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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चातक चतुर राम श्याम घन के

चातक चतुर राम श्याम घन के

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4342
आईएसबीएन :0000

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मानस पर लिखे गये लेखों का संग्रह

Chatak Chatur Ram Shyam Ghan Ke

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आशीर्वाद

श्री रंगनाथ जी काबरा समर्पित व्यक्तित्व के साकार रूप हैं। भगवान और भक्तों के प्रति उनकी प्रगाढ़ प्रीति है। उनकी प्रगाढ़ श्रद्धा का प्रतिफल यह तृतीय ग्रन्थ है जो उनकी निष्ठा के अनुरूप है। कई वर्ष पहले यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी। बार-बार पाठक इसके लिए आग्रह कर रहे थे। अन्य ग्रन्थों के प्रकाशन में यह पिछड़ सा गया था। अब इसकी उपलब्धि से भावुक पाठकों को सन्तोष और प्रसन्नता होगी। 
श्री रंगनाथ जी काबरा को साधूवाद और आशीर्वाद।

रामकिंकर

।। श्री रामः शरणं मम्।।

रामचरित मानस से मेरा परिचय सर्वप्रथम कब हुआ, स्मृति को बहुत कुरेदने पर भी स्मरण नहीं आता। थककर कभी-कभी विनय-पत्रिका की एक पंक्ति गुनगुना उठता हूं ‘‘तुलसी तो सो राम सों कछु नई न जानि पहिचानि’’। परिचय कितना भी पुराना हो अब ‘मानस’ की प्रत्येक आवृत्ति के प्रारम्भ में उसके एक नए रूप का परिचय मिलता है। लगता है यह पुरातन चिर-नूतन है और यही इसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता का रहस्य है।

प्रस्तुत ग्रन्थ ‘मानस’ पर लिखे गए थे। मेरे लेखों का संग्रह है। अधिकांश लेख चालीस वर्ष पूर्व लिखे गए थे। मेरे आज के श्रोता और पाठकों को आज के बौद्धिक विश्लेषण से भिन्न इसमें भाव रस का प्राधान्य दृष्टिगोचर होगा। कुछ लेख पिछले तीन वर्षों के दृष्टिकोण की संक्षिप्त झाँकी प्रस्तुत करते हैं। कुछ लेख, लेख के रूप में लिखे गए हैं, तो कुछ प्रवचन और टेप रिकार्डिंग द्वारा श्रुत भाषाणों के संक्षिप्त रूप हैं, जिन्हें कुछ स्नेही श्रोतोओं द्वारा यह रूप दिया गया है। इस तरह यह ग्रन्थ तब और अब के रूप में पुरातन और नूतन भावनाओं का लेख और भाषणों का एक मिला-जुला रूप प्रस्तुत करता। अतः भिन्न रुचि के पाठकों को इसमें रस मिलेगा, ऐसा मुझे विश्वास है।

इस पुस्तक के प्रकाशन में डॉ० गिरिजा शंकर शास्त्री, डॉ० चन्द्रशेखर तिवारी तथा श्री नंद किशोर स्वर्णकार की भूमिका उल्लेखनीय थी। इन तीनों के द्वारा कई बार प्रूफ रीडिंग तथा संपादन के बाद यह यथा संभव शुद्ध प्रति प्रस्तुत है। इन तीनों को मेरा हार्दिक आशीर्वाद।।

सबहि सुलभ सब दिन सब देसा  


 
जैसे ‘शिव ताण्डव की मंगलमयी बेला में, डमरू के नाद से व्याकरण के चौदह सूत्रों का सृजन हुआ, जैसे विष्णु पार्षद श्री गरूड़ जी महाराज के पंखों से सामवेद की ऋचाएं प्रस्फुटित होती हैं, वैसे ही यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रामभक्ति में तदाकार, उनके सगुण सरोवर में चिरन्तर रमे हुए ‘‘परम पूज्य रामकिंकर जी महाराज’’ के श्रीमुख से भगवत्कथा के दिव्य शब्दमय विग्रह का अवतरण होता है। जैसे वेदवाणी सनातन है, वैसे ही परम पूज्य रामकिंकर जी महाराज के द्वारा व्याख्यायित मानस का प्रत्येक सूत्र, ‘‘मन्त्र’’रूप ग्रहण कर, तत्व, दर्शन, सिद्धांत, शास्त्रों की कोशिकाओं को अनन्तकाल तक अनुप्राणिक करता रहेगा, यह भी सनातन सत्य है।

