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आचार्य श्रीराम शर्मा >> चेतना की शिखर यात्रा - भाग 1

चेतना की शिखर यात्रा - भाग 1

डॉ. प्रणय पण्डया

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :408
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4315
आईएसबीएन :81-8255-02-5

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पं. श्रीराम शर्मा की जीवनी

Chetna Ki Shikhar Yatra -1 - A Hindi book on the life of Acharya Sriram Sharma by Pranay Pandya - आचार्य श्रीराम शर्मा की जीवनी - प्रणय पण्डया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत भारी उथल-पुथल भरी हुई। जहाँ एक युगनायक स्वामी विवेकानन्द ने महाप्रयाण किया, वहाँ प्रथम विश्वयुद्ध के बादल भी मँडराने लगे, परंतु भारत की तत्कालीन विपन्न परिस्थितियों में स्वतंत्रता के लिए लड़ाई कर रहे योद्धाओं के बीच एक ऐसे महामानव का आगमन हुआ, जिसे भारत राष्ट्र को ही नहीं, विश्व मात्र को ही नहीं बल्कि सारे युग को बदलने का कार्य विधि ने सौंपा था। औद्योगिक, वैज्ञानिक, आर्थिक क्रान्ति के बाद सारे भारत में आध्यात्मिक क्रान्ति-विचारक्रान्ति का बीजारोपण कर इस महान राष्ट्र को एक पौधशाला बनाने का कार्य जिस युग पुरुष द्वारा हुआ, उसी की एक जीवन-गाथा है यह। तीन खण्डों में समाप्त होने वाली चेतना की इस शिखर यात्रा को एक महानायक का एक संगठन की यात्रा का अभूतपूर्व दस्तावेज माना जा सकता है।

हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र है। समस्त ऋषिगण यही से विश्वसुधा की व्यवस्था का सूक्ष्म जगत् से नियंत्रण करते हैं। इसी हिमालय को स्थूल रूप में जब देखते हैं, तो यह बहुरंगी-बहुआयामी दिखायी पड़ता है। उसमें भी हिमालय का हृदय-उत्तराखण्ड देवतात्मा देवात्मा हिमालय है। हिमालय की तरह उद्दाम, विराट्-बहुआयामी जीवन रहा है, हमारे कथानायक श्रीराम शर्मा आचार्य का, जो बाद में पं. वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ कहलाये, लाखों के हृदय सम्राट् बन गए। अभी तक अप्रकाशित कई अविज्ञात विवरण लिये उनकी जीवन यात्रा -उज्जवल भविष्य को देखने जन्मी इक्कीसवीं सदी की पीढ़ी को- इसी आस से जी रही मानवजाति को समर्पित है।

आत्म निवेदन


संवत् दो हजार चालीस की रामनवमी को गुरुदेव मौन में चले गए। लोगों से मिलना जुलना बंद कर दिया। साधकों और कार्यकर्ताओं को अब तक उनका सान्निध्य निर्बाध मिलता आ रहा था। वह क्रम टूट गया। उनके ‘एकान्त’ और ‘मौन’ के निर्णय से हम सभी लोग स्तब्ध रह गए। कुछ दिन पहले तक तो वे देश में जगह-जगह बनी शक्तिपीठों में प्राण-प्रतिष्ठा के लिए सघन यात्राएँ कर रहे थे। अचानक यह ‘एकांत’ और ‘मौन’। आगे क्या होगा 1 जिस मार्गदर्शन में वे अब तक ‘मनुष्य में देवत्व के उदय’ और ‘धरती पर स्वर्ग के अवतरण’ की साधना कर रहे थे, वही उनसे दूर हो रहा है। अब मार्गदर्शन कैसे उपलब्ध होगा, उनके सान्निध्य से वंचित हम लोग क्या करेंगे ? वह असमंजस ज्यादा समय तो नहीं रहा, लेकिन जितनी देर भी रहा मन, प्राण जैसे निचुड़ गए। उन्होंने ‘एकांत’ और ‘मौन’ का तत्काल कोई कारण भी तो नहीं बताया था।

गुरुदेव का संदेश आया। वह संदेश आश्वासन भी था और भविष्य के लिए मार्गदर्शन भी। कहा कि जो अस्तित्व अभी तक प्रत्यक्ष, प्रकट और स्थूल रूप में सक्रिय दिखाई दे रहा था वह दिनोदिन सूक्ष्मीभूत होता जाएगा। इससे किसी को चिंतित या निराश होने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्यक्ष से जो काम संपन्न किए जा सकें हैं, उनसे हजार-लाख गुना ज्यादा काम सूक्ष्मीकरण से संभव होंगे। यह आश्वासन किसी देहधारी सामान्य मानवीय सत्ता की ओर से नहीं, हजारों लाखों लोगों के जीवन में प्रकाश उत्पन्न करने वाले सिद्ध पुरुष की ओर से थे। कम से कम यहाँ तो हम उन्हें अलौकिक, दिव्य चेतना, परम पूज्य कह लें। अगले पृष्ठों में जहाँ उनकी गाथा गायी है, वहाँ वे सहज सामान्य से विलक्षण और महान होते हुए साधक के रूप में ही हैं। इसलिए सिर्फ यहाँ अपनी श्रद्धा-भावना व्यक्त करने का मन है कि हम उन्हें इष्ट-आराध्य कह लें तो गुरुदेव के उस आश्वास्न को बाद के दिनों में चरितार्थ होते देखा गया।

