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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> तुलसी रघुनाथ गाथा

तुलसी रघुनाथ गाथा

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4344
आईएसबीएन :0000

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तुलसीदास को व्याख्यायित करती कृति.....

Tulsi Raghunath Gatha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जब कोई व्यक्ति मानस के संदर्भ में मेरे गंभीर अध्ययन और परिश्रम की प्रशंसा करता है, तब मुझे हँसी आये बिना नहीं रहती क्योंकि वस्तुस्थिति यह है कि राम कथा मेरे लिए उतनी ही सहज है जितना सहज सांस लेने है। कोई व्यक्ति सांस लेने की क्रिया का कोई अहंकार थोड़ी करता है कि मैं कितना सावधान हूँ रात दिन सांस लेता रहता हूँ।

वंदौ तुलसी के चरण.....

जीवन जिया था पिया दुख के हलाहल को आपने पिलाया प्रेम अमिय सुबानी से चारों ओर छाई थी निराशा की अँधेरी रात आपने जलाई ज्योति ज्ञान की सुबानी से नीति प्रीति स्वार्थ परमार्थ का समन्वय हो ऐसी अनहोनी सिखलाई दिव्य वाणी से ज्ञानी कहूँ भक्त कहूँ या कि कर्मयोगी कहूँ किंकर कृतार्थ हुआ आपकी सुबानी से।

रामकिंकर

।। कृतज्ञता ज्ञापन।।


बैकुण्ठबासी श्री सरदारीलाल जी ओबराय अत्यन्त भावुक धर्मशील और बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवं श्रेष्ठ नागरिक थे। शिक्षा, समाजसेवा, धर्म तथा व्यापार में उनका योगदान देहरादून तथा आसपास की जनता जानती है। जाने कितनी रुग्ण संस्थाओं को उनके अथक प्रयास से जीवन मिला और आज वे समाज को दिशा व आत्मबल दे रही हैं। वे अपनी सफलता में न जाने कितने लोगों का नाम गिनाते थे। यह उनकी कृतज्ञता की वृत्ति थी। योगिराज श्री देवराहा बाबा के अनन्य भक्तों में उनका स्थान था।
देहरादून की धार्मिक जनता की भावना का प्रमुख केन्द्र ‘गीता भवन’ उनके द्वारा पुष्पित और पल्लिवत संस्थाओं में मुख्य है।

स्वर्गाश्रम ऋषिकेश में उनसे मेरा परिचय हुआ तथा वे स्वर्गपुरी आश्रम, देहरादून में भी प्रवचन में आये और आग्रहपूर्वक उन्होंने मुझे प्रतिवर्ष देहरादून बुलाया। प्रतिवर्ष उनसे और उनके परिवार से मेरे सम्बन्ध घनिष्ठ होते गये। बुलाया। वर्ष 1997 के सितम्बर माह में उनका शरीर पूरा हो गया है अतः उनकी आत्मा को यह श्रेष्ठ श्रद्धांजलि देने का विचार उनके पुत्र चि. राकेश तथा चि. अम्बरीश तथा श्रीमती शकुन्तला ओबराय के अन्तःकरण में जाग्रत हुआ। यह प्रसन्नता की बात है। इस प्रकाशन के द्वारा लाखों पाठकों की ज्ञान-पिपासा को शान्ति मिलेगी। जिसके लिए श्री सरदारीलाल जी दिनभर कर्य करते रहे।
इस सम्बन्ध में मैं उनके ज्येष्ठ पुत्र चि. राकेश, कनिष्ठ चि. अम्बरीष तथा श्री ओबराय की धर्मपत्नी श्रीमती शकुन्तला जी को आशीर्वाद देता हूँ।

रामकिंकर

प्रणाम निवेदन


परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज को मैं किस कोण से देखकर सम्बोधित करूँ, यह मेरे लिए कठिन बात है। वस्तुतः वे इस युग की आध्यात्मिक आवश्यकता हैं। भले ही उनका कार्य आतिशबाजी की भाँति चकाचौंध मचाने वाला नहीं है। पर रामकथा और तुलसीदास को आपने सर्वोच्च स्तर की व्याख्या के द्वारा विश्व के समस्त बुद्धिजीवियों से लेकर सामान्य नागरिकों को निधि दी है।

महाराजश्री के प्रवचन में किसी प्रकार की कला या कौशल का प्रदर्शन नहीं होता है। श्रोता को प्रभावित करने के उद्देश्य से वे कथा-विस्तार नहीं करते हैं। वे कृति की गरिमा तथा प्रतिपाद्य की मूर्ति की मर्यादा को अपने प्रतिपादन की छैनी के द्वारा खण्डित नहीं होने देते हैं। अपना इस अश्रुत पूर्व शैली के कारण वे अपनी अलग पहचान बनाये हुए हैं। और तुलसी साहित्य की लौ के द्वारा स्थायी प्रकाश फैलाने का कार्य कर रहे हैं।

