लोगों की राय

आचार्य श्रीराम किंकर जी >> परशुराम संवाद

परशुराम संवाद

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :23
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4354
आईएसबीएन :000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

15 पाठक हैं

लक्ष्मण-परशुराम संवाद

Parashuram Samvad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संयोजकीय

रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या तात्विक कौन है। वे विषयवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता को आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपराण सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति हो जाती है।

हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्रा आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।

रायपुर (छत्तीसगढ़) के श्री अनिल गुप्ता एवं समस्त परिवार का आर्थिक सहयोग इसमें सन्निहित है। उन्हें महाराजश्री का आशीर्वाद !

मैथिलीशरण

कृतज्ञता ज्ञापन

श्रीसद्गुरवै नमः
हमारे परिवार के आध्यात्मिक-प्रेरणास्रोत पूज्यपिताश्री नारायण प्रसाद गुप्तजी (आरंग वाले) दिनांक 13-11-96 को अपने दिव्य धाम के लिए प्रस्थान कर गये। उन्हीं धार्मिक विचारों से प्रेरित परिवार को इस कार्य द्वारा माता सरस्वती के मन्दिर में एक दिव्य सुमनांजलि समर्पित करने का पुण्य अवसर मिला। इस सबके पीछे सद्गुरु महाराजजी की कृपा एवं ईश्वरेच्छा ही मूल कारण है। उस परम शक्तिमान के प्रति हम सदैव श्रद्धानत हैं।

यहाँ पर भाई मैथिलीशरणजी एवं परम विदुषी दीदी मंदाकिनीजी जो श्री सद्गुरुदेव के अत्यन्त प्रेमी एवं निकट हैं तथा उन सभी श्रद्धालुओं के प्रति हार्दिक धन्यवाद देना हमारा परम कर्त्तव्य है जिनका इस पुस्तक-माला में, श्रीगुरुदेव के प्रवचनों के संयोजन में, विशेष सहयोग रहा है। वे इसलिए भी धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि उन्हीं के सहयोग और श्रद्धाभावना से श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के ज्ञान, आनन्द, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुणों के विपुल भण्डार से समय-समय पर ग्रन्थ के रूप में सुलभ कराते हैं।

श्रीराम में हमारी अखण्ड भक्ति बनी रहे,
श्रीसद्गुरुदेव की कृपा सब पर वर्षित हो।


।। श्रीराम: शरणं मम ।।


परशुराम संवाद



आजकल रामलीला में लोगों को लक्ष्मण-परशुराम तथा अंगद-रावण संवाद अधिक रोचक प्रतीत होता है। जिसमें अधिक भीड़ होती है। जिस दिन झगड़े की बात हो, तू-तू मैं-मैं हो उस दिन लोगों को अधिक रस की अनुभूति होती है। बहिरंग दृष्टि यही है, पर रामायण में ये दोनों प्रसंग गम्भीर हैं। दोनों प्रसंग एक-दूसरे के पूरक हैं। उस सूत्र पर आप दृष्टि डालिए, जिस सन्दर्भ में ये दोनों संवाद हुए हैं। धनुष टूटने पर परशुरामजी आते हैं और उनके गुरु शंकरजी के धनुष के टूटने पर बड़ा क्रोध प्रदर्शित करते हैं और लक्ष्मणजी से संवाद होता है। कहना तो यह चाहिए कि यह राम-राम संवाद है।

तुलसीदासजी ने इसे लक्ष्मण-परशुराम संवाद नहीं लिखा, गोस्वामीजी के शब्द इसके लिए बड़े महत्त्व के हैं। वे कहते हैं कि यह राम-राम संवाद है। राम का परशुराम से संवाद हुआ, परन्तु लोगों ने इतना रस और आनन्द इसमें नहीं लिया, जितना लक्ष्मण- परशुराम संवाद में लिया, क्योंकि श्रीराम के संवाद में उस प्रकार का व्यंग्य, विनोद और आक्षेप तो है ही नहीं। इसलिए नाम चुनने में भी साधारण व्यक्ति ने अपनी रुचि का परिचय दिया तथा राम-राम संवाद को भी लक्ष्मण-परशुराम संवाद के रूप में ही देखना पसन्द किया।

इस प्रसंग की पृष्ठभूमि है-धनुर्भंग के बाद परशुरामजी का क्षोभ, क्रोध और इस प्रसंग में उनका भगवान् राम और लक्ष्मण से उत्तर और प्रति-उत्तर तथा दूसरा अंगद-रावण-संवाद लंका में हुआ। ये दोनों नगर एक- दूसरे के विरोधी नगर हैं। जनकपुर विदेहनगर है और रावण की लंका देहनगर है। एक संवाद विदेहनगर में हुआ तो दूसरा देहनगर में और दोनों संवादों के केन्द्र में श्रीसीताजी ही हैं। धनुर्भंग के बाद श्रीपरशुरामजी का आगमन होता है। रावण की सभा में भी अंगद ने रावण से कहा था कि यदि आप मेरा चरण हटा दें तो श्रीसीताजी को मैं हार जाऊँगा और श्रीराम भी लौट जायेंगे।