सूक्ष्मीकरण साधना के संबंध में उन्होंने कहा था कि अभी तक असंभव सा लगने वाला युग परिवर्तन का महत्कार्य इस साधना के प्रभाव से संभव होता दिखाई देगा। भगवान शिव के प्रतिनिधि गणों की तरह पाँच वीरभद्र प्रकट होने की बात भी साधकों ने सुनी। वीरभद्र शिव के वे समर्थ रूप हैं, जो उनके कार्य को उन्हीं की सामर्थ्य के अनुरूप संभव कर दिखाते हैं। पौराणिक संदर्भों के अनुसार ये एक ही शिव सत्ता के पाँच स्वरूप हैं। गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण के प्रभाव से जिन वीरभद्रों के प्रकट होने की बात कही, वह चेतना के स्तर पर ही संपन्न होना था। सूक्ष्मीकरण का एक पक्ष यह भी था कि गुरुदेव अपने आपको साधकों के अस्तित्व में व्यक्त करेंगे। जो साधक या कार्यकर्ता बहुत सामान्य दिखाई देते हैं वे अपनी वर्तमान स्थिति से कई गुना समर्थ होकर युगसाधना कर रहे होंगे।

यह आश्वासन गुरुदेव के श्रीमुख से निकली वाणी और लेखनी से निसृत हुए शब्दों से सीधे मिला था। प्रत्यक्ष सान्निध्य सहज उपलब्ध होते हुए संपर्क का अचानक नितान्त अभाव हो जाने की दो विषम स्थितियों के बीच सेतु बनाने के लिए उन्होंने कुछ समय तक दृश्य-श्रव्य माध्यमों का उपयोग भी किया। परिजनों तक उनके संदेश वीडियो केसेटों के जरिए पहुँचे। यह सिलसिला कुछ समय तक ही चला। परिजन स्तब्ध भाव से उबरे और सहज होने लगे। उनकी आत्मिक स्थिति गुरुदेव के संदेशों को ग्रहण करने में समर्थ होने लगी तो यह उपक्रम आगे चलाने की आवश्यकता नहीं रही।

यद्यपि चिंताएँ एकदम निर्मूल नहीं हो गई थीं। बीच-बीच में कांटों की तरह वे उठ आती थीं। लेकिन गुरुदेव का आश्वासन जिस तरह चरितार्थ हो रहा था, उसके अनुभव चिंताओं का उच्छेद भी करते जाते थे। प्रत्यक्षसंपर्क पूरी तरह बंद था। बीच में कुछ अपवाद ही रहे होंगे, जब उन्होंने किन्हीं अनिवार्य कारणों से कुछ साधकों से भेंट की होगी। ऐसे अवसर कम ही आते थे। ऐसे ही किसी अवसर की प्रतीक्षा में एक विशिष्ठ साधक का शान्तिकुञ्ज आगमन हुआ। वह तंत्रमार्ग का अनुयायी था। यहाँ आने का उद्देश्य गुरुदेव से दीक्षा लेना था और उसका मौन खुलने की प्रतीक्षा कर रहा था।

उस साधक की अपनी अनुभूति थी और बातचीत में उसने बताया भी कि गुरुदेव साक्षात शिव की सत्ता हैं। अभी आप लोगों ने देखा और अनुभव ही क्या किया है ? जिन योनियों के पास होकर मैं आ रहा हूँ वे भी चर्चा करते हैं और मेरी अपनी अंतर्दृष्टि है कि ऐसी सत्ताएँ शरीर में रहते हुए कम और सूक्ष्म रूप धारण करने के बाद कई गुना काम करती हैं। अभी तो सिर्फ शंख बजा है। थोड़े से लोगों ने ही जाना है कि युग बदल रहा है पर कुछ वर्षों के बाद देखना कि गुरुदेव शक्ति का कितना प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न कर जाते हैं। उनके शरीर छोड़ देने के बाद यह प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देने लगेगा।  सैकड़ों, हजारों सामान्य लोग असाधारण उपलब्धियाँ अर्जित कर रहे होंगे। ये उपलब्धियाँ अपने समय और समाज को समृद्ध करती हुई होंगी उन दिनों और भी साधक यहाँ आया करते थे। उनकी अनुभूति भी लगभग इसी प्रकार की थीं।