श्री रामचरितमानस तथा परम पूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं। उनके ही शब्दों में-

मानस तो मेरा श्वास है।’’

जैसे वायु का स्पन्दन ही मनुष्य को जीवनी शक्ति प्रदान करता है, चाहे कोई भी अवस्था हो, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति या तुरीय, परम पूज्य महाराज श्री के रोम-रोम को राम चरित मानस अनुप्राणित करता है। वैसे तो मानस का गायन हमारे देश की प्राचीन परम्परा रही है, पर इस वाचिक परम्परा में परम पूज्य महाराज श्री का जो विशिष्ट योगदान है, वह है उनकी मौलिक आध्यात्मिक दृष्टि, मानो वे इस आध्यात्मिक सम्पदा के ‘‘कुबेर’’ हैं। मानस की मधुर चौपाई और सरल प्रतीत होने वाले छन्दों के अन्तराल में छिपे हुए गूढ़ रहस्य, निहित आध्यात्मिक सूत्र एवं गंभीर सिद्धान्तों की खोजपूर्ण व्याख्या, इस युग में मात्र आप ही की देन है।

उन मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनियों की तरह, जो अपनी निर्विकल्प समाधि में अवस्थित होकर उस  अपौरुषेय शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार करते थे, जब परम पूज्य महाराज श्री व्यास आसन पर विराजमान होकर, उस विराट से एकाएक हो जाते हैं तो उनकी ‘‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’’ में वह निर्गुण निराकार अपरिच्छिन्न ब्रह्म, अत्यन्त सुन्दर साकार रूप ग्रहण कर, प्रकट हो जाता है, जिसकी शब्दमयी झांकी, मात्र उन्हीं को नहीं बल्कि सम्पूर्ण श्रोता समाज को एक साथ कृतकृत्य बना देती है। परम पूज्य महाराज जी की जिव्हा पर विराजमान सरस्वती मानो उस दिव्य ‘‘कथानक’’ की बेला में गदगद् होकर, नृत्य करने लगती हैं, अपनी नित्य नई नृत्य कला से उपस्थित जिज्ञासुओं को अपने प्रेम-पाश में बांध लेती है।

उनकी अनुभूति-प्रसूति वाणी से जब शास्त्र और सिद्धांत का प्रतिपादन होता है, तब बड़े से बड़े सन्त, साहित्यकार एवं विद्वान चकित हो जाते हैं। उनके चिन्तन में तत्व की गंभीरता और भाव की सरसता का अदभुद सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। क्लिष्टतम विषय का प्रतिपादन वे इतनी सरलता एवं रोचकतापूर्ण शैली में करते हैं, मानें ईश्वर की उन्हें यह विशिष्ट देन है। जहाँ अन्य कथावचाक तत्व का स्पर्श करके कथा का विस्तार करते हैं, वहीं परमपूज्य महाराज श्री, कथा का माध्यम बनाकर तत्व विस्तार करते हैं। निर्विवाद रूप से सबको चमकृत करने वाली उनकी इस अनूठी कथन शैली के कारण ही एक महानतम विरक्त सन्त ने आपके लिए यह भावोदगार प्रकट किए-‘‘पण्डितजी तो रामायण बन गए’’। निश्चित रूप से इससे अधिक उपयुक्त एवं प्रमाणित व्याख्या परमपूज्य श्री की और कोई भी नहीं हो सकती। श्री दोहावली रामायण के एक दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-


‘‘लहै बड़ाई देवता इष्टदेव जब होए।।’’
                                                       (321)


