आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस चिंतन भाग 3 मानस चिंतन भाग 3श्रीरामकिंकर जी महाराज
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मानस के कुछ प्रमुख प्रसंग....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।। श्री राम: शरणं मम ।।
प्रस्तावना
भगवान राम के अवतार की पृष्ठभूमि समझने के लिए रावण के व्यक्तित्व और उसकी
विचारधारा को समझ लेना आवश्यक है। ‘मानस’ में रावण का
जो
चित्र प्रस्तुत किया गया है वह अनेक समालोचकों को संतुष्ट नहीं कर पाता,
विशेष रूप से उन अध्येताओं को, जो वाल्मीकि ‘रामायण’
में
वर्णित रावण से इसकी तुलना करते हैं। कुछ आलोचकों ने गोस्वामीजी के इस
कार्य को राम के प्रति उनके पक्षपात के रूप में देखा है। एक इतिहास लेखक
से जिस निष्पक्षता की आशा की जाती है, उनको तुलसीदास में इसका अभाव दिखाई
देता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि वाल्मीकि ‘रामायण’ और अन्य ग्रंथों में रावण के व्यक्तित्व का जो विराट् रूप देखने को मिलता है उसी तुलना में ‘मानस’ की रावण हीन और दुर्गुणों का पुंज ही प्रतीत होता है। किन्तु इसे समझ पाना तब अत्यन्त सरल हो जाता है जब हम इस तथ्य पर विचार करते हुए गोस्वामीजी के उद्देश्यवादी दृष्टिकोण को हृदयंगम कर लेते हैं। उनका काव्य, मात्र कला के लिए न होकर एक विशेष आदर्श के लिए समर्पित है। उनके लिए मुख्य प्रश्न केवल इतना ही नहीं है कि वास्तविकता क्या है ? न तो उनकी यह महत्त्वाकांक्षा ही थी कि वर्तमान या भविष्य में उनको यथार्थवाद या निष्पक्ष कवि-कलाकार के रूप में सम्मान प्राप्त हो। वे एक भक्त थे और भक्त निष्पक्ष नहीं होता यह उनकी खुली घोषणा है-
इसमें कोई संदेह नहीं कि वाल्मीकि ‘रामायण’ और अन्य ग्रंथों में रावण के व्यक्तित्व का जो विराट् रूप देखने को मिलता है उसी तुलना में ‘मानस’ की रावण हीन और दुर्गुणों का पुंज ही प्रतीत होता है। किन्तु इसे समझ पाना तब अत्यन्त सरल हो जाता है जब हम इस तथ्य पर विचार करते हुए गोस्वामीजी के उद्देश्यवादी दृष्टिकोण को हृदयंगम कर लेते हैं। उनका काव्य, मात्र कला के लिए न होकर एक विशेष आदर्श के लिए समर्पित है। उनके लिए मुख्य प्रश्न केवल इतना ही नहीं है कि वास्तविकता क्या है ? न तो उनकी यह महत्त्वाकांक्षा ही थी कि वर्तमान या भविष्य में उनको यथार्थवाद या निष्पक्ष कवि-कलाकार के रूप में सम्मान प्राप्त हो। वे एक भक्त थे और भक्त निष्पक्ष नहीं होता यह उनकी खुली घोषणा है-
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई।
दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।
दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।
किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि उन्होंने यथार्थ का परित्याग कर असत्य का
आश्रय बना लिया हो। फिर भी उनका सत्य संबंधी दृष्टिकोण प्रचलित धारणाओं से
भिन्न है। एक योग्य चिकित्सक रोगी से व्यवहार करते हुए केवल रोग संबंधी
तथ्यों का विस्तृत विवरण उपस्थित करना आवश्यक नहीं समझता। वह रोगी के
सामने केवल उतना ही कुछ कहता है जितना उसकी स्वस्थ्ता के लिए आवश्यक है,
क्योंकि वह जानता है कि रोग का विश्लेषण और तथ्य स्वयं उद्देश्य न होकर
अरोग्य के साधन मात्र हैं। तुलसीदास अपने महान ग्रंथ का प्रणयन करते हुए
