आचार्य श्रीराम किंकर जी >> श्रीराम-गीता श्रीराम-गीताश्रीरामकिंकर जी महाराज
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श्रीराम द्वारा लक्ष्मण को भक्ति ज्ञान का उपदेश....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘श्री राम: शरणं मम’’
प्राक्कथन
प्रभु के गुण अनन्त हैं। पर लीलामय राघव किसके समझ अपने आपको किस रूप में
प्रगट करते हैं, इसका रहस्य केवल वे ही जानते हैं। पर मेरे जीवन में
उन्होंने स्वयं को जिस रूप में व्यक्त किया है उसके लिये विनय-पत्रिका की
एक पंक्ति मैं गुनगुनाता रहता हूँ-
‘‘है तुलसिहि परतीति एक, प्रभु मुरति कृपामयी
है।’’
जीवन की दीर्घ अवधि पर जब मैं दृष्टि डालता हूँ तब एक ही शब्द अन्त:पटल
में उभरता है- ‘कृपा, कृपा, कृपा।’
‘मानस प्रवचन’ की इस श्रृंखला को भी मैं इसी कृपा की कड़ी के रूप में देखता हूँ विगत इक्कीस वर्षों से ‘‘बिरला अकादमी आफ आर्ट एण्ड कल्चर’’ द्वारा प्रवचन प्रकाशन का यह क्रम भी प्रभु की कृपा का ही परिणाम है। रामकथा और रामचरितमानस की अनन्तता का बोध मुझे प्रति पल होता ही रहता है। रामचरितमानस में सर्वदा कथा के नये-नये रूपों का दर्शन होता है।
संकल्प और उसकी पूर्ति के लिये प्रभु ने जिन अद्बुत दम्पति को चुना, वे हैं श्री बसन्त कुमार बिरला और डा. श्रीमती सरला बिरला।
श्रद्धा और भक्ति का जैसा विवेकपूर्ण सामंजस्य इन दम्पत्ति में है, वैसा विरले ही देखने को ही मिलता है। उनके प्रति मेरी हार्दिक मंगल कामना और आशीर्वाद।
इस कार्य की समग्रता और सम्पादन में प्रमुख भूमिका श्री नन्दकिशोर जी स्वर्णकार की है। जिन्होंने इसे अत्यन्त निष्ठा और परिश्रम से पूरा किया है। समय पर प्रकाशन के लिए मैं श्री टी.सी. चोरडिया को धन्यवाद देता हूँ।
प्रवचन के जो प्रत्यक्ष श्रोता हैं, या फिर जो केवल पाठक हैं दोनों में इस प्रकाशन के प्रति अभूतपूर्व जिज्ञासा और समादर को देख कर मुझे अत्यधिक सन्तोष होता है। मैं उन सभी के प्रति अपना हार्दिक आशीर्वाद और मंगल कामनाएँ इस पुस्तक के माध्यम से भेजता हूँ, जिनके हृदय में इस पुस्तक में अभीष्ट भगवान श्री रामभद्र की पावन यशगाथा की स्थापना हो चुकी है। आप लोगों की, जिनकी संख्या असंख्य है, भावनाएँ मुझे पत्रों द्वारा मिलने पर तथा टेलीफोन पर प्राप्त होती ही रहती हैं। प्रभु आप पर कृपा करें और आपके परिवार में आपकी ही भाँति रामभक्ति के संस्कार अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होते रहें।
इसके पीछे बेटी मन्दाकिनी, एवं मेरे प्रिय शिष्य मैथिलीशरण जी की सेवा भावना की सराहना किये बिना कृतज्ञता ज्ञापन का क्रम अधूरा रह जायगा। सभी को प्रभु की कृपा प्राप्त होती रहे, यही प्रभु से प्रार्थना है।
‘मानस प्रवचन’ की इस श्रृंखला को भी मैं इसी कृपा की कड़ी के रूप में देखता हूँ विगत इक्कीस वर्षों से ‘‘बिरला अकादमी आफ आर्ट एण्ड कल्चर’’ द्वारा प्रवचन प्रकाशन का यह क्रम भी प्रभु की कृपा का ही परिणाम है। रामकथा और रामचरितमानस की अनन्तता का बोध मुझे प्रति पल होता ही रहता है। रामचरितमानस में सर्वदा कथा के नये-नये रूपों का दर्शन होता है।
