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आचार्य श्रीराम शर्मा >> युग-परिवर्तन कैसे और कब ?

युग-परिवर्तन कैसे और कब ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : अखण्ड ज्योति संस्थान प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :455
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4311
आईएसबीएन :0000

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युग-परिवर्तन कैसे और कब....

Yug Parivaratan kaise Aur Kab

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पणम्

ॐ मातरं भगवतीं देवीं श्रीरामञ्ञ जगद्गुरुम्।
पादपद्मे तयो: श्रित्वा प्रणमामि मुहुर्मुह:।।

मातृवत् लालयित्री च पितृवत् मार्गदर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै श्रद्धा-प्रज्ञा युता च या।।

भगवत्या: जगन्मातु:, श्रीरामस्य जगद्गुरो:।
पादुकायुगले वन्दे, श्रद्धाप्रज्ञास्वरूपयो:।।

नमोऽस्तु गुरवे तस्मै गायत्रीरूपिणे सदा।
यस्य वागमृतं हन्ति विषं संसारसंज्ञकम्।।

असम्भवं सम्भवकर्तुमुद्यतं प्रचण्डझञ्झावृतिरोधसक्षमम्।
युगस्य निर्माणकृते समुद्यतं परं महाकालममुं नमाम्यहम्।।

त्वदीयं वस्तु गोविन्द ! तुभ्यमेव समर्पये।

भूमिका

सभी एक स्वर से यह कह रहे हैं कि प्रस्तुत वेला युग परिवर्तन की है। इन दिनों जो अनीति व आराजकता का साम्राज्य दिखाई पड़ रहा है, इन्हीं का व्यापक बोलबाला दिखाई दे रहा है, उसके अनुसार परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी है। ऐसे ही समय में भगवान ‘‘यदा-यदा हि धर्मस्य’’ की प्रतिज्ञा के अनुसार असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए कटिबद्ध हो ‘‘संभवामि युगे युगे’’ की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए आते रहे हैं। ज्योतिर्विज्ञान प्रस्तुत समय को जो 1850 ईसवीं सदी से आरम्भ होकर 2005 ईसवी सदी में समाप्त होगा—संधि काल, परिवर्तन काल, कलियुग के अंत तथा सतयुग के आरम्भ का काल मानता चला आया है।

 इसीलिए इस समय को युगसंधिकाल की वेला कहा गया है। कुछ रूढ़िवादी पण्डितों के अनुसार नया युग आने में अभी 3 लाख 24 हजार वर्ष की देरी है, किन्तु यह प्रतिपादन भ्रामक है, यह वास्तविक काम गणना करने पर पता चलता है। हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व से लेकर श्री मद्भागवत गीता का उल्लेख कर परम पूज्य गुरुदेव ने इसमें यह प्रमाणित किया है कि वास्तविक काल गणना के अनुसार सतयुग का समय आ पहुँचा। हजार महायुगों का समय जहाँ ब्रह्मदेव के एक दिवस के बराबर हो व ऐसे ही हजार युगों के बराबर रात्रि हो, वहाँ समझा जा सकता है कि काल की गणना को समझने में विद्वत्जनों द्वारा कितनी त्रुटि की गयी है।

परम पूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि 1980 से 2000 व बाद का कुछ समय अनय को निरस्त करने और सृजन को समुन्नत बनाने वाली, देव शक्तियों के प्रबल पुरुषार्थ के प्रकटीकरण का समय है। जब भी ऐसा होता है, तब दैवी प्रकोप विभीषिकाएँ विनाशकारी घटनाक्रम मनुष्य जाति पर संकटों के बादल के रूप में गहराने लगते हैं, ऐसी व्याधियाँ फैलती दिखाई देती हैं जो कभी न देखी, सुनी गयीं किन्तु समय रहते ही यह सब ठीक होता चला जाता है।

देखें तो, वस्तुतः विज्ञान के वरदानों ने मनुष्य को आज इतना कुछ दे दिया है कि सब कुछ आज उसकी मुट्ठी में है। द्रुतगामी वाहनों ने जहाँ आज दुनिया को बहुत छोटी बना दिया है, वहाँ इसका एक बहुत बड़ा प्रभाव मानव की मानसिक शान्ति, पारिवारिक-दाम्पत्य-जीवन एवं सामाजिकता वाले पक्ष पर भी पड़ा है। विज्ञान ने वरदान के साथ प्रदूषण को बढ़ाकर ओजोन की परत को पतला कर परा बैंगनी किरणों तथा अन्यान्य कैंसर को जन्म देने वाले घातक रोगाणुओं की पृथ्वी पर वर्षा का निमित्त भी स्वयं को बना लिया है। सात लाख मैगावाट अणु बमों की शक्ति के बराबर ऊर्जा प्रतिदिन पृथ्वी पर फेंकने वाला सूर्य इन दिनों कुपित है। सौरकलंक, सूर्य पर धब्बे बढ़ते चले जा रहे हैं। सूर्य ग्रहणों की एक श्रृंखला इस सदी के अन्त तक चलेगी जिसका बड़ा प्रभाव जीव समुदाय पर पड़ने की सम्भावना है।