अर्थात् भगवान् तो वही है, पर जिसका भक्त जितना बड़ा होता है, अपने इष्ट की उतनी ही बड़ी महिमा वह संसार के समक्ष उजागर करता हैं। मन्दिरों में भी इसी सत्य का दर्शन होता है। प्रत्येक देवस्थान में विग्रह तो भगवान का ही होता है, जो किसी प्रस्तर खण्ड से निर्मित शिल्पी की कल्पना का साकार रूप है। परन्तु प्रत्येक मूर्ति में समान रूप से आकर्षण की प्रतीक नहीं होती। कहीं जाकर ऐसा लगता है कि मूर्ति का देवता सुषुप्त है और किसी स्थान पर पहुंचकर अन्तः करण में एक ऐसे अनायास खिंचाव की अनुभूति होती है, जिसका बुद्घि से स्पष्टीककरण नहीं दिया जा सकता। सभी मूर्तियाँ आस्था का केन्द्र तो होती हैं, परन्तु कबीर के शब्दों में-


बलिहारी वा घट की जा घट परघट होए।


धन्य है वह, जिसके अन्तःकरण में विराजमान ब्रह्म सक्रिय होकर जीवन की बागडोर संभालता है। परम पूज्य महाराज श्री, असंख्य जन समूह के मध्य में जब प्रभु की शब्दमयी झांकी प्रकट करते हैं तो कर्ता और कर्म का भेद मिट जाता है।
उन पूर्ण आत्म-विस्मरण के क्षणों में श्रोता समाज उस अनन्त परम सत्य के साक्षात्कार में लीन हो  जाता है। यह वैयक्तिक आनन्द के क्षण नहीं, बल्कि प्रत्येक की सामूहिक प्रतीति है। मंचासीन वक्ता के नए-नए रूप देखकर भाव की अनेकानेक तरंगें हृदय में हिलोरें लेती हैं, मानो लगता है कि क्या यह मन्दिर की मूर्ति के शिल्पकार हैं या द्रवित हृदय वाले भक्ताग्रगण्य, सन्त प्रवर हैं ? या कोई मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनि हैं ? नहीं, नहीं यह तो साक्षात चलता-फिरता तीर्थ है, जिसका लघुतम कृपा प्रसाद, जीवन के त्रिताप और वितिमि को नष्ट कर, धन्यता प्रदान कर सकता है। अनेक श्रोताओं के भावोद्गार जब मैं सुनती हूं, तो अनुभूतियों की समानता से अत्यधिक प्रसन्नता होती है। किसी को लगता है कि श्री हनुमान जी महाराज स्वयं आकर उनमें विराजमान हो जाते हैं तो किसी को त्रिभुवन गुरु भगवान शिव का दर्शन उनमें होता है। और किन्हीं को साक्षात् श्री रामभद्र की प्रतिच्छाया उनके नेत्र एवं भावभंगिमा में दृष्टिगोचर होती है। ऐसे अवतार पुरुष का परिचय देना क्या किसी के लिए संभव है ? इतिहास और घटनाक्रम की दृष्टि से कुछ संकेतों द्वारा उनके जीवन पर प्रकाश डालने की बाल-चेष्टा मैंने इससे पूर्व एक लेख में की थी। परन्तु परम पूज्य महाराज श्री के जीवन के नए-नए पूप, उनके स्वभाव के विभिन्न पक्ष, उनके ज्ञान की ऊँचाई हृदय की अगाधता जैसी अनेकानेक भिन्नताएं मेरे समक्ष प्रगट होती हैं तो लगता है कि शास्त्र की वह उक्ति, जो ब्रह्म के सन्दर्भ में लिखी गई- ‘‘अखिल विरूद्ध धर्मश्रय’’ उसे परम पूज्य महाराज श्री ने अपनी जीवन लीला द्वारा चरितार्थ करके मुझे समझा दिया।
परम पूज्य महाराज श्री का प्रभाव तो जग विदित है, पर उनके स्वभाव का परिचय तो उन्हीं सौभाग्यशाली को प्राप्त है, जिन्हें उन्होंने जनाना चाहा-