संकल्प और उसकी पूर्ति के लिये प्रभु ने जिन अद्बुत दम्पति को चुना, वे हैं श्री बसन्त कुमार बिरला और डा. श्रीमती सरला बिरला।
श्रद्धा और भक्ति का जैसा विवेकपूर्ण सामंजस्य इन दम्पत्ति में है, वैसा विरले ही देखने को ही मिलता है। उनके प्रति मेरी हार्दिक मंगल कामना और आशीर्वाद।
इस कार्य की समग्रता और सम्पादन में प्रमुख भूमिका श्री नन्दकिशोर जी स्वर्णकार की है। जिन्होंने इसे अत्यन्त निष्ठा और परिश्रम से पूरा किया है। समय पर प्रकाशन के लिए मैं श्री टी.सी. चोरडिया को धन्यवाद देता हूँ।
प्रवचन के जो प्रत्यक्ष श्रोता हैं, या फिर जो केवल पाठक हैं दोनों में इस प्रकाशन के प्रति अभूतपूर्व जिज्ञासा और समादर को देख कर मुझे अत्यधिक सन्तोष होता है। मैं उन सभी के प्रति अपना हार्दिक आशीर्वाद और मंगल कामनाएँ इस पुस्तक के माध्यम से भेजता हूँ, जिनके हृदय में इस पुस्तक में अभीष्ट भगवान श्री रामभद्र की पावन यशगाथा की स्थापना हो चुकी है। आप लोगों की, जिनकी संख्या असंख्य है, भावनाएँ मुझे पत्रों द्वारा मिलने पर तथा टेलीफोन पर प्राप्त होती ही रहती हैं। प्रभु आप पर कृपा करें और आपके परिवार में आपकी ही भाँति रामभक्ति के संस्कार अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होते रहें।
इसके पीछे बेटी मन्दाकिनी, एवं मेरे प्रिय शिष्य मैथिलीशरण जी की सेवा भावना की सराहना किये बिना कृतज्ञता ज्ञापन का क्रम अधूरा रह जायगा। सभी को प्रभु की कृपा प्राप्त होती रहे, यही प्रभु से प्रार्थना है।
-रामकिंकर
।। श्री राम: शरणं मम ।।
1
एक बार प्रभु सुख आसीना।
लछिमन बचन कहे छलहीना।।
सुर नर मुनि सचरांचर साईं।
मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं।।
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा।
सब तजि करौं चरन रज सेवा।।
कहहु ग्यान बिराग अरु माया।
कहहु सो भगति करहु जेहि दाया।।
ईस्वर जीव़ भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।। 3/14
लछिमन बचन कहे छलहीना।।
सुर नर मुनि सचरांचर साईं।
मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं।।
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा।
सब तजि करौं चरन रज सेवा।।
कहहु ग्यान बिराग अरु माया।
कहहु सो भगति करहु जेहि दाया।।
ईस्वर जीव़ भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।। 3/14
अनंत वात्यल्यमई जगज्जनी सीता एवं प्रभु श्री रामभद्र की महती अनुकंपा से
पुन: इस वर्ष यह सुअवसर मिला है कि भगवान लक्ष्मीनारायण की पावन सन्निधि
में प्रभु की कथा कही जा सके। इस आयोजन के पीछे सौजन्यमई श्रीमती सरलाजी
बिरला तथा स्नेहास्पद श्री बसंतकुमारजी बिरला की भक्ति और श्रद्धा-भावना
ही है।
मैं प्रारम्भ में ही निवेदन कर दूं कि मेरी आयु पचहत्तर वर्ष की नहीं है जैसा कि मेरे विषय में कहा गया है। मेरी आयु मात्र पचपन वर्ष की है। इस संदर्भ में मुझे कौशल्या अंबा का वह कथन स्मरण आता है जो उन्होंने भगवान राम के मिथिला से वापस लौटने पर ब्रह्माजी के प्रति अभिव्यक्त किया था।
