आचार्य श्रीराम किंकर जी >> तुलसीदास मेरी दृष्टि में तुलसीदास मेरी दृष्टि मेंश्रीरामकिंकर जी महाराज
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गोस्वामी तुलसीदास के विभिन्न आयामों का वर्णन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीराम: शरणं मम।।
पुरोवाक्
प्रस्तुत ग्रन्थ ‘तुलसीदास मेरी दृष्टि में’ परम
पूज्यपाद
श्री रामकिंकरजी महाराज की वाणी का पैंसठवाँ पुष्प है। यह ग्रन्थ इन
अर्थों में अनोखा है कि इसमें हम महाराजश्री की दृष्टि से गोस्वामी
तुलसीदास को विभिन्न आयामों से देख सकेंगे। श्रीमत् रामकिंकरजी महाराज
तुलसी-साहित्य की तत्त्व एवं शास्त्रीय व्याख्या करने के लिए स्वनामधन्य
महापुरुष हैं। वे आचार्य कोटि के सन्त हैं। इनके गुणों में शील और उदारता
व्याख्यायित और चरितार्थ होते हैं।
जिस प्रकार से रोम-रोम से श्रीराम की सेवा करने वाले श्रीहनुमानजी महाराज अपना बल भूले रहते हैं, उसी प्रकार मैं आपको अन्तःकरण खोलकर कह देना चाहता हूँ कि महाराजश्री के व्यवहार और स्वभाव को देखकर कोई व्यक्ति यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं उस महापुरुष के सान्निध्य में हूँ जो सारे विश्व में मानस-शिरोमणि के रूप में सुविख्यात और मान्य हैं। जीवन में पग-पग पर सन्दर्भ चाहे व्यवहार का हो या अध्यात्म का, महाराजश्री अपनी बात को पुष्ट करने के लिए गोस्वामी तुलसीदास की कोई-न-कोई पंक्ति उद्धत किए बिना उसे पूर्ण नहीं मानते। यह बात पढ़ने या सुनने में भले ही प्रभावोत्पादक न हो, पर जो गोस्वामीजी की आत्मा से तादात्म्य रखकर जीवन की प्रत्येक श्वास जी रहा हो, यह सम्भव केवल उसी के लिए है।
यद्यपि काल की परिधि बहुत लम्बी-चौड़ी है, पर मेरे देखते-ही-देखते रामकथा-जगत् में अनेक निर्णायक मोड़ और क्षण आए, जब ऐसा लगने लगा कि कथा का वास्तविक स्वरूप अब कौन-सी दिशा लेता जा रहा है, लेकिन-उर प्रेरक रघुवंश विभूषन के द्वारा अन्तःप्रेरणा मिली कि जीवन का सम्बन्ध वायु से है आँधी से नहीं। अदम्य धैर्य और उपासना में निष्ठा के रहते भी कृपा पर विश्वास, महाराजश्री के जीवन का वास्तविक परिचय है। समय ने, समाज ने चाहे जो चाहा हो पर कथा मंच से आपने वही कहा जो गोस्वामीजी ने माना। वस्तुतः श्रीराम के सगुण-साकार स्वरूप की विवेचना का कार्य जब एक मनुष्य को दे दिया जाए, खासकर तब, जब अवतार के जीवन में होनेवाली घटनाएँ लगभग एक मनुष्य के जीवन की भाँति हों, उसमें अवतार की भगवत्ता, मर्यादा और उसकी अखण्डता को अखण्डित रखते हुए प्रतिपादित कर पाना बहुत जिम्मेदारी का कार्य है। जो मात्र उसी के लिए सम्भव है जिसको ठाकुर ने अपना कार्य करने के लिए चुना हो। सम्भवतः भविष्य को देखते हुए गोस्वामीजी ने भी मानस के प्रारम्भ में इस सन्दर्भ में यत्किंचित सावधानी के लिए स्पष्ट संकेत किया है कि-
