हास्य-व्यंग्य >> यत्र तत्र सर्वत्र यत्र तत्र सर्वत्रशरद जोशी
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व्यंग्य-साहित्य के पाठकों के लिए एक नयी उपलब्धि...
Yatra Tatra Sarvatra - A hindi Book by - Sharad Joshi यत्र तत्र सर्वत्र - शरद जोशी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी के विशिष्ट व्यंग्यकार शरद जोशी की 101 नयी व्यंग्य-रचनाओं का संग्रह है यत्र तत्र सर्वत्र। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनकी अन्य दो रचनाएँ हैं- यथासम्भव और हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे। यत्र तत्र सर्वत्र की रचनाएँ एक बार फिर यह बताती हैं कि शरद जोशी अपने चिन्तन और लेखन के स्तर पर व्यापक मानवीय सरोकारों के साथ कितनी संवेदनशीलता और बौद्धिक सघनता से जुड़े हुए थे।
समकालीन जीवन और समाज की तमाम समस्याओं और विसंगतियों पर तीखी चोट करने वाली इन व्यंग्य-रचनाओं में एक सिद्धहस्त व्यंग्यकार की बहुत-कुछ तोड़ने और बनाने की भीतरी छटपटाहट भी है। इनमें प्रेम, सौन्दर्य, साहित्य, राजनीति, भाषा, पत्रकारिता, अध्यात्म, नैतिकता आदि तमाम विषय-सन्दर्भों पर शरद जी की बेलौस और बेधक प्रतिक्रियाएँ हैं।...
यह कहा जा सकता है कि यत्र तत्र सर्वत्र शरद जोशी के विशाल पाठक-वर्ग के साथ ही व्यंग्य-साहित्य के सभी पाठकों के लिए, निस्सन्देह, एक उपलब्धि है।
समकालीन जीवन और समाज की तमाम समस्याओं और विसंगतियों पर तीखी चोट करने वाली इन व्यंग्य-रचनाओं में एक सिद्धहस्त व्यंग्यकार की बहुत-कुछ तोड़ने और बनाने की भीतरी छटपटाहट भी है। इनमें प्रेम, सौन्दर्य, साहित्य, राजनीति, भाषा, पत्रकारिता, अध्यात्म, नैतिकता आदि तमाम विषय-सन्दर्भों पर शरद जी की बेलौस और बेधक प्रतिक्रियाएँ हैं।...
यह कहा जा सकता है कि यत्र तत्र सर्वत्र शरद जोशी के विशाल पाठक-वर्ग के साथ ही व्यंग्य-साहित्य के सभी पाठकों के लिए, निस्सन्देह, एक उपलब्धि है।
पचास साल बाद-शायद
(भूमिकावत्)
किताबों की उम्र केवल पचास साल बाक़ी है। उसके बाद किताबों का चलन बन्द हो जाएगा, क्योंकि लोगों के पास ज्ञानवर्धन के वैकल्पिक साधन होंगे। आजकल जो लेखक लिख रहे हैं वे यह सुन संतुष्ट होंगे कि चलो उनके जीते-जी ऐसा नहीं हो रहा। सारा दोष अगली पीढ़ी पर लगेगा, जिनके लिखते लोगों ने पढ़ना बन्द किया।
साहित्यकारों ने पिछले वर्षों में बड़े ऐण्टी आन्दोलन चलाये, अकहानी, अकविता, अनाटक। मगर आगे पाठक, अपुस्तक का आन्दोलन चलाएगा। किताबों से इनकार का आंदोलन, और वह साहित्यकारों को बड़ा भारी पड़ेगा। प्रेषणीयती की समस्या सुलझने के बाद जब प्रेषण होने लगेगा तब तक जिसे प्रेषित किया गया है वह जगह छोड़ चल देगा। पाठकों का कारवाँ गुज़र जाने के बाद परिचर्चाओं के ग़ुबार शेष रह जाते हैं, मगर पचास साल बाद लोगों को इसकी भी फ़ुरसत नहीं रहेगी। इस तरह कुछ वर्षों में मशीनें और किताबें उगलेंगी, मगर बाद में साहित्य स्वयं बेवफाई का शिकार होकर अजायबघर की वस्तु रह जाएगा। पाठक की उपेक्षा कर लिखना अलग बात है, मगर पाठक की अनुपस्थिति में लिखना ख़ाली हॉल में नाटक खेलने के समान भयावह है। यदि ऐसा हुआ तो हिन्दी में लेखक-कवियों का क्या होगा ? क्या वे लेक्चरशिप के अपने मूल पेशे से लौट जाएँगे ? अर्थात् जहाँ वे वास्तव में हैं, वहीं बने रहेंगे ?