परम पूज्य गुरुदेव एक दृष्टा, मनीषी, भविष्य-वक्ता थे। जो भी उनने 1940 से अब तक लिखा, समय-समय पर वह सब होता चला गया। इस खण्ड में उनने अतीन्द्रिय दृष्टा महायोगी श्री अरविन्द से लेकर, बरार के विद्वान ज्योतिषी श्री गोपीनाथ शास्त्री, चुलैट, रोम्यां रोलां, भविष्य वक्ता व हस्त रेखा विद कीरो, महिला ज्योतिष बोरिस्का, बाइबल की भविष्य वाणियाँ, नार्वे के प्रसिद्ध योगी आनन्दाचार्य, जीन डीक्सन, एण्डरसन गेरार्ड क्राइसे, चार्ल्स क्लार्क, प्रो. हटार, जूल वर्न, जार्ज बावेरी से लेकर कलि्क पुराण तथा आज के कम्प्यूटर युग में यूरोपिया द्वारा भविष्यवाणी करने वाले विद्वानों, एल्विनटॉफलर, फ्रिटजामा, काप्रा, प्रो. हरीश मैकरे आदि का हवाला देते हुए, आने वाले दिनों के स्वरूप के विषय में लिखा है। उज्ज्वल भविष्य के दृष्टा परमपूज्य गुरुदेव ने समय-समय पर कहा है कि स्रस्टा को सुव्यवस्था और सुन्दरता ही प्रिय है।

संकटों की घड़ियाँ आसन्न दीखते हुए भी वह विश्वास नहीं छूटना चाहिए की स्रष्टा अपनी इस अद्भुत कलाकृति—विश्वसुधा को, मानवी सत्ता को, सुरम्य, वाटिका को विनाष के गर्त में गिराने से पहले ही बचा लेता व अपनी सक्रियता का परिचय देता है। परिस्थितियों को उलटने का चमत्कार-युग परिवर्तन का उपक्रम रचने वाला पराक्रम करना ही इस युग के अवतार का प्रज्ञावतार का उद्देश्य है, यह भली भाँति आत्मसात होता चला जाता है, पूज्यवर की पंक्तियों को पढ़कर। पूज्यवर ने लिखा है कि ‘‘अवतार सदा ऐसे ही कुसमय में होते रहे हैं, जैसा कि आज है। अवतारों ने लोक चेतना में ऐसी प्रबल प्रेरणा भरी है, जिससे अनुपयुक्त को उपपुक्त में बदल देने का उत्साह लगने वाली संभावनाएँ सरल होती प्रतीत हों। दिव्य चक्षु युगान्तरीय चेतना को गंगावतरण की तरह धरती पर उतरते देख सकते हैं।’’
अपने 1990 के वसंत पर्वपर, महाकाल के संदेश में उनने प्रत्येक से प्रज्ञावतार के साथ, साझेदारी करने की बात को, समय की सबसे बड़ी समझदारी बताया तथा लिखा कि अब सभी के मन में ऐसी उमंगे उठनी चाहिए कि युग परिवर्तन की महाक्रान्ति में उनकी कुछ सराहनीय भूमिका निभ सके।
यह आमंत्रण सबके लिए है। ‘‘इक्कीसवीं सदी –उज्ज्वल भविष्य’’ का उद्गोष पूज्यवर ने आशावादिता की उमंगों को जिन्दा रखने के लिए दिया एवं उसी का सन्देश इस वाङ्मय में है।

ब्रह्यवर्चस

आर्ष ग्रन्थ और काल-गणना


युग-संधि का यही समय क्यों ?