जिस प्रकार से रोम-रोम से श्रीराम की सेवा करने वाले श्रीहनुमानजी महाराज अपना बल भूले रहते हैं, उसी प्रकार मैं आपको अन्तःकरण खोलकर कह देना चाहता हूँ कि महाराजश्री के व्यवहार और स्वभाव को देखकर कोई व्यक्ति यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि मैं उस महापुरुष के सान्निध्य में हूँ जो सारे विश्व में मानस-शिरोमणि के रूप में सुविख्यात और मान्य हैं। जीवन में पग-पग पर सन्दर्भ चाहे व्यवहार का हो या अध्यात्म का, महाराजश्री अपनी बात को पुष्ट करने के लिए गोस्वामी तुलसीदास की कोई-न-कोई पंक्ति उद्धत किए बिना उसे पूर्ण नहीं मानते। यह बात पढ़ने या सुनने में भले ही प्रभावोत्पादक न हो, पर जो गोस्वामीजी की आत्मा से तादात्म्य रखकर जीवन की प्रत्येक श्वास जी रहा हो, यह सम्भव केवल उसी के लिए है।
यद्यपि काल की परिधि बहुत लम्बी-चौड़ी है, पर मेरे देखते-ही-देखते रामकथा-जगत् में अनेक निर्णायक मोड़ और क्षण आए, जब ऐसा लगने लगा कि कथा का वास्तविक स्वरूप अब कौन-सी दिशा लेता जा रहा है, लेकिन-उर प्रेरक रघुवंश विभूषन के द्वारा अन्तःप्रेरणा मिली कि जीवन का सम्बन्ध वायु से है आँधी से नहीं। अदम्य धैर्य और उपासना में निष्ठा के रहते भी कृपा पर विश्वास, महाराजश्री के जीवन का वास्तविक परिचय है। समय ने, समाज ने चाहे जो चाहा हो पर कथा मंच से आपने वही कहा जो गोस्वामीजी ने माना। वस्तुतः श्रीराम के सगुण-साकार स्वरूप की विवेचना का कार्य जब एक मनुष्य को दे दिया जाए, खासकर तब, जब अवतार के जीवन में होनेवाली घटनाएँ लगभग एक मनुष्य के जीवन की भाँति हों, उसमें अवतार की भगवत्ता, मर्यादा और उसकी अखण्डता को अखण्डित रखते हुए प्रतिपादित कर पाना बहुत जिम्मेदारी का कार्य है। जो मात्र उसी के लिए सम्भव है जिसको ठाकुर ने अपना कार्य करने के लिए चुना हो। सम्भवतः भविष्य को देखते हुए गोस्वामीजी ने भी मानस के प्रारम्भ में इस सन्दर्भ में यत्किंचित सावधानी के लिए स्पष्ट संकेत किया है कि-
जे गावहिं यह चरित सँभारे।
तेइ एहि ताल चतुर रखवारे।
तेइ एहि ताल चतुर रखवारे।
व्यक्ति और समाज के समक्ष बहुत-से कार्य तात्कालिक उद्देश्य के लिए भी किए
जाते हैं, पर सब नहीं। हजारों पीढ़ियाँ बीत गईं और करोड़ों पीढ़ियाँ
आएँगी, जीवन जिस तरीके से वैज्ञानिकता के प्रवाह में न केवल आचमन और स्नान
कर रहा है अपितु उसके प्रवाह में हमारे जीवन-मूल्य, मानवीय संवेदनाएँ और
संस्कृति बहती चली जा रही है। बहने वाले को कदाचित् पता नहीं होता है कि
वह कहाँ टिकेगा, कहाँ रुकेगा। ऐसी स्थिति में केवल भावावेग और जनरंजन शैली
के माध्यम से श्रीराम-कथा को परोसना एक नादानी का कार्य है। भावी पीढ़ियों
को किसी अन्य घर्मावलम्बी अथवा बुद्धिवादी के कुछ जवाब भी देना पड़ सकता
है। ऐसी स्थिति में गहन अध्ययन और आत्मानुभूति का अभाव हो तो वक्तव्य पर
प्रश्न चिह्न लग सकता है। जाने-अनजाने में धर्म के साथ जनरंजन के आधार पर
कहीं हम खिलवाड़ ही तो नहीं कर रहे हैं ?