मगर हिन्दी में हाल दूसरे हैं। यहाँ विपरीत भविष्यवाणी की जा सकती है कि पचास वर्ष बाद पुस्तकों का चयन आरम्भ हो जाएगा। फ़िलहाल जो स्थिति है उसे आप प्रागैतिहासिक क़रार दे सकते हैं। किताबें छपती नहीं, छपती हैं तो बिकती नहीं, बिकती हैं तो पढ़ी नहीं जातीं, पढ़ी जाती हैं तो पसन्द नहीं की जातीं, पसन्द की जाती हैं तो सस्ती और सतही होती हैं, जिन्हें न छापा जाए इसकी माँग करने वालों की बड़ी संख्या है, जो उसे पुस्तक ही नहीं मानते। यहाँ लेखक और प्रकाशक पुस्तक नहीं, पुस्तक का भ्रम जीते हैं। पाँच सौ संस्करण छपने पर पाँच-छह वर्ष में बिकना है, तब लगता है व्यर्थ ही छपा। कोरा कागज़ होता तो कहीं जल्दी बिक जाता। लेखक लिखने को अभिशप्त है, प्रकाशक छापने को, केवल पाठक की स्वतंत्र सत्ता है। वह ख़रीदने को अमिशप्त नहीं।
हिन्दी में 99.9 प्रतिशत साहित्यकार शाश्वत साहित्य लिखता है, अमरता की पक्की खातरी के साथ। हम-जैसे साहित्य के सौभाग्य से कम ही हैं, जो कल-परसों तक निश्चित समाप्त हो जाने वाली रचना में बरसों से व्यर्थ लगे हैं। इसके बावजूद हिन्दी में साहित्य-लेखन हाशिया गतिविधि है, फुरसत का धन्धा है। दीगर कुछ करने को न होने पर लोग साहित्य करते हैं और दीगर करने को काफ़ी काम है। हिन्दी में साहित्य-लेखन चन्द्र नौकरीपेशा लोगों को प्रायवेट शगल है। साहित्य के अतिरिक्त अन्य स्थितियाँ सुरक्षा की बेहतर गारण्टी देती हैं। इसलिए यथार्थ के तीव्र अहसास से भरी कविताएँ भी विश्वविद्यालय से आयी पूरी कॉपियाँ जाँच लेने के बाद ही लिखी जाती हैं। प्राध्यापक, अफ़सर, बाबू, सम्पादक सब पहले हैं, लेखक, कवि बाद में।
इस तरह हिन्दी के इस विकराल परिदृश्य में सभी हैं, यदि कोई नहीं है तो लेखक और पाठक। इन दो मूल छोर के गायब होने पर भी साहित्य है, जिसके सहारे बहुत से लोग लटके हैं। साहित्य-सम्मेलन का अध्यक्ष, मन्त्री, हज़ारों हिन्दी प्रचारक, चर्चाकार, पुस्तक-समीक्षक, विभाग, हिन्दी के नाम पर खड़े भवन, संस्थाएँ, पेढ़ियाँ, अकादमी, प्राध्यापक, शोधवाले, डिग्रीकांक्षी, इतिहासकार, छायावाद-प्रगतिवाद