रावण को मन्दोदरी ने यह उलाहना दिया कि जब महाराज जनक ने यह प्रतिज्ञा की कि धनुष तोड़ने वाले को मैं अपनी कन्या दूंगा तो आपके लिए मार्ग खुला हुआ था। आप धनुष तोड़कर सीताजी को पा लेते। तब आपकी निन्दा और आलोचना न होती। तब आपने ऐसा क्यों नहीं किया ? रावण ने अपनी बात बनाने के अनकूल यह कहा कि मन्दोदरी ! अगर जनक ने केवल इतनी प्रतिज्ञा की होती कि धनुष उठाने वाले को मैं अपनी कन्या अर्पित करूँगा तो मैं क्षणभर में धनुष उठा देता, क्योंकि जिसने शंकरजी सहित कैलास पर्वत को उठा लिया, उसके लिए धनुष उठाना तो बायें हाथ का खेल था, परन्तु जनकजी ने शर्त रख दी तोड़ने की। तुम जानती हो कि वह धनुष मेरे गुरुजी का था। गुरुजी की वस्तु को तोड़ना, यह तो शिष्य के लिए उचित नहीं था। गुरुदेव का अनादर न हो इसीलिए मैंने धनुष को नहीं तोड़ा। मन्दोदरी को चुप हो जाना पड़ा।
अंगद ने रावण की सभा में ही रावण की कलई खोल दी। अंगद ने कहा कि जनकपुर में सीताजी की प्राप्ति के लिए जनकजी ने प्रतिज्ञा की थी, आज मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि –

जौं मम चरन सकसि सठ टारी।
फिरहिं राम सीता मैं हारी।।6/33/9

व्यंग्य क्या था ? वहाँ उठाना और तोड़ना दोनों था और यहां उठाना ही है तोड़ना नहीं और उठाने में भी कोई शंकरजी का धनुष नहीं है, बन्दर का चरण है। इसीलिए तुम चेष्टा करो। दोनों प्रसंगों के केन्द्र में श्रीसीताजी हैं और दोनों जगह प्रतिज्ञा से जुड़ी हुई बात है। अंगद ने श्रीसीताजी को केन्द्र में रखकर जो वार्तालाप किया, उसमें अन्तर कहाँ है ? यह बड़े महत्त्व का प्रश्न है कि अंगद-रावण-संवाद की परिणति वैसी नहीं होती जैसी श्री लक्ष्मण-परशुराम संवाद की हुई। यहां बड़ा विचित्र व्यंग्य है। यहाँ पर धनुष टूटने के पूर्व ऐसा लगता था कि जैसे सीताजी श्रीराम को प्राप्त नहीं हैं और वहां यह लगता है कि अंगद की प्रतिज्ञा तो बड़ी विचित्र है। श्रीसीताजी तो श्रीराम के पास नहीं हैं, श्रीसीताजी तो लंका में हैं और जब श्रीसीताजी लंका में हैं ही, तब अंगद के द्वारा यह प्रतिज्ञा करना कि मैं श्रीसीताजी को हारता हूँ, यह तो बड़ा विचित्र है।
दाँव पर तो आप उसी को लगा सकते हैं जो आपके पास हो और जो आपकी हो। जो वस्तु सामने वाले के पास पहले से ही है, उस वस्तु को दाँव पर लगाना उचित नहीं प्रतीत होता।

अंगद से बाद में बन्दरों ने दो प्रश्न किये कि एक तो आप यह बताइए कि रावण की सभा में आपने जो प्रतिज्ञा की उसका उद्देश्य क्या था ? और प्रतिज्ञा करते समय आपके मन में कोई भय या चिन्ता हुई कि नहीं ? और दूसरा प्रश्न यह किया कि जब रावण के मुकुट आपके हाथ में आये तो आपने उन मुकुटों को तुरन्त क्यों फेंक दिया ? आप तो लौटकर आने ही वाले थे। आप मुकुटों को बगल में दबाये रहते और जब आप भगवान् राम के पास आते तो मुकुट उनके चरणों में रख देते, लेकिन आप इतने उतावले हो गये कि ज्यों ही मुकुट आपके हाथ में आये आपने उनको तुरन्त फेंक दिया।

अंगद ने उत्तर दिया कि मैं रावण की कलई खोलना चाहता था और वह खुल गयी। स्थूल दृष्टि से देखने वालों को, सभी को, यह भ्रम होता है कि रावण ने सीताजी को प्राप्त कर लिया है, पर जब मैंने प्रतिज्ञा की और रावण ने यह कहा कि इस बन्दर का पैर पकड़कर इसको पछाड़ दो तो सुनकर मुझे हँसी आ गयी। सबको यह धोखा है कि तुमने सीताजी को प्राप्त कर लिया है, पर अगर तुमने सचमुच प्राप्त कर लिया होता तो तुम यह प्रयत्न न करते। प्रयत्न करने का अर्थ यह है कि तुम्हारा प्राप्त करना नकली है, तुमने पाया कुछ नहीं। सीताजी को प्राप्त कर लेने की भ्रान्ति है। अंगद को प्रतिज्ञा करके चिन्ता हुई कि नहीं ? चिन्ता तो आज तक पढ़ने वालों को भी हो जाती है। अगर चरण टल गया होता तो क्या होता ?