ऐसे अन्तरंग धर्म-संकट और विरोधाभासों के मध्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा किया गया कार्य भारतीय संस्कृति और वाङमय की अनमोल धरोहर के रूप में दिखाई देता है। भविष्य में जब किसी प्रश्न पर तथ्यपरक या तत्त्वपरक उत्तर की तलाश होगी तब निष्कर्ष निकालने के लिए रामकिंकर साहित्य ही खोला जाएगा।
इस पुस्तक का प्रकाशन भी उसी दिशा को सुदृढ़ करने का एक विनम्र प्रयास है। जो लोग इस दिशा में हमारा सहयोग कर रहे हैं, वे हमारे उद्देश्य भवन के महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं। यज्ञ सामूहिक सहयोग और मनोयोग के बिना सम्भव नहीं होता।
श्री कामताप्रसाद देवांगन महाराजश्री के कृपापात्र हैं। इस पुस्तक में सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग उन्हीं का है। मैं प्रभुश्री रामभद्र के चरणों में निवेदन करता हूँ कि उन पर श्रीरामभद्र, माँ, श्रीकिशोरीजी एवं पूज्यश्री गुरुदेव की कृपा बरसती रहे।
इसके सम्पादन का कार्य श्री नन्दकिशोर स्वर्णकार ने बड़ी निष्ठा और भावना से किया है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में मुझे प्रकाशन के सन्दर्भ में डॉ. मदनमोहन भारद्वाज का सहयोग प्राप्त होता रहा है। इन सबके प्रति मेरी हार्दिक मंगल कामना है।
परम आदरणीया दीदी मन्दाकिनीजी के प्रति यद्यपि मेरे द्वारा कृतज्ञता ज्ञापन का कोई विशेष महत्त्व नहीं है, पर फिर भी निरन्तर महाराजश्री के प्रवचन तथा व्यस्तता के रहते यदि मैं कुछ प्रकाशन की दिशा में सेवा कर पाता हूँ, तो उनकी भूमिका इन अर्थों में अत्यन्त महत्त्व की है। वे महाराजश्री के स्वास्थ्य और उनकी निजी सेवा में रहकर मुझे कुछ कहने के लिए समय और प्रेरणा देती हैं। मेरे निकटस्थ महाराजश्री के सेवक दिनेश तिवारी एवं नरेन्द्र शुक्ल की सेवाओं के प्रति भी मैं आभारी हूँ।
परम पूज्यपाद महाराजश्री के प्रकाशन में लेखन, पुनर्लेखन अथवा सम्पादन जैसी भूमिका में यदि आप लोगों में कोई हमें सहयोग करना चाहें तो कृपया निम्नलिखित पते पर पत्र द्वारा हमसे सम्पर्क करने की कृपा करें।
ऐसे अन्तरंग धर्म-संकट और विरोधाभासों के मध्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा किया गया कार्य भारतीय संस्कृति और वाङमय की अनमोल धरोहर के रूप में दिखाई देता है। भविष्य में जब किसी प्रश्न पर तथ्यपरक या तत्त्वपरक उत्तर की तलाश होगी तब निष्कर्ष निकालने के लिए रामकिंकर साहित्य ही खोला जाएगा।
इस पुस्तक का प्रकाशन भी उसी दिशा को सुदृढ़ करने का एक विनम्र प्रयास है। जो लोग इस दिशा में हमारा सहयोग कर रहे हैं, वे हमारे उद्देश्य भवन के महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं। यज्ञ सामूहिक सहयोग और मनोयोग के बिना सम्भव नहीं होता।
श्री कामताप्रसाद देवांगन महाराजश्री के कृपापात्र हैं। इस पुस्तक में सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग उन्हीं का है। मैं प्रभुश्री रामभद्र के चरणों में निवेदन करता हूँ कि उन पर श्रीरामभद्र, माँ, श्रीकिशोरीजी एवं पूज्यश्री गुरुदेव की कृपा बरसती रहे।