बेचकर खानेवाले, परीक्षाएँ चलानेवाले, एक चौपाई के बीस भाष्य करनेवाले। ये सब हिन्दी लेखक के बाप हैं, जो उसकी खोपड़ी पर सवार रहते हैं। ये सब मिलकर जिस कुहासे की सृष्टि करते हैं उसे हिन्दी साहित्य कहते हैं। हिन्दी में लेखक बनकर जीना इन सब शक्तियों के खूँखार जंगल में रहने की तरह जोख़िम भरा और प्राय: आत्म-हत्याकारी काम है। पता नहीं ये लोग तुम्हें कब पूरा लील जाएँ ! हिन्दी में पाठक की तलाश एक मरीचिका है और शुद्ध लेखक आदर्श जीवन की कल्पना है। हिन्दी साहित्य दोनों की अनुपस्थिति में फूल-फल रहा है, यह अपने-आप में चमत्कार है।
अत: मेरी भविष्यवाणी है कि पचास वर्ष बाद शायद हिन्दी में किताबों का चलन आरम्भ हो जाएगा। जब सभी देश किताबें फेंक देंगे, तब यह जगतगुरु राष्ट्र उन्हें पढ़ने लगेगा। यह स्थिति भारतीय पिछड़ेपन के अनुकूल होगी। आप मेरी भविष्यवाणी में प्रकट आशावादिता की दाद कीजिए, मगर मैं ‘शायद’ लगा रहा हूँ। हिन्दी में दृढ़ विश्वास को व्यक्त करने के लिए सबसे सशक्त शब्द ‘शायद’ ही है।
साहित्यकारों ने पिछले वर्षों में बड़े ऐण्टी आन्दोलन चलाये, अकहानी, अकविता, अनाटक। मगर आगे पाठक, अपुस्तक का आन्दोलन चलाएगा। किताबों से इनकार का आंदोलन, और वह साहित्यकारों को बड़ा भारी पड़ेगा। प्रेषणीयती की समस्या सुलझने के बाद जब प्रेषण होने लगेगा तब तक जिसे प्रेषित किया गया है वह जगह छोड़ चल देगा। पाठकों का कारवाँ गुज़र जाने के बाद परिचर्चाओं के ग़ुबार शेष रह जाते हैं, मगर पचास साल बाद लोगों को इसकी भी फ़ुरसत नहीं रहेगी। इस तरह कुछ वर्षों में मशीनें और किताबें उगलेंगी, मगर बाद में साहित्य स्वयं बेवफाई का शिकार होकर अजायबघर की वस्तु रह जाएगा। पाठक की उपेक्षा कर लिखना अलग बात है, मगर पाठक की अनुपस्थिति में लिखना ख़ाली हॉल में नाटक खेलने के समान भयावह है। यदि ऐसा हुआ तो हिन्दी में लेखक-कवियों का क्या होगा ? क्या वे लेक्चरशिप के अपने मूल पेशे से लौट जाएँगे ? अर्थात् जहाँ वे वास्तव में हैं, वहीं बने रहेंगे ?