प्रभु रामभद्र का विवाह संपन्न हो जाने पर सभी भाई अपनी-अपनी बधुओं सहित अयोध्या वापस लौटे। उस समय सभी माताओं ने उन्हें देखा और आनंदमग्न हो गईं। उस समय कौशल्या अंबा ने भगवान राम को संबोधित करते हुए एक बहुत भावभीनी बात कही। उन्होंने कहा कि ब्रह्मा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की आयु निश्चित होती है, पर मैं उसमें एक संशोधन चाहती हूँ कि ‘ब्रह्मा मेरी आयु के गणित में से वे दिन हटा दें जो तुम्हें बिना देखे हुए व्यतीत हुए हैं।’
मैं प्रारम्भ में ही निवेदन कर दूं कि मेरी आयु पचहत्तर वर्ष की नहीं है जैसा कि मेरे विषय में कहा गया है। मेरी आयु मात्र पचपन वर्ष की है। इस संदर्भ में मुझे कौशल्या अंबा का वह कथन स्मरण आता है जो उन्होंने भगवान राम के मिथिला से वापस लौटने पर ब्रह्माजी के प्रति अभिव्यक्त किया था।
प्रभु रामभद्र का विवाह संपन्न हो जाने पर सभी भाई अपनी-अपनी बधुओं सहित अयोध्या वापस लौटे। उस समय सभी माताओं ने उन्हें देखा और आनंदमग्न हो गईं। उस समय कौशल्या अंबा ने भगवान राम को संबोधित करते हुए एक बहुत भावभीनी बात कही। उन्होंने कहा कि ब्रह्मा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की आयु निश्चित होती है, पर मैं उसमें एक संशोधन चाहती हूँ कि ‘ब्रह्मा मेरी आयु के गणित में से वे दिन हटा दें जो तुम्हें बिना देखे हुए व्यतीत हुए हैं।’
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें।
ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।। 1/356/8
ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।। 1/356/8
मेरे माध्यम से भी पचपन वर्षों से रामकथा हो रही है, अत: यही मेरी भी
सच्ची आयु है, शेष बीस वर्षों की गणना न करना ही उचित है।
प्रस्तुत पंक्तियाँ उस समय की हैं जब प्रभु वनपथ की यात्रा पूरी कर पंचवटी में निवास करते हैं। प्रभु शान्तभाव से वटवृक्ष के नीचे विराजमान हैं। लक्ष्मण जी प्रभु के चरणों में प्रणाम करते हैं और उनसे कुछ प्रश्न करते हैं। उस समय लक्ष्मण जी का एक नया रूप सामने आता है। वे कितने वाग्मी, यशस्वी, वीर और भक्ति-परायण हैं, यह तो ‘मानस’ में अनेक स्थलों पर देखने को मिलता है, पर यहाँ वे एक जिज्ञासु के रूप में हमारे सामने आते हैं।
वे प्रभु से निवेदन करते हुए कहते हैं कि ‘आप तो देवता, मनुष्य तथा समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं पर मैं तो आपको अपने प्रभु के रूप में ही देखता हूँ, इसलिए आपके सामने कुछ प्रश्न रखना चाहता हूँ। आप मुझे ऐसा उपदेश देने की कृपा करें कि जिससे मैं सब कुछ छोड़कर आपके चरणों की सेवा करूं, आपके चरणों में मेरी रति हो तथा शोक, मोह एवं भ्रम दूर हो जायँ।’
ये बड़े अद्भुत वाक्य हैं। पढ़कर आश्चर्य होता है कि जिन लक्ष्मण ने भगवान राम के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया है वे ऐसी बात प्रभु से कहते हैं ! साथ ही जितने दार्शनिक प्रश्न हो सकते थे उन सबको वे प्रभु के समक्ष रख देते हैं। वे प्रभु से पूछते हैं कि आप मुझे समझाकर यह बताएँ कि ज्ञान, वैराग्य और माया का स्वरूप क्या है ? आपकी भक्ति क्या है ? तथा ईश्वर तथा जीव में भेद क्या है ?