संवत् दो हजार सैंतालीस (2047) की गायत्री जयंती को गुरुदेव ने शरीर छोड़ा। उनके पार्थिव शरीर को अंतिम प्रणाम करने के लिए दक्षिण भारत से आए एक शाक्त सिद्ध ने कहा कि यह व्यक्ति आने वाले युग का महानायक है। पूछा कि आप कैसे कहते हैं ? उन्होंने कहा यहाँ लोगों से अनुमान मत लगाइये। भविष्य में हजारो लाखों लोग उनके विचारों को जानें उनके कार्यों को समझेंगे और उनके होते चले जायेंगे। उन्होंने जिन मूल्यों की स्थापना की है, लोग उन्हें जीने की चेष्टा करेंगे। उन साधक की यह अनुभूति 1986 से 90 के बीच हुए मिशन के विस्तार से भी सिद्ध होती है। उक्त साधक सिर्फ आध्यात्मिक कारणों से गुरुदेव के पास आए थे। उन्हें शायद पिछले पाँच-छह वर्षों के विकास की जानकारी नहीं रही हो। उन्होंने सिर्फ अपनी अंतर्दृष्टि से ही भावी संभावनाओं को देखा हो लेकिन गायत्री परिवार के तमाम परिजन उन वर्षों के साक्षी हैं।

गुरुदेव के शरीर में रहते ही 1988 में आरम्भ हुए युगसंधि महापुश्चरण ने असंख्य लोगों को युगसाधना में प्रवृत्त किया। उनके शरीर छोड़ने के बाद वंदनीया माताजी के सान्नद्य में चली गतिविधियाँ और उपलब्धियाँ भी इस बात की साक्षी हैं कि गुरुदेव का आस्वासन सूरज की किरणों की तरह प्रत्यक्ष हो रहा था। विभिन्न क्षेत्रों और दिशाओं से लोग आ रहे थ। आहुत और अनाहुत भी। महाप्रयाण के वर्ष में ही देश के विभिन्न भागों में स्थानों पर छह दीप महायज्ञ, उसके बाद शान्तिकुञ्ज में हुआ श्रद्दांजलि समारोह, शपथ, समारोह, अश्वमेघ यज्ञों को घोषणा और इस तरह के तमाम कार्यक्रमों में उमड़ उठा जन समुदाय भी गुरुदेव  की सूक्ष्मीकरण की सामर्थ्य को प्रकट कर रहा था गायत्री परिवार के स्थानीय संगठनों में और शक्तिपीठों, प्रज्ञा संस्थानों में काम कर रहे कार्यकर्ता, विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय विभूतिवान लोग, उनके प्रयास और परिणामों के रूप में भी जैसे गुरुदेव व्यक्त हो रहे थे।

यह हमारी और हम जैसे असंख्य परिजनों की निजी भावनाएँ हैं। ‘चेतना की शिखर यात्रा’ को तर्क और तथ्य की दृष्टि से पढ़ रहे बुद्धिजीवी पाठक तथ्य को दूसरी तरह भी समझ सकते हैं। इस ग्रंथ में जिनकी हम सब गुरुदेव के रूप में आराधना करते हैं। उन आचार्य श्रीराम शर्मा की –जीवनगाथा लिखने की चेष्टा की है। सुधी पाठक इतिहास का अवलोकन करें और देखें कि भारतीय धर्म संस्कृति के सर्वग्राही समग्र स्वरूप को परिभाषित करने का काम किस समय में और किस महिमावान विभूति ने किया है। साधु, संत, दार्शनिक, मनीषी, संगठनकर्ता और यति योद्धाओं से इतिहास भरा पड़ा है। एक से एक असाधारण विभूतियाँ। अपने-अपने क्षेत्र में अद्भुत-अनुपम। वे सभी विभूतियाँ धर्म साधना और ज्ञान की अलग-अलग धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। सभी धाराओं का समुच्चय किसी एक व्यक्तित्व में होने जैसा उदाहरण बारह सौ साल पहले सिर्फ आदि शंकराचार्य के रूप में ही दिखाई देता है।

बाहर सौ वर्ष बाद उस घटना की मानो (या जैसे) पुनरावृत्ति हुई है। जो चेतना आदि शंकराचार्य के रूप में भारतीय धर्म संस्कृति, साधना और ज्ञान के शिकर रूप में व्यक्ति हुई थी उसकी वैसी ही एक यात्रा आचार्य श्रीराम शर्मा के रूप में संपन्न हुई है। देशकाल के अनुरूप कार्यशैली में भिन्नता भले हो लेकिन समूचे धर्म और अध्याय को संगठित, समन्वित करने जैसा प्रयास कहीं और नहीं हुआ है।