सोइ जानइ जेहि देहु जनाई


अपने प्रभु का शील और संकोच, उनकी उदारता और विशालता परम पूज्य महाराज श्री को माना विरासत में मिली है। छोटे-से-छोटे व्यक्ति की भी भावना एवं सम्मान की रक्षा के लिए वे सदा तत्पर रहतें हैं। उनकी कथवी और करनी में मैंने कभी कोई अन्तर नहीं पाया। जो मंच का सत्य है, व्यसपीठ से जो उपदेश दिया गया, वही व्यवहार में सर्वदा चरितार्थ होता रहा। उनके जीवन का उदेश्य चमत्कार प्रदर्शन कभी नहीं रहा, क्योंकि दंभ और कपट उनसे कोसों दूर रहे। उनके हृदय की सरलता, शुचिता एवं कोमलता उनके सन्तत्व का प्रमाण है।‘‘साधुता’’ किसी वेश-भाषा या आश्रम का नाम नहीं, वह तो एक वृत्ति है जो परम पूज्य महाराज श्री के व्यक्तित्व में सहज है। बहिरंग जगत में समस्त भोग वैभव की सामग्रियों से घिरे प्रतीत होने पर भी, अन्तःकरण से एक योगी की भाँति वे इतने निर्लिप्त हैं, जिसकी तुलना ‘गीता’ के उस ‘स्थितप्रज्ञ पुरुष’ से की जा सकती है-

आपूर्यमाणामचलप्रतिष्ठं समुद्रामापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न काम कामी ।।

(श्रीमद्भगवद्गीता 3-60)

अर्थ के महत्व से भली प्रकार अवगत होते हुए विशेषकर वर्तमान समय में, परम पूज्य महाराज श्री जिस मुक्त हस्त से उसे लुटाते हैं, यह तो उनकी फ़कीराना प्रवृति का द्योतक है। जिस आशा से जो भी व्यक्ति उनके पास आया, चाहे लौकिक हो अथवा पारलौकिक, परम पूज्य श्री महाराज जी ने उसकी पूर्ति की। उनके दरबार में कभी कोई निराश नहीं लौटा। परम पूज्य महाराज श्री की कृपालुता एवं क्षमाशीलता का ध्यान, जब भी मुझे एकांत के क्षणों में आ जाता है, तो आँखों में अश्रु छलक आते हैं। विनय पत्रिका की वह पंक्ति-

ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं।
                                                                             ।(162)

मुझे पूज्य महाराज श्री में पूर्णरूप से साकार होती हुई दृष्टिगोचर होती है। मुझ जैसे अकिन्चन को अपनी शरण में लेना, उनकी अपार करुणा व महानता कृपा का प्रमाण है। मेरी असंख्य त्रुटियों एवं कमियों को धैर्यपूर्वक सुधारना, उनकी सहृदयता एवं संवदेनशीलता को व्यक्त करता है।


गुरू कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढै खोट।
भीतर से अवलम्ब  दै, ऊपर मारै चोट।।


ऐसे स्वयं सिद्धि सदगुरु का संरक्षण एवं छत्र छाया जिसे एक बार भयभीत नहीं कर सकते।
संसार में ऐसे अनेकानेक गुणवान व्यक्ति हैं, जिन्हें हम महान् कहते हैं, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे समाज में सबके लिए आदर्श हों। उनके व्यक्तित्व में कई विशेषताएं होते हुए भी वे लोक कल्याण के लिए उपादेय हों, यह जरूरी नहीं।
परमपूज्य महाराज श्री का जीवन एक ऐसा आदर्श उदाहरण है, जिसमें ‘प्रवृत्ति’ एवं ‘निवृत्ति’ दोनों ही परम्पराओं का सांगोपांग निर्वाह दिखाई देता है। बहते युग में वे एक आदर्श ‘युग पुरुष’ की भांति, समाज के दिग्भ्रमित को दिशाबोध कराते हैं और अपनी अनुभूति प्रसूति वाणी से नास्तिकों के अन्तःकरण में भी विश्वास की लौ जगा देतें हैं। अमृत बांटने के उद्देश्य से इस धराधाम पर पधारे हुए श्रीराम के अनन्य सेवक, समाज में वैचारिक एवं भावानात्मक परिवर्तन लाने में निरन्तर प्रयत्न हैं। बहिरंग जगत् में भले ही रामराज्य की स्थापना वर्तमान युग में संभव नहीं, परन्तु आन्तरिक जगत में यह महानतम लक्ष्य साकार हो, मोहरूपी रावण की सत्ता समाप्त हो कर श्रीराम का अखण्ड प्रेमाराज्य स्थापित हो, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में दुख-दोष एवं संशय दूर हो, सुख एवं शान्ति का साम्राज्य हो, यह उनका सतत यज्ञ प्रयास रहा है। किन्तु उन्होंने इसे कभी अपने वैयक्तिक उपलब्धि के रूप में नहीं देखा, चाहे वे अन्तरंग साक्षात्कार के क्षण हों या व्यासासन के भावोद्गार हों। यह उनकी विनम्रता की पराकाष्ठा है या निजानुभूति की सत्य स्वीकृति है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके निष्कर्ष तक कोई नहीं पहुँच पाया। अपने इष्ट के प्रति ऐसी अनन्यता और निष्ठा जैसे जीवन में आज तक अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिली।
युग पुरुष, अभिनव तुलसी, महान तत्ववेत्ता, मानस मर्मज्ञ, दार्शनिक, साहित्यकार, कवि हृदय, भक्त शिरोमणि, सन्त प्रवर, धर्मसेतु जैसी नाना उपाधियों का संगम जिस विराट व्यक्तित्व सिन्धु में होता है- वे हैं परम पूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज। ऐसे अवतार पुरुष जहाँ भी जाते हैं, वहीं ‘कुम्भ’ का महानतम पर्व मनाया जाता है। इस धराधाम को धन्य करने वाले, मानस के निज किंकर आपके श्री चरणों की इस मन्दाकिनी का बारम्बार वंदन स्वीकार करो।