काल गणना के संदर्भ में ‘युग’ शब्द का उपयोग अनेक प्रकार से होता है। जिन दिनों जिस प्रचलन या प्रभाव की बाहुलता होती है उसी के नाम से पुकारा जाने लगता है। जैसे ऋषि युग, सामंत युग, जनयुग आदि। रामराज्य के दिनों की सर्वतोन्मुखी, शांति और सुव्यवस्था को सतयुग के नाम से जाना जाता है। कृष्ण की विशाल भारत निर्माण सम्बन्धी योजना के एक संघर्ष पक्ष को महाभारत का नाम दिया जाता है। परीक्षित के काल में कलियुग के आगमन और उससे राजा के संभाषण अनुबंधों का पुराण गाथा में वर्णन है। अब भी रोबोट युग- कम्प्यूटर युग, विज्ञान युग आदि की चर्चाएँ होती रहती हैं। अनेक लेखक अपनी रचनाओं के नाम युग शब्द जोड़कर करते हैं। जैसे यशपाल जैन का ‘युग बोध’ आदि। यहाँ युग शब्द का अर्थ जमाने से है। जमाना अर्थात् उल्लेखनीय विशेषता वाला जमाना एक एरा, एक पीरियड इसी संदर्भ में आमतौर से ‘युग’ शब्द का प्रयोग होता है।

युगों की गणना कितने प्रकार से होती है। उनमें एक गणना हजार वर्ष की है। प्रायः हर सहस्राब्दी में वातावरण बदल जाता है, परम्पराओं में उल्लेखनीय हेर-फेर होता है। बीसवीं सदी के अन्त में इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ को एक युग का समापन और दूसरे का शुभारम्भ माना गया है।

इसी भाँति पंचांगों में कितने ही संवत्सरों के आरम्भ संबंधी मान्यताओं की चर्चा है। एक मत के अनुसार युग करोड़ों वर्ष का होता है। इस अधिकार पर मानवीय सभ्यता की शुरुआत के खरबों वर्ष बीत चुके हैं और वर्तमान कलयुग की समाप्ति में अभी लाखों वर्ष की देरी है। पर उपलब्ध रिकार्डों के आधार पर नृतत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों का कहना है कि मानवीय विकास अधिकतम उन्नीस लाख वर्ष पुराना है, इसकी पुष्टि भी आधुनिक तकनीकों द्वारा की जा चुकी है।
काल गणना करते समय व्यतिरेक वस्तुतः प्रस्तुतीकरण की गलती के कारण है। ग्रन्थों में जो युग गणना बतायी गई है उसमें सूर्य परिभ्रमण काल को चार बड़े खण्डों में विभक्त कर चार देव युगों की कल्पना की गई है। एक देव युग को 4,32,000 वर्ष मान गया है। इस आधार पर धर्मग्रंथों में वर्णित कलिकाल की समाप्ति की संगति प्रस्तुत समय से ठीक-ठाक बैठ जाती है।

यह संभव है कि विरोधाभास की स्थिति में लोग इस काल गणना पर सहज ही विश्वास न कर सकें, अस्तु यहाँ ‘‘युग’’ का तात्पर्य विशिष्टता युक्त समय से माना गया है। युग निर्माण योजना आन्दोलन अपने अन्दर यही भाव छिपाए हुए है। समय बदलने जा रहा है, इसमें इसका स्पष्ट झाँकी है।

प्रत्येक संधि काल का अपना एक विशेष महत्त्व होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय संध्याकाल कहलाता है। यह दोनों समय ‘पर्व काल’ कहलाते हैं। साधना पर विश्वास करने वाले इन दोनों समयों में उपासना साधना का विशेष महत्त्व मानते हैं। मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अजान की ध्वनि इन्हीं सन्धि वेलाओं में सुनाई देती है।
सर्दी और गर्मी, इन दो प्रधान ऋतुओं के मिलन काल पर आश्विन और चैत्र की नव रात्रियाँ होती हैं। इन दोनो बेलाओं को पुण्य माना जाता है। इस अवधि में साधक गण विशेष साधनायें करते हैं।

रात्री का अंत और दिन का उदय ‘प्रभात पर्व’ है। उस वेला में सभी में उत्साह उमड़ता है। फूल खिलते हैं, पक्षी चहचहाते हैं और सभी प्राणी अपने-अपने कार्यों में विशेष उत्साह के साथ लग पड़ते हैं। नयी सहस्राब्दी के बारे में भी ऐसा ही मानना चाहिए। इक्कीसवीं सदी भी ऐसे ही शुभ संदेश साथ लेकर आ रही है। उसके सम्बन्ध में उज्ज्वल भविष्य की ही कल्पना और मान्यता बनानी चाहिए।
रात्रि जब समाप्त होती है तब अंधेरा अधिक सघन हो जाता है। दीपक बुझने को होता है तो उसकी लपक बढ़ जाती है।


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