मगर हिन्दी में हाल दूसरे हैं। यहाँ विपरीत भविष्यवाणी की जा सकती है कि पचास वर्ष बाद पुस्तकों का चयन आरम्भ हो जाएगा। फ़िलहाल जो स्थिति है उसे आप प्रागैतिहासिक क़रार दे सकते हैं। किताबें छपती नहीं, छपती हैं तो बिकती नहीं, बिकती हैं तो पढ़ी नहीं जातीं, पढ़ी जाती हैं तो पसन्द नहीं की जातीं, पसन्द की जाती हैं तो सस्ती और सतही होती हैं, जिन्हें न छापा जाए इसकी माँग करने वालों की बड़ी संख्या है, जो उसे पुस्तक ही नहीं मानते। यहाँ लेखक और प्रकाशक पुस्तक नहीं, पुस्तक का भ्रम जीते हैं। पाँच सौ संस्करण छपने पर पाँच-छह वर्ष में बिकना है, तब लगता है व्यर्थ ही छपा। कोरा कागज़ होता तो कहीं जल्दी बिक जाता। लेखक लिखने को अभिशप्त है, प्रकाशक छापने को, केवल पाठक की स्वतंत्र सत्ता है। वह ख़रीदने को अमिशप्त नहीं।
हिन्दी में 99.9 प्रतिशत साहित्यकार शाश्वत साहित्य लिखता है, अमरता की पक्की खातरी के साथ। हम-जैसे साहित्य के सौभाग्य से कम ही हैं, जो कल-परसों तक निश्चित समाप्त हो जाने वाली रचना में बरसों से व्यर्थ लगे हैं। इसके बावजूद हिन्दी में साहित्य-लेखन हाशिया गतिविधि है, फुरसत का धन्धा है। दीगर कुछ करने को न होने पर लोग साहित्य करते हैं और दीगर करने को काफ़ी काम है। हिन्दी में साहित्य-लेखन चन्द्र नौकरीपेशा लोगों को प्रायवेट शगल है। साहित्य के अतिरिक्त अन्य स्थितियाँ सुरक्षा की बेहतर गारण्टी देती हैं। इसलिए यथार्थ के तीव्र अहसास से भरी कविताएँ भी विश्वविद्यालय से आयी पूरी कॉपियाँ जाँच लेने के बाद ही लिखी जाती हैं। प्राध्यापक, अफ़सर, बाबू, सम्पादक सब पहले हैं, लेखक, कवि बाद में।
इस तरह हिन्दी के इस विकराल परिदृश्य में सभी हैं, यदि कोई नहीं है तो लेखक और पाठक। इन दो मूल छोर के गायब होने पर भी साहित्य है, जिसके सहारे बहुत से लोग लटके हैं। साहित्य-सम्मेलन का अध्यक्ष, मन्त्री, हज़ारों हिन्दी प्रचारक, चर्चाकार, पुस्तक-समीक्षक, विभाग, हिन्दी के नाम पर खड़े भवन, संस्थाएँ, पेढ़ियाँ, अकादमी, प्राध्यापक, शोधवाले, डिग्रीकांक्षी, इतिहासकार, छायावाद-प्रगतिवाद बेचकर खानेवाले, परीक्षाएँ चलानेवाले, एक चौपाई के बीस भाष्य करनेवाले। ये सब हिन्दी लेखक के बाप हैं, जो उसकी खोपड़ी पर सवार रहते हैं। ये सब मिलकर जिस कुहासे की सृष्टि करते हैं उसे हिन्दी साहित्य कहते हैं। हिन्दी में लेखक बनकर जीना इन सब शक्तियों के खूँखार जंगल में रहने की तरह जोख़िम भरा और प्राय: आत्म-हत्याकारी काम है। पता नहीं ये लोग तुम्हें कब पूरा लील जाएँ ! हिन्दी में पाठक की तलाश एक मरीचिका है और शुद्ध लेखक आदर्श जीवन की कल्पना है। हिन्दी साहित्य दोनों की अनुपस्थिति में फूल-फल रहा है, यह अपने-आप में चमत्कार है।
अत: मेरी भविष्यवाणी है कि पचास वर्ष बाद शायद हिन्दी में किताबों का चलन आरम्भ हो जाएगा। जब सभी देश किताबें फेंक देंगे, तब यह जगतगुरु राष्ट्र उन्हें पढ़ने लगेगा। यह स्थिति भारतीय पिछड़ेपन के अनुकूल होगी। आप मेरी भविष्यवाणी में प्रकट आशावादिता की दाद कीजिए, मगर मैं ‘शायद’ लगा रहा हूँ। हिन्दी में दृढ़ विश्वास को व्यक्त करने के लिए सबसे सशक्त शब्द ‘शायद’ ही है।