प्रस्तुत पंक्तियाँ उस समय की हैं जब प्रभु वनपथ की यात्रा पूरी कर पंचवटी में निवास करते हैं। प्रभु शान्तभाव से वटवृक्ष के नीचे विराजमान हैं। लक्ष्मण जी प्रभु के चरणों में प्रणाम करते हैं और उनसे कुछ प्रश्न करते हैं। उस समय लक्ष्मण जी का एक नया रूप सामने आता है। वे कितने वाग्मी, यशस्वी, वीर और भक्ति-परायण हैं, यह तो ‘मानस’ में अनेक स्थलों पर देखने को मिलता है, पर यहाँ वे एक जिज्ञासु के रूप में हमारे सामने आते हैं।
वे प्रभु से निवेदन करते हुए कहते हैं कि ‘आप तो देवता, मनुष्य तथा समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं पर मैं तो आपको अपने प्रभु के रूप में ही देखता हूँ, इसलिए आपके सामने कुछ प्रश्न रखना चाहता हूँ। आप मुझे ऐसा उपदेश देने की कृपा करें कि जिससे मैं सब कुछ छोड़कर आपके चरणों की सेवा करूं, आपके चरणों में मेरी रति हो तथा शोक, मोह एवं भ्रम दूर हो जायँ।’
ये बड़े अद्भुत वाक्य हैं। पढ़कर आश्चर्य होता है कि जिन लक्ष्मण ने भगवान राम के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया है वे ऐसी बात प्रभु से कहते हैं ! साथ ही जितने दार्शनिक प्रश्न हो सकते थे उन सबको वे प्रभु के समक्ष रख देते हैं। वे प्रभु से पूछते हैं कि आप मुझे समझाकर यह बताएँ कि ज्ञान, वैराग्य और माया का स्वरूप क्या है ? आपकी भक्ति क्या है ? तथा ईश्वर तथा जीव में भेद क्या है ?
कहहु ग्यान बिराग अरु माया।
कहहु सो भगति करहु जेहि दाया।।
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
कहहु सो भगति करहु जेहि दाया।।
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
फिर वे अंत में इन प्रश्नों के पूछे जाने के पीछे अपना उद्देश्य बताते हुए
कहते हैं कि-
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।।
प्रभु ! जिससे मेरे जीवन में जो शोक, मोह और भ्रम विद्यमान हैं वे दूर हों
तथा आपके चरणों में अनुराग हो जाय !
लक्ष्मण जी के द्वारा पूछे गए ये प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। परमार्थ तत्व के लिए जिज्ञासापूर्वक किए गए इन प्रश्नों तथा भगवान राम के द्वारा दिए गए उनके उत्तर को ‘मानस’ में रामगीता के नाम से जाना जाता है। इसमें लक्ष्मण जी अपने प्रश्नों के माध्यम से मनुष्य के साथ जुड़ी हुई शाश्वत समस्याओं का समाधान प्रभु से पाना चाहते हैं। अर्जुन भी भगवान् कृष्ण के माध्यम से इसी प्रकार की समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं और वह उपदेश ‘गीता’ के रूप में प्रसिद्ध है। पर जिस महाभारत ग्रन्थ में यह गीता-उपदेश दिया गया, उसी महाभारत ग्रन्थ में एक और गीता का वर्णन आता है। उसके भी वक्ता भगवान कृष्ण ही है, पर वहाँ उसके श्रोता अर्जुन नहीं युधिष्ठिर हैं। उसे हम ‘काम-गीता’ कह सकते हैं।
काम-गीता प्रसंग को पढ़कर व्यक्ति आश्चर्यचकित हो सकता है। क्योंकि काम को लेकर ‘फ्रायड’ आदि आधुनिक व्याख्याताओं ने जो कुछ कहा है उससे अधिक गहराई से भगवान कृष्ण ने उसमें काम का निरुपण और उसका समाधान किया है।
लक्ष्मण जी के द्वारा पूछे गए ये प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। परमार्थ तत्व के लिए जिज्ञासापूर्वक किए गए इन प्रश्नों तथा भगवान राम के द्वारा दिए गए उनके उत्तर को ‘मानस’ में रामगीता के नाम से जाना जाता है। इसमें लक्ष्मण जी अपने प्रश्नों के माध्यम से मनुष्य के साथ जुड़ी हुई शाश्वत समस्याओं का समाधान प्रभु से पाना चाहते हैं। अर्जुन भी भगवान् कृष्ण के माध्यम से इसी प्रकार की समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं और वह उपदेश ‘गीता’ के रूप में प्रसिद्ध है। पर जिस महाभारत ग्रन्थ में यह गीता-उपदेश दिया गया, उसी महाभारत ग्रन्थ में एक और गीता का वर्णन आता है। उसके भी वक्ता भगवान कृष्ण ही है, पर वहाँ उसके श्रोता अर्जुन नहीं युधिष्ठिर हैं। उसे हम ‘काम-गीता’ कह सकते हैं।
काम-गीता प्रसंग को पढ़कर व्यक्ति आश्चर्यचकित हो सकता है। क्योंकि काम को लेकर ‘फ्रायड’ आदि आधुनिक व्याख्याताओं ने जो कुछ कहा है उससे अधिक गहराई से भगवान कृष्ण ने उसमें काम का निरुपण और उसका समाधान किया है।
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