इसके सम्पादन का कार्य श्री नन्दकिशोर स्वर्णकार ने बड़ी निष्ठा और भावना से किया है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में मुझे प्रकाशन के सन्दर्भ में डॉ. मदनमोहन भारद्वाज का सहयोग प्राप्त होता रहा है। इन सबके प्रति मेरी हार्दिक मंगल कामना है।
परम आदरणीया दीदी मन्दाकिनीजी के प्रति यद्यपि मेरे द्वारा कृतज्ञता ज्ञापन का कोई विशेष महत्त्व नहीं है, पर फिर भी निरन्तर महाराजश्री के प्रवचन तथा व्यस्तता के रहते यदि मैं कुछ प्रकाशन की दिशा में सेवा कर पाता हूँ, तो उनकी भूमिका इन अर्थों में अत्यन्त महत्त्व की है। वे महाराजश्री के स्वास्थ्य और उनकी निजी सेवा में रहकर मुझे कुछ कहने के लिए समय और प्रेरणा देती हैं। मेरे निकटस्थ महाराजश्री के सेवक दिनेश तिवारी एवं नरेन्द्र शुक्ल की सेवाओं के प्रति भी मैं आभारी हूँ।
परम पूज्यपाद महाराजश्री के प्रकाशन में लेखन, पुनर्लेखन अथवा सम्पादन जैसी भूमिका में यदि आप लोगों में कोई हमें सहयोग करना चाहें तो कृपया निम्नलिखित पते पर पत्र द्वारा हमसे सम्पर्क करने की कृपा करें।
रामायणम् आश्रम
परिक्रमा मार्ग, जानकी घाट,
श्रीधाम अयोध्या-224123 (उ.प्र.)
दूरभाष : 0527-32152
परिक्रमा मार्ग, जानकी घाट,
श्रीधाम अयोध्या-224123 (उ.प्र.)
दूरभाष : 0527-32152
मैथिलीशरण
।। श्रीराम: शरण मम ।।
प्रथम प्रवचन
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी।
रामचरितमानस कबि तुलसी ।।1/35/1
रामचरितमानस कबि तुलसी ।।1/35/1
रामचरितमानस के रचयिता के रूप में गोस्वामी तुलसीदासजी का नाम लिया जाता
है पर गोस्वामीजी अपने आपको रचयिता नहीं मानते। गोस्वामीजी यह तो स्वीकार
कर लेते हैं कि-
रामचरितमानस कबि तुलसी
वे कवि तुलसी हैं, पर साथ ही वे यह भी स्पष्ट रूप से कह देते हैं कि उनमें
कविता करने की कोई क्षमता नहीं है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना
स्वाभाविक है कि बिना क्षमता के आप इतने बड़े कवि कैसे हो गए ? और इतने
विशाल ग्रन्थ का निर्माण आपने कैसे कर दिया ? गोस्वामीजी इस प्रश्न का
उत्तर देते हुए कहते हैं कि मुझमें तो बुद्धि थी नहीं, पर भगवान् शंकर की
कृपा से मुझमें सुमति का उदय हुआ जिसके कारण रामचरितमानस की रचना हुई और
मैं इसके कवि के रूप में जाना जाने लगा।
इसे पढ़कर तो यही लगता है कि गोस्वामीजी बड़े विनम्र थे और अपने इसी स्वभाव के कारण वे अपने आपको ‘मानस’ का रचयिता न मानकर इसे भगवान् शंकर का प्रसाद मानते हैं। पर वस्तुतः यह गोस्वामीजी की शाब्दिक विनम्रता न होकर उनकी अनुभूति का सत्य है। भगवान् शंकर को मानस का मूल रचयिता तथा अपने आपको मात्र अनुवादक बताने के पीछे सनातन धर्म का वह उद्देश्य निहित है ‘जो मूल आधार की खोज और प्राप्ति की प्रेरणा देता है।’ इसीलिए गोस्वामीजी का यह कथन धर्म को समझने का मूल सूत्र है।