22 जून, 1975
चुनाव में खड़ा आदमी
आज वे दो वर्ष बाद मुस्कराये। बल्कि हँसे। वे हँसते नहीं हैं। उन्हें हँसते देखने वाले बहुत कम हैं इस देश में। उनकी पार्टी में कुछ हो सकते हैं जिन्होंने उसे हँसते देखा हो। पर चुनाव के इन दिनों में उनके दाँत होठों की क़ैद से बाहर आये। सूरज की किरण में चमके। उनकी मुस्कराहट मानों कोई कम्पनी बोनस बाँट रही हो, दिल और आत्मा पर असर कर रही है, आज उन्हें जनता ने मुस्कराते देखा। एक फोटोग्राफ़र ने उन्हें हँसते देखा और कैमरा सामने ला अपने कर्तव्य का शटर दबा दिया।
आज नेता महोदय ने पुराना कुरता निकालकर पहना। उस कुरते का पुराना होना अखरा नहीं। आज उन्होंने एक घिसी हुई, फटी हुई चप्पल पहनी। उन्होंने अपने फूले हुए पैर फटी हुई चप्पलों में फँसा दिये और अपने चुनाव क्षेत्र के लिए वे घर से निकले।
आज वे कार में नहीं बैठे। कार खड़ी रही, मगर वे नहीं बैठे। आज वे जनता के बीच पैदल चले। जनता को अपने आसपास से हटाने के लिए उन्होंने किसी पुलिसवाले की मदद नहीं ली। आज वे भीड़ से घिरे रहे। आज उन्होंने जनता की ओर ऐसे देखा जैसे हरी घास की ओर गधा देखता है। उन्होंने हाथ जोड़े और अपनी गरदन को झुकाया। यदि उनका पेट पतला होता तो आज वे अवश्य पूरा झुकते। आज वे प्रणाम कर रहे हैं। उनका नमस्कार सभी तक पहुँच रहा है। उनका नमस्कार एक काँटा है, जो वे बार-बार वोटरों के तालाब में डालते हैं और मछलियाँ फँसाते हैं। उनका प्रणाम एक चाबुक है, हण्टर है जिससे वे सबको घायल कर रहे हैं। उनका यह काँटा, यह चाबुक कितने दिनों बाद पड़ा है !
वे राज़मार्गों पर चलनेवाले आज गलियों में धँसे। जिस लगन से कोलम्बस अमरीका खोजने निकला थ
आज नेता महोदय ने पुराना कुरता निकालकर पहना। उस कुरते का पुराना होना अखरा नहीं। आज उन्होंने एक घिसी हुई, फटी हुई चप्पल पहनी। उन्होंने अपने फूले हुए पैर फटी हुई चप्पलों में फँसा दिये और अपने चुनाव क्षेत्र के लिए वे घर से निकले।
आज वे कार में नहीं बैठे। कार खड़ी रही, मगर वे नहीं बैठे। आज वे जनता के बीच पैदल चले। जनता को अपने आसपास से हटाने के लिए उन्होंने किसी पुलिसवाले की मदद नहीं ली। आज वे भीड़ से घिरे रहे। आज उन्होंने जनता की ओर ऐसे देखा जैसे हरी घास की ओर गधा देखता है। उन्होंने हाथ जोड़े और अपनी गरदन को झुकाया। यदि उनका पेट पतला होता तो आज वे अवश्य पूरा झुकते। आज वे प्रणाम कर रहे हैं। उनका नमस्कार सभी तक पहुँच रहा है। उनका नमस्कार एक काँटा है, जो वे बार-बार वोटरों के तालाब में डालते हैं और मछलियाँ फँसाते हैं। उनका प्रणाम एक चाबुक है, हण्टर है जिससे वे सबको घायल कर रहे हैं। उनका यह काँटा, यह चाबुक कितने दिनों बाद पड़ा है !
वे राज़मार्गों पर चलनेवाले आज गलियों में धँसे। जिस लगन से कोलम्बस अमरीका खोजने निकला थ
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