सन्त सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बाल विनय सुनि करि रामचरन रति देहु।।
                                                                 (1-3-ख)
                                                                      मंदाकिनी

।।श्री रामः शरणं मम।।


अध्याय 1
चतुर चातक राम श्याम घन के



नमस्कार है उस महाभाग चातक को, जिस पर केवल प्रभु के गुणानुवाद ही गाने को दृढ़ प्रतिज्ञ महाकवि की लेखनी भी मचल उठी।  इतना ही नहीं उनके मन में स्वयं भी ‘राम घनश्याम तुलसी पपीहा’ बन जाने की चाह मुखारित हो उठी।
चातक पक्षी जो ठहरा, बिना पक्ष के प्रेमनिष्ठा सम्भव भी तो नहीं है, अन्य पक्षी तो केवल साधारण अर्थ में ही पक्षी (पंखवाले) हैं, चातक तो हृदय से भी है। इसी से तो महाकवि ने अन्य पक्षियों से तुलना करते हुए चातक की ही प्रशंसा की-

मुख मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर।
सुजस धवल चातक नवल रहयो भुवन भरि तोर।।
                                                                        दोहा-296

यों तो पछियों में मराल प्रत्येक दृष्टि से प्रशंसिक है, फिर भी उसके प्रेम में त्याग की वह कमनीय कान्ति कहाँ, जो चातक में है। वह तो मानस-सर का प्रेमी है, जहाँ आनन्द और सुख का ही साम्राज्य है,। मराल, तुम प्रत्येक दृष्टि से प्रशंसित हो, पर द्यान रहे, अनन्य प्रेमी चातक की तुलना तुम नहीं कर सकोगे-


बास बेल बोलनि चलनि मानस मंजु मराल।
तुससी चातक प्रेम की कीरति बिसद बिसाला।।
                                                                      दोहा-297

चातक घनश्याम को देखकर सदा ‘पिव-पिव’ पुकारा है, इससे कहीं भ्रम न हो जाए कि उसकी यह पुकार जल के लिए है, वह जल का प्यासा होता तो सरिता सरोवर की क्या कमी थी, वह भी अन्य पक्षियों की भाँति चाहे जहाँ जल पीकर प्रसन्न और तृप्त हो जाता-

डोलत बिपुल बिहंग बन पियत पोखरिन बारि।।
सुजस धवल चातक नवल तुही भुवन दस चारि।।
                                                                          दो० 95

पर वह तो प्रेम का ही प्यासा है-


चातक तुलसी के मतें स्वातिहुँ पिए न पानि।
प्रेम तृषा बाढ़ति भली घटें घटैगी आनि।।
                                                             दो० 279