अंगद ने बन्दरों से पूछा कि यह बताओ कि जो वस्तु मैंने दाँव पर लगायी, वह मेरी थी कि प्रभु की थी ? अगर वस्तु प्रभु की थी तो चिन्ता प्रभु को होनी चाहिए कि मुझे होनी चाहिए ? मैं क्यों चिन्ता करता ? और मुकुट फेंकने में इतना उतावलापन क्यों किया ? अंगद ने दो चमत्कार किये-चरण के द्वारा रावण की परीक्षा ली और जमीन पर मुक्का मारकर रावण को दूसरे सत्य का परिचय कराया। मुक्का मारते ही रावण मुँह के बल सिंहासन से जमीन पर गिर पड़ा।

हनुमानजी ने रावण से कहा था कि तुम प्रभु के चरणों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। रावण ने बिगड़कर पूछा कि लंका का राज्य मैं नहीं कर रहा हूँ तो क्या तुम कर रहे हो ? मेरी लंका मुझी को दे रहे हो ! पर हनुमानजी ने उसमें एक शब्द जो जोड़ा था, उस पर रावण की दृष्टि ठीक से नहीं गयी। वह शब्द था अचल। अभी तुम्हारा पद चल है, अचल नहीं है। अगर तुम भगवान् के चरणों का आश्रय ले लोगे तो वह अचल हो जायेगा। रावण को हनुमानजी की बात पर हँसी आ गयी कि मेरा पद तो अचल है ही, मुझे कौन हटाने वाला है ? बन्दर व्यर्थ की बात कर रहा है। अंगद ने जब मुक्का मारा और सिंहासन से रावण मुँह के बल गिरा तो अंगद का व्यंग्य था कि तुम्हारा पद तो इतना चल है कि बन्दर के मुक्के से तुम गिर पड़े, तो जब ईश्वर का मुक्का पड़ेगा तो क्या होगा ? यह कल्पना जरा कर लो ! इसी को तुम अचल समझने की भूल कर बैठे हो !

सृष्टि का कोई पद, कोई पदार्थ अचल नहीं है। ये सब अनित्य हैं। यही बताने के लिए अंगद ने मुक्के का प्रहार किया था, अपने बल और पौरुष का प्रदर्शन करने के लिए नहीं। रावण जब गिरा तो उसने भी वही किया जो संसारी लोग करते हैं। जब कोई गिरता है या सत्ता छूटने लगती है तो फिर से पकड़ने की चेष्टा करता है। यह मानवीय स्वभाव है, प्रकृति है। गिरते ही रावण को सबसे पहली चिन्ता अपने मुकुटों की हो गयी। तुरन्त उसने अपने हाथ बढ़ाये और फलतः छः मुकुट रावण के हाथ में आ गये तथा चार मुकुट अंगद के हाथ में। रावण प्रसन्न हो गया क्योंकि शास्त्रों में यह कहा गया है कि जब सर्वनाश हो रहा हो तो आधा बचा लेने वाला भी पण्डित है, तो चलो मैंने तो पाँव की जगह छः मुकुट बचा लिए। इससे मेरे पाण्डित्य में किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए। अंगद के हाथ में चार मुकुट ही आये।

बन्दरों ने पूछा कि आप उन मुकुटों को अपने सिर पर रख लेते या चारों को सुरक्षित रख लेते तथा अदल-बदल करके लगाया करते। अंगद ने कहा कि रावण के सिरों पर जब मुकुट टिक नहीं पाये तो मेरे सिर पर भी नहीं टिकेंगे। इनको तो भगवान् के चरणों में ही भेज देना चाहिए। सत्ता को सिर पर धारण करेंगे तो बोझ बनेगा और अगर चरण में रखेंगे तो मानो बोझ उतार दिया। अंगद ने कहा कि भला मैं ऐसी भूल क्यों करता ? मैंने तो बोझ उतार दिया और बोझ उतारने में भी मैंने देरी नहीं की। बड़ा सौभाग्य है इन मुकुटों का कि इतने दिन कुसंग में रहने के बाद भी अन्त में भगवान् के चरणों में जाने की व्यग्रता इनके मन में आ गयी।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai