग्य दृष्टिकोण और वातावरण परिवर्तन कर सकते हैं और इसी प्रक्रिया की फलश्रुति जीवन में अपरिमित सफलताओं के रूप में मिलती है। जीवन वस्तुतः संकल्प बीज की एक लहराती हुई हरी-भरी फसल के समान है। फसल जीवन जीने की आकांक्षा यदि साकार करनी हो, तो पहले अपने मनः क्षेत्र में सकारात्मक बीजों का आरोपण करना चाहिए। संकल्प शक्ति की साधना और आत्मनिरीक्षण से व्यक्तित्व को इच्छित ऊँचाई तक पहुँचाया जा सकता है। इसमें जरा भी संशय किसी को नहीं होना चाहिए।

विधेयात्मक इच्छाशक्ति एवं निषेधात्मक चिन्तन की परिणितियों के अनेकानेक दैनन्दिन जीवन के उदाहरणों के साथ पूज्यवर ने प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि विचारों की शक्ति से ही मानवी क्रियाकलापों का सारा बहिरंग स्वरूप निखर कर आता है। सिकन्दर, गैरीसन, डार्विन, चाणक्य, महाराणा प्रताप, विंस्टन चर्चिल से लेकर परमहंस योगानन्द तक के उदाहरणों द्वारा उनने संकल्पशक्ति की महत्ता प्रतिपादित करने का प्रयास किया है।

जीवन या जीवनी-शक्ति का बाहुल्य ही मनुष्य को प्राणवान, स्फूर्तिवान, ओजस्वी, प्रतिभाशाली बनाता है। साहस, पराक्रम, उत्साह और स्फूर्ति का समन्वय ही जीवट के रूप में जाना जाता है। यदि यह हो तो सामान्य काया भी कम समय में ऊँचे स्तर के कार्य सम्पन्न कर सकती है। शरीरगत तत्परता एवं मनोगत तत्परता का जहाँ योग होता है, वहां व्यक्तित्व में चमत्कारी जादुई जीवन उभर कर आ  जाती है एवं यही बाह्म जीवन की सारी सफलताओं की मूल धुरी कहलाती है। इसी जीवट के अभाव में एक बलिष्ठ-सा दीखने वाला व्यक्ति भी भद्दा मोटा अजगर बनकर ज्यों-त्यों जीवन गुजारता हुआ समय काटकर धरती से चला जाता है। ओजस्विता के बीजांकुर वस्तुतः हर किसी के अंतराल में हैं, आवश्यकता उन्हें जाने भर की है।
मनोबल, संकल्प-शक्ति, इच्छाशक्ति, साहस, पराक्रम-पुरुषार्थ सभी जिस एक गंगोत्री से निकलते एवं किसी व्यक्ति के प्रभावशाली आकर्षंण तेजोवलय या आभामण्डल के रूप में दीखते हैं, वह उसके अन्दर ही विचारों की विधेयात्मक सामर्थ्य के रूप में विद्यमान है। इन्हीं सब पक्षों पर उस खण्ड में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसी खण्ड में व्यवस्था बुद्धि की गरिमा एवं आकृति से मनुष्य की पहचान विषय को भी समाविष्ट किया गया है।

वस्तुतः जीवन जीने की कला का पारखी मनुष्य यदि ‘श्रद्धामयोऽयं पुरुषः यो यच्छुद्धः स एव साः’ का मूल भाव समझ ले तो उसे किसी प्रकार कि कठिनाई जीवन व्यापार में नहीं होगी। मनुष्य जैसा चिन्तन व दृढ़ निश्चय करता है, वह वैसा ही बनता चला जाता है, यह आज तक का इतिहास बताता है। हम सदा ही प्रखर इच्छाशक्ति का संपादन कर स्वयं को मनस्वी, तेजस्वी एवं प्रखर बनाए रखें तो लौकिक एवं पारलौकिक सभी सफलताएं हमारे कदमों पर होंगी, मनोविज्ञान का यह मूल मर्म जो व्यावहारिक भी है, इस खण्ड में विस्तार से पढ़ा जा सकता है।

ब्रह्यवर्चस  

तुच्छ से महान बनाने वाला बल-मनोबल

मनुष्य और उसकी महान शक्ति

परमाणु शक्ति के सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि जब उसकी सम्पूर्ण जानकारी मनुष्य को हो जायेगी तो सारे ग्रह, नक्षत्रों की दूरी ऐसी हो जाएगी जैसे पृथ्वी पर एक गाँव से दूसरा गाँव, किन्तु इसकी जानकारी का भी अधिष्ठाता मनुष्य है, अतः उसकी शक्ति का अनुमान लगाना भी असम्भव है। मनुष्य में वह सारी शक्तियाँ विद्यमान हैं जिनसे इस संसार का विनाश भी हो सकता है और निर्माण तो इतना अधिक हो सकता है कि उसका एक छोटा-सा रूप इस सुरम्य धरती को भी देख सकते है।

मनुष्य विधाता की रचना का सर्वश्रेष्ठ चमत्कारिक प्राणी है। अव्यवस्थित धरती को सुव्यवस्थित रूप देने का श्रेय उसे ही प्राप्त है। ज्ञान, विज्ञान, भाषा, लिपि, स्वर आदि की जो विशेषताएं उसे प्राप्त हैं, उनसे निःसन्देह उनकी महत्ता की प्रतिपादिता होती है। मनुष्य इस संसार का समग्र सम्पन्न प्राणी है। महर्षि व्यास ने इस सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है-


गुह्म ब्रह्म तदिदं बवीमि नहिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित।।


‘‘मैं बड़े भेद की बात तुम्हें बताता हूँ कि मनुष्य से बढ़कर इस संसार में कोई भी नहीं है।’’ वह सर्वशक्ति-सम्पन्न है। जहां चाहे उलट-फेर कर दे, जहां चाहे युद्ध-मारकाट मचा दे। जी में आये तो शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित कर दे। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जो मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर हो। धन, पद, यश आदि कोई वैभव ऐसा नहीं जिसे वह प्राप्त कर सकता हो। भगवान राम और कृष्ण भी मनुष्य ही थे, किन्तु उन्होंने अपनी शक्तियों का किया और नर से नारायण बनकर विश्व में पूजे जाने लगे। मनुष्य अपने पौरुष से-विद्या बुद्धि और बल से वैभव प्राप्त कर सकता है उसकी शक्ति से परे इस संसार में कुछ भी तो नहीं है। शास्त्रकार का कथन है ‘‘यदब्रह्माण्डे तत्पिण्डे’’ अर्थात् जो कुछ भी इस संसार में दिखाई देता है वह सभी बीज रूप से मनुष्य के शरीर में, पिण्ड में विद्यमान है।   

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