बारह सौ वर्ष पूर्व भारतीय धर्म या कहें कि सनातन धर्म के सामने कई दिशाओं से गंभीर चुनौतियाँ थीं। ऋषिप्रणीत तत्वज्ञान का प्रायः लोप हो गया था और उनका स्थान अपनी ढपली पर अपना राग अलापने वाली कूपमंडूकता या जड़ता ने ले लिया था। वैष्णव, शाक्त, ब्रह्म, शैव, गाणपत्य, पांचरात्र, वेदान्त, योग, आर्हत, बौद्ध और तंत्र के वाम, दक्षिण जैसे मार्गों के नाम पर जो उच्छृंखलता फैल रही थी उसने सनातन धर्म की गरिमा ही ध्वस्त कर दी थी। ये सभी धाराएँ परम लक्ष्य तक पहुँचाती हैं, लेकिन उस समय इनका तत्वदर्शन वाणी विलास की वस्तु बनकर रह गया था। विभिन्न धाराएँ न केवल वितंडा फैला रही थीं बल्कि टकराव और द्वन्द्व भी रच रही थीं। आस्था और आचरण में उन धाराओं का कहीं चिन्ह भी नहीं दिखाई दे रहा था। परिणाम विग्रह और पतन के रूप में पूरे समाज को भुगतना पड़ रहा था।

आदि शंकराचार्य ने बहुत छोटी उम्र में इस तथ्य को देखा। उनके सम्बंध में जो विवरण मिलते हैं, वे उन्हें सामान्य मनुष्य कम अवतारी चेतना ज्यादा निरूपित करते हैं। किंवदंतियों और कथाओं के विश्लेषण में नहीं जायें तो सिर्फ इतना ही कि अपने ज्ञान, तप और कर्मकौशल से उन्होंने तमाम चुनौतियों को जीता। आठ वर्ष की उम्र में उन्होंने संन्यास ले लिया था। माँ के एक ही पुत्र थे। संन्यासी को अपना परिवार भूल जाना पड़ता है। लेकिन शंकराचार्य की मां ने वचन लिया कि अंतिम समय मेरे ही पास रहोगे। माँ का निधन हुआ तब शंकर दौड़े चले आए और आपद धर्म के रूप में उनने संन्यास की मर्यादाओं का किंचित उल्लंघन किया। उस समय के समाज में शंकराचार्य का प्रबल विरोध हुआ था। लेकिन कुमारिल भट्ट जैसे विद्वानों को कहना पड़ा कि शंकर से मर्यादा का हनन नहीं होता है। अगर उनसे मर्यादा टूटती है तो निर्धारण की समार्थ्य किसी के पास नहीं है। कोई और उसका निर्धारण नहीं कर सकता। अर्थात् शंकराचार्य का आचरण ही प्रमाण था।
शंकराचार्य के सामने एक ही महत्कार्य था, वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा। काल के प्रवाह ने उस पर जो विक्षेप जमा कर दिये थे, उन्हें दूर करना। सनातन धर्म के मर्म से अनभिज्ञ होने के कारण अथवा निहित स्वार्थों के चलते लोगों ने उसे जर्जर कर दिया। शंकराचार्य ने इन अवरोधों को दूर करने के लिए व्यापक और सशक्त उपाय किये। शास्त्रीय पक्ष को सिद्ध करने के लिए तर्क का अवलंबन लिया। प्रतिपादनों की मनमानी व्याख्या करने और लोगों में भ्रम उत्पन्न कर अपने संकीर्ण स्वार्थ को ही असली धर्म बताने वाली प्रवृत्ति उन दिनों व्याप्त थी। ऐसे लोगों ने भारत के लगभग सभी पुण्य क्षेत्रों को अपना अड्डा बना लिया था। आचार्य ने उन सभी क्षेत्रों की यात्रा की और धूर्त विद्वानों को ललकारा। अपनी असाधारण मेधा और तर्कशील से उन्हें परास्त किया और तीर्थ क्षेत्रों को उनके चंगुल से मुक्त कराया।

ऐसे अवसर भी आये जब धूर्त धर्मध्वजियों ने तर्क से नहीं जीत पाने पर आचार्य की हत्या के षड्यन्त्र भी रचे। उदाहरण के लिए कर्णाटक में कपालिकों ने उन पर सशस्त्र हमला बोल दिया था। आचार्य ने अपने तप, तेज और शिष्यों ने सक्रिय प्रतिकार कर उस आक्रमण को निरस्त किया। आचार्य के विरुद्ध शाक्तों, तांत्रिकों, बोद्धों और अन्य संप्रदायों के धर्मध्वजियों द्वारा रचे गये षड्यंत्रों के अनेक विवरण मिलते हैं।


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