वह तो स्वाती-मेघ के दर्शन का ही प्रेमी है। इसलिए यदि स्वाती की बूँदें भी तिरछी गिरती हैं, तो उन्हें पाने के लिये अपने मुख को टेढ़ा नहीं करता। दर्शन करते समय यदि एक-आध स्नेह-बिन्दु उसके मुख में गिर जाए तो वही उसके लिये बहुत है। दर्शन से वंचित होकर उसे स्वाति का जल भी नहीं चाहिए-

 
तुलसी चातक ही फबै मान राखिबो प्रेम।
बक्र बुंद लखि स्वातिहू निदरि निबाहत नेम।।
                                                                         दो० 286

धन्य है चातक तुम्हारी अनोखी प्रेमतृषा को ! चातक वृद्ध हो चला, मृत्यु क्रमशः निकट आ रही, पर उसे इसकी चिन्ता कहाँ, वह तो बार-बार पुत्रों को पास बैठाकर दोहराता है। ‘‘पुत्र ! कहीं तुम मरने के बाद स्वाति-जल छोड़कर दूसरे जल से तर्पण न कर देना।’’


तुलसी चातक देत सिख सुतहि बारहिं बार।
तात न तर्पन कीजिऐ बिना बारिधर धार।।
                                                                     दो०304


पर ऐसा अनन्य प्रेमी अपनी वृद्धावस्था से न मरा। मर जाता तो प्रेम का यह दिव्य आदर्श उपस्थित  करता। बधिक का बाण चातक के शरीर को क्षत-विक्षत करके उसे गंगा जी में गिरा देता है। पर वह गंगाजी, जिसे पाने के लिए मृत्यु के समय महामुनि भी तरसा करते हैं, आज चातक के लिए परम सुलभ होने पर भी उसकी प्रेमभरी दृष्टि में हेय-तुच्छ जान पड़ता है। इसलिए वह चोंच को ऊपर उठा कर उसे बन्द कर लेता है कि जिससे गंगाजल मुख में प्रविष्ट न हो जाए। बधिक का बाण शरीर में छेद कर सका, पर प्रेम-पट में नहीं-


बध्यों बधिक परयों पुन्य जल उठाई चोंच।
तुलसी चातक प्रेमापट मरतहुँ लगी न खोंच।।
                                                                  दो०302


पक्षी चातक जैसा प्रेम प्रभु से जब तक नहीं हो जाता, तब तक प्रेम का दम भरना व्यर्थ है।
एक ऐसे ही चातक का चरित्र-चित्रण ‘मानस’ में भी श्री गोस्वामीजी ने अपनी चमत्कारपूर्ण लेखनी से किया है। आइए, हम इस मूर्तिमान् प्रेम श्री लक्ष्मणजी रूपी चातक के दर्शन कर अपने को कृतकृत्य करें ! गोस्वामीजी के पास परम धन ही है-

भावते भरत के, सुमित्रा सीता के दुलारे,
चातक चतुर राम श्याम घन के।
बल्लभ उरमिलाके सुलभ सनेहबस,
धनी धन तुलसीसे निरधन के ।।
                                                     वि० प० 37

‘मानस’ में ऐसे महान् पात्रों का अभाव नहीं, जो महान् मर्यादापालक, धर्मधुरीण और प्रभु के प्रिय चरणसेवक हैं। जिनका चरित्र एक पूर्ण मानव का चरित्र है, जो पूर्णता की कसौटी पर पूर्ण रीति से खरे उतरते हैं। जिनका वैराग्य, जिसकी तपस्या अद्वितीय है। जिसका निर्मल यश चन्द्रमा के सदृश हृदय के समस्त पाप-तापों का शमन करने और असमर्थ-से-असमर्थ के लिए भी आशा का उज्जवल सन्देश देने वाला है। जिसकी यश-प्रभा से सारा ‘मानस’ प्रकाशित हो रहा है। जिसके हृदय की भक्ति, ज्ञान और कर्म की समन्वयात्मक त्रिकोणी में स्नान कर महामुनियों ने भी अपने को कृतार्थ अनुभव किया। अधिक क्या, जिसकी यश-गाथा गाते-गाते भगवान् श्री राघवेन्द्र भी नहीं थकते।
 पर इस परम प्रेमी में यदि आप उपर्युक्त गुण ढूँढ़ने जायेंगे, तो सम्भव है।  


        
      
 

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