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मानस रोग भाग 3

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :231
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4348
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत है मानस रोग की तीसरा भाग....

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Manas Rog (3)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

प्रस्तुत पुस्तक ‘मानस-रोग’ को मिलाकर 4 भागों में प्रकाशित होगी। इसके तीन खण्ड इस समय तैयार होकर आपके समक्ष हैं। इस श्रृंखला का एक खण्ड ‘मानस चिकित्सा’ नाम से प्रकाशित हुआ था। ये प्रवचन ‘रामकृष्ण मिशन’, विवेकन्नद आश्रम, रायपुर में हुए थे। ब्रह्मलीन स्वामी श्री आत्मानन्दजी महाराज न केवल एक श्रेष्ठ वक्ता थे अपितु वे उतने ही उच्चकोटि के श्रोता भी थे। बार-बार तत्कालीन श्रोता समाज को सम्बोधित करते हुए कहते थे। कि ये प्रवचन मेरी साधना हैं। साथ ही वे मानव के उन प्रसंगों को प्रवचन के लिए मेरे सक्षम चुनते थे। जो प्रवचन परम्परा से बिलकुल भिन्न होते थे।

‘मानस-रोग’ प्रसंग रामचरितमानस के उन गम्भीरतम प्रसंगों में से एक हैं जिनकी चर्चा प्रायः कथा–मंचों से होने की परम्परा नहीं रही है। रायपुर आश्रम में नौ-नौ के पाँच सत्रों में 45 प्रवचन इस विषय पर हुए थे। स्वामी महाराज की तो इच्छा थी कि लगातार एक वर्ष तक रायपुर में रहकर मैं इस विषय पर प्रवचन करूँ। पर मेरी व्यस्तता और लगातार बने कार्यक्रमों की कतार में उनका यह प्रस्ताव तो मैं पूर्ण नहीं कर सका, पर पाँच वर्षों तक एक ही विषय को लेकर प्रभु ने कुछ अनोखी चर्चा अवश्य कराई।

कागभुशुण्डिजी के द्वारा पक्षिराज गरुण को सम्पूर्ण रामकथा सुनाने के बाद भुशुण्डिजी ने जब गरुड़जी से कहा कि यदि आप और भी कुछ सुनना चाहते हैं तो बताइए तब गरुड़जी ने कागभुशिण्डजी से सात प्रश्न किए। जिनमें अन्तिम प्रश्न है कि मानस रोग कहहु समुझाई ‘मानस-रोग’ क्या हैं और उनके लक्षण और चिकित्सा क्या है ? इन प्रश्नों के पीछे गोस्वामीजी की महती और कल्याणकारी भावना थी। मानो वे रामकथा को व्यक्ति के जीवन से जोड़ना चाहते थे। सब कुछ सुन लेने के पश्चात भी उन्हें यह लगा कि रामचरित मानस केवल एक मनोरंजन का साधन और बुद्धि-विलास बनकर ही न रह जाए, अपितु इसमें मानस का जुड़ना भी आवश्यक है। तभी यह पूर्ण रामचरितमानस होगा।

जिस प्रकार अनेक प्रकार के पदार्थों के रहते हुए भी व्यक्ति यदि शरीर से स्वस्थ्य नहीं है तो उनका भोग वह नहीं कर सकता, क्योंकि स्वस्थता के अभाव में वह किये हुए भोजन को पचा ही नहीं सकेगा। और शरीर को किए हुए भोजन का लाभ तभी मिलता है जब वह पूर्ण रूप से पच जाए। इसी प्रकार यदि व्यक्ति का मन स्वस्थ्य नहीं है, मानस-रोगों से ग्रस्त है तो रामचरितमानस में वर्णित पात्रों और उनके चरित्र की व्याख्या को सांसारिक व्याख्या के रूप में ही देखेगा। परिणाम होगा कि उसके जीवन में उस कथा का कोई भी लाभ नहीं होगा। क्योंकि इस कथा के नायक श्रीराम तत्वतः ब्रह्म हैं। और वे लोककल्याण के लिए नर जैसी लीला कर रहे हैं।

सगुण साकार के क्रिया-कलापों की आध्यात्मिकता को समझने के लिए व्यक्ति का मन से स्वस्थ होना नितान्त आवश्यक है। ‘सरुज सरीर वादि बहु भोगा’ की अर्धाली में इसी सत्य की ओर इंगित किया गया है। पर यदि मन ही अस्वस्थ हो तो शरीर की स्वस्थता उसे पूर्णानन्द की ओर नहीं ले जा सकती।