किसी रचनाकार की प्रशंसा करते समय बहुधा यही कहा जाता है कि इनकी रचना मौलिक है। पर यदि हम शास्त्रीय परम्परा से देखें तो पता चलेगा कि वहाँ मौलिकता जैसी किसी तथाकथित विशेषता का कोई स्थान नहीं है। इस दृष्टि से ‘मानस’ में ही हम देखते हैं कि इसका कोई भी वक्ता यह कहे बिना नहीं रहता कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वह वेद और श्रुति के अनुकूल है। गोस्वामीजी जिन भगवान् शंकर का वर्णन मानस के रचयिता के रूप में करते हैं, वे भी यही बात दुहराते हुए दिखाई देते हैं।
भगवती पार्वती भगवान् शंकर से जब यह पूछती हैं कि श्रीराम का अवतार क्यों होता है तो प्रारम्भ में ही वे यह कह देते हैं। कि ईश्वर अथवा उसके अवतार के विषय में कोई दावे से यह नहीं कह सकता कि ‘इदमित्थ’-ऐसा ही है।
इसे पढ़कर तो यही लगता है कि गोस्वामीजी बड़े विनम्र थे और अपने इसी स्वभाव के कारण वे अपने आपको ‘मानस’ का रचयिता न मानकर इसे भगवान् शंकर का प्रसाद मानते हैं। पर वस्तुतः यह गोस्वामीजी की शाब्दिक विनम्रता न होकर उनकी अनुभूति का सत्य है। भगवान् शंकर को मानस का मूल रचयिता तथा अपने आपको मात्र अनुवादक बताने के पीछे सनातन धर्म का वह उद्देश्य निहित है ‘जो मूल आधार की खोज और प्राप्ति की प्रेरणा देता है।’ इसीलिए गोस्वामीजी का यह कथन धर्म को समझने का मूल सूत्र है।
किसी रचनाकार की प्रशंसा करते समय बहुधा यही कहा जाता है कि इनकी रचना मौलिक है। पर यदि हम शास्त्रीय परम्परा से देखें तो पता चलेगा कि वहाँ मौलिकता जैसी किसी तथाकथित विशेषता का कोई स्थान नहीं है। इस दृष्टि से ‘मानस’ में ही हम देखते हैं कि इसका कोई भी वक्ता यह कहे बिना नहीं रहता कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वह वेद और श्रुति के अनुकूल है। गोस्वामीजी जिन भगवान् शंकर का वर्णन मानस के रचयिता के रूप में करते हैं, वे भी यही बात दुहराते हुए दिखाई देते हैं।
भगवती पार्वती भगवान् शंकर से जब यह पूछती हैं कि श्रीराम का अवतार क्यों होता है तो प्रारम्भ में ही वे यह कह देते हैं। कि ईश्वर अथवा उसके अवतार के विषय में कोई दावे से यह नहीं कह सकता कि ‘इदमित्थ’-ऐसा ही है।
हरि अवतार हेतु जेहि होई।
इदमित्थं कहि जाइ न सोई।।
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहि सयानी।।1/120/2,3
इदमित्थं कहि जाइ न सोई।।
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहि सयानी।।1/120/2,3
यह एक सैद्धान्तिक सत्य है। फिर भी उसके विषय में कहनेवाले जो कुछ कहते
हैं उसे किस अर्थ में लिया जाए ? इस पर प्रकाश डालते हुए भगवान् शंकर कहते
हैं कि-
तदपि संत मुनि बेद पुराना।
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना।।1/120/5
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना।।1/120/5
फिर वे आगे स्पष्ट रूप से कह देते हैं कि मैं अपनी ओर से कुछ नहीं कह रहा
हूँ अपितु वही बात जो सन्तों, मुनियों, पुराणों और वेदों के द्वारा कही गई
है, तुम्हें सुना रहा हूँ।
तस मैं सुमुखि सुमावउँ तोही।
समुझि परइ जस कारन मोही।।1/120/5
समुझि परइ जस कारन मोही।।1/120/5
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