इन दिनों मैं कई श्रेष्ठ वक्ताओं के सम्पर्क में आया। उनसे ज्यों ही महाराजश्री रामकिंकर जी कि चर्चा हुई तो उनमें से अधिकांश ने महाराजश्री को वक्ताओं के वक्ता कहकर सम्बोधित किया, और कहा कि हम तो उनके ग्रन्थों का प्रसाद ही अपनी वाणी के पात्र के द्वारा श्रोताओं को परोस रहे हैं। यह सुनकर उन वक्ताओं की सरलता तथा महाराजश्री के वैशिष्ट्य के प्रति मैं नतमस्तक हुआ।

पर महाराजश्री का एक परिचय वह भी है, जब वे हमारे निवास, रेसकोर्स रोड पर ठहरते हैं और पूरे परिवार के सभी सदस्य रात्रि को उनके कमरे में जाकर बैठते हैं। तब उस समय महाराजश्री की भूमिका परिवार के विशिष्ट व्यक्ति की तरह हो जाती है, और वे प्रेम से सराबोर कर देते हैं। वे जिस कमरे में ठहरते हैं, वह हमेशा महाराजश्री का ही कमरा कहलाता है।

हमारे पूज्य पिताश्री सरदारीलाल जी ओबराय जिनकी कृपा से हम लोगों को महाराजश्री का सत्संग मिला। वे सन्तों के साथ रहने में सदैव आनन्दित रहते थे। जब तक वे रहे, विगत 20 वर्षों तक प्रतिवर्ष महाराजश्री का देहरादून पधारना होता रहा।
पिछले वर्ष सितम्बर, 97 में उनका शरीर पूरा हो गया। यह प्रथम वर्ष था जब पापा की अस्वस्थता के कारण महाराजश्री देहरादून नहीं आ सके।

प्रस्तुत हम दोनों भाइयों और हमारी पूज्या माँ श्रीमती शकुन्तला ओबराय की श्रद्धा संकल्प का साकार विग्रह है। महाराजश्री ने इसकी अनुमति देकर हम पर महती कृपा की।

प्रथम अध्याय


पाई न केहि गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजमिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलिमल मनोमल धोई बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।  
सत पंच चौपाई मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अविद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।2।।
संदुर सुजान कृपानिधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परमु बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।  
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु विषम भव भीर।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमी दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।। (राम.च.मा., 7/130)

प्रभु की रामभद्र की आसीम अनुकम्पा से पुनः इस वर्ष यह सुअवसर मिला है कि आप सब श्रद्धालु श्रोताओं के बीच प्रभु के मंगलमय चरित्र पर कुछ चर्चा की जा सके। गोस्वामीजी का जो दिव्य और उत्कृष्ट चिन्तन है, हम ‘रामचरितमानस’ और तुलसी-साहित्य में उनको ही बार-बार खोजने का यत्न करते हैं।
गोस्वामीजी की यह अलौकिक दृष्टि और उनका ‘दर्शन’ हमें बार-बार अपनी ओर आकृष्ट करता है। अतः तुलसी पञ्चशती-वर्ष के इस अवसर पर हम इसे ही कथा-प्रसंग का केन्द्र बनाकर जो पंक्तियाँ अभी पढी गयी हैं, उन पर एक दृष्टि डालने की चेष्टा करें !

आपने ध्यान दिया होगा, कि अपने आपको साहित्यकार और बुद्धिजीवी मानने वाले अपने लेखन और परिचर्चाओं में ‘कुण्ठा’, ‘सन्त्रास’ आदि कुछ शब्दों को बार-बार दुहराते रहते हैं। इधर कुछ दिनों से जिस एक और शब्द का प्रयोग बढ़ा है,  वह शब्द  है- ‘प्रासंगिकता’। ‘तुलसीदासजी की प्रासंगिकता क्या है ?’ आदि विषयक लेख और चर्चाएं पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं। इस वर्ष दिल्ली में आयोजित तुलसी पञ्चशती समारोह मुझे इसलिए भी अच्छा लगा कि वहाँ कई वक्ता बोले पर किसी ने भी ‘तुलसीदास की प्रासंगिकता’ पर प्रश्नचिन्ह लगाने अथवा इस पर वाद-विवाद उठाने की आवश्यकता नहीं समझी !

जब कोई यह प्रश्न करता है कि ‘तुलसी’ की प्रासंगिकता क्या है  ?’ अथवा यह सिद्ध करने की चेष्ठा करता है कि ‘तुलसी आज भी प्रासंगिक है’  तो पढ़कर हँसी आती है। क्योंकि जो तुलसी की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाते हैं वे यह नहीं देख पाते कि उनकी स्वयं कोई प्रासंगिकता है भी या नहीं ? और तुलसीदासजी को प्रासंगिक सिद्ध करने वालों से यह पूछें कि देश में कोटि-कोटि व्यक्ति जिनसे प्रेरणा प्राप्त करता है उनकी प्रासंगिकता की घोषणा आप अपनी गोष्ठी में कर देंगे तो क्या लोग आपको धन्यवाद देंगे कि आपने तुलसी को प्रासंगिक मान लिया, बड़ी कृपा की ? गोस्वामीजी को ऐसे किसी प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः विचार यह करना कि पाँच सौ वर्ष व्यतीत करने के बाद भी वे इतने प्रासंगिक क्यों हैं ?

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