मानस-रोगों के विश्लेषण एवं उनके प्रदर्शन का तात्पर्य एक स्वस्थ्य और आदर्श जीवन की उपलब्धि है। खासकर तब जब विज्ञान ने मनुष्य की वांछित सुख-सुविधाओं को उपलब्ध करा दिया हो, और फिर भी अशान्ति बढ़ती जा रही हो। तब यह निश्चित हो जाता है कि कारण बाहर नहीं अंदर है। कागभुशुण्डि-संवाद के मध्य जीवन के मूलभूत प्रश्नों को बड़ी ही सूक्ष्मता से उभारा गया है। प्रस्तुत पुस्तक में आशा है, पाठकों को मानस-रोगों के सन्दर्भ से कुछ समाधान मिलेगा।

इस ग्रन्थ के प्रकाशन का आर्थिक सहयोग रायपुर के श्री सन्तोषकुमार द्विवेदी ने उठाया है। उनको और उनके परिवार को मेरा हार्दिक आशीर्वाद एवं शुभकामनाएँ। प्रभु की जब विशेष कृपा होती है। तब व्यक्ति के अंतः करण में अर्थ को परमार्थ की दिशा में लगाने की इच्छा उत्पन्न होती है। हमारे यहाँ धन की तीन गति बताई गई हैं- 1. भोग. 2. दान, 3. विनाश। निश्चित रूप से धन की चौथी कोई और गति हो ही नहीं सकती। श्री द्विवेदी का परिवार मेरा शिष्य है। कथा के प्रति इनकी विशेष अभिरुचि का सुपरिणाम है, इनके द्वारा किया जाने वाला यह आर्थिक सहयोग। भगवान भी इनके ऊपर कृपा बनी रहे, यही मेरा आशीर्वाद है।


रामकिंकर



श्रद्धा सुमन


परमपूज्य सदगुरु संतप्रवर परम कृपालु श्री रामकिंकरजी महाराज के स्नेहाशीष और आशीर्वाद से ‘मानस-रोग 3’ ग्रंथ हमारे परिवार द्वारा प्रकाशित हो रहा है। यह हमारे लिए अत्यन्त हर्ष, उल्लास और गौरव का विषय है। महाराजश्री की इस कृपादृष्टि के लिए हमारा समस्त परिवार उनका चिरश्रणी है।

हमारे पिता स्वः पं. शिवनिवास दुबे एंव माता श्रीमती कमला दुबे अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति के थे। पिताजी मूलतः ग्राम लालापुर जिला प्रयाग के थे। धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन, मनन-चिन्तन में उनकी विशेष रुचि थी।
हमारे भाई स्व. राघवेन्द्र कुमार दुबे एवं स्वः ललित दुबे (अविवाहित, मृत्यु 1999 में) एवं पूजनीय माता-पिता के पुण्य स्मरण स्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थ महाराजश्री की कृपा, प्रसाद एंव आशीर्वाद से प्रकाशित हुआ।

प्रस्तुत ग्रन्थ ‘मानस-रोग’ का विषय अत्यन्त व्यापक हैं मानस-रोग और उनके निदान का उद्देश्य हमें यह दिखाना है कि रामकथा सुनकर हम स्वस्थ हुए या नहीं, हमें देख सकें कि हमारा मन कितना स्वस्थ हुआ है।
इस प्रयास में प्रेरणा पुंज महाराजश्री तो है ही, साथ-साथ दीदी (मंदाकिनी), व्यासजी (पं. उमाशंकर शर्मा) एवं भाईजी (श्री मैथिलीशरण) की सार्थक सोच से ही यह साकार हो सका।
इन्ही शब्दांजलि प्रणाम के साथ सदैव गुरुचरणरज स्नेहाकांक्षी-

महाराजश्री-एक परिचय


प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वे वे हैं- पुरुष., भक्तितत्तवद्रष्टा, सन्तप्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर-गम्भीर वाणी के माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवीयों को, नानापुराण- निगमाम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रसासिक्त करते हुए प्रतिफल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एंव दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अदभुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्यान हैं।
भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणिक कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्याय के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि हैं-


धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः
दिव्यरामकथादुग्धँ प्रस्तोता रामकिंकरः।।

जैसे पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्चापुर के बरौनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरदेवी एवं पिता श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविधा व्याख्याकार एवं हनुमान महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमान जी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।

जन्म से होनहार न प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। अपने इसी सहज गुण के कारण अध्यापकों का भी आपको वात्सल्य प्राप्त रहा। बाल्यावस्था में ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभसीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्नर संकल्पनुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसा बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु रथनशैवली व वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बताकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशेष रूप से आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराज श्री की जितनी गहरी पैठ है, भक्ति साधना का उतना ही प्रबल पक्ष आपके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो आपने संकोची स्वभाव के कारण आपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का कहस्योदघाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ ! वैसे ही चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महापूज्यश्री के साथ घटित हुईँ जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।


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