इसी दृष्टिकोण को सामने रखते हैं।
वर्तमान युगसन्दर्भ को दृष्टिगत रखकर विचार करने पर गोस्वामी का कार्य सर्वथा उपयुक्त जान पड़ता है। जिन कवियों अथवा लेखकों ने अपने लेखन का मुख्य उद्देश्य यथार्थ का नग्न रूप प्रस्तुत करना मान लिया, उनको यथार्थवादी कलाकार के रूप में व्यक्तिगत प्रतिष्ठा भले ही प्राप्त हुई हो, पर समाज पर उनका घातक प्रभाव पड़ा। नग्नता का अपना आकर्षण तो होता ही है, पर उस नग्न चित्र से साधारण दर्शक पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस तथ्य की उपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए। भले ही पाश्चात्य देशों में कला अथवा काव्य के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण को अत्यधिक महत्व दिया गया हो, परन्तु भारतीय दृष्टिकोण इस विषय में सर्वथा भिन्न है।
बुराई का ऐसा चित्रण जो लोगों के अंत:करण पर ऐसी छाप छोड़े कि एक बार बुरा बनने को मन मचल उठे, समाज के लिए किसी भी प्रकार कल्याणकारी नहीं हो सकता। बुराई और पाप को एक स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में लोगों के सामने नहीं प्रस्तुत किया जाना चाहिए, क्योंकि उसका चटपटापन ऐसे व्यक्तियों को, जिनके अंत:करण में पहले से ही बुराई के प्रति आकर्षण विद्यमान है, कुपथ्य की ओर प्रेरित करता है। इसी मनोवृत्ति की झाँकी हमें उन जनश्रुतियें से मिल जाती है जो डाकू और लुटेरों के विषय में प्रचलित हो जाती हैं। प्रत्येक बुरे व्यक्ति के साथ कुछ ऐसी घटनाएँ जोड़ दी जाती हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि वह डाकू या लुटेरा होता हुआ भी कितना सच्चरित्र, उदार या पुजारी है। ऐसी धारणाएँ इस प्रकार के लोगों के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती हैं। इसके द्वारा वे जनसहानुभूति प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं और जब खलनायक को नायक जैसी या उससे भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए तब लोगों के मन में खलनायक बनने की वृत्ति का उदय होना स्वाभाविक है।
इतिहास में ऐसे पात्रों का अभाव नहीं है जो खलनायक होते हुए भी नायक से कम लोकप्रियता नहीं प्राप्त करते। ऐसे ही पात्रों में एक महारथी कर्ण के गौरव की गाथा जिस रूप में प्रस्तुत की गई है वह अधिकांश पाठकों के मन में अद्भुत श्रद्धा का सृजन करती है। उसका शौर्य, धैर्य और दानशीलता सभी कुछ अद्वितीय जान पड़ती है और ऐसा लगने लगता है कि जैसे ‘महाभारत’ के उदात्त नायक अर्जुन के अपेक्षा कर्ण का चरित्र श्रेष्ठ है। फिर भी भगवान् श्री कृष्ण कर्ण के नहीं अर्जुन के साथ हैं और वे अर्जुन को कर्ण के वध के लिए प्रेरित करते हैं। उनका हृदय कर्ण की उन विशेषताओं से द्रवित नहीं होता जिन्हें पढ़ कर अधिकांश व्यक्ति भावाभिभूति हो जाते हैं। युद्ध क्षेत्र में वे ऐसे समय कर्ण पर प्रहार का आदेश देते हैं, जब उसके रथ का पहिया कीचड़ में फँस चुका था और वह धनुषबाण रखकर रथचक्र को निकालने का प्रयास कर रहा था। यद्यपि अर्जुन हिचकिचाता है, पर श्री कृष्ण निर्मम भाव से प्रहार का आदेश देते हैं।
कृष्ण में किसी प्रकार का अंतर्द्वंद्व नहीं है। वे जानते हैं कि कर्ण कितना भी आकर्षक क्यों न हों, वह अपने समस्त सद्गुणों के साथ दुर्योधन के प्रति समर्पित है। उसकी विजय स्वयं उसकी विजय न होकर करके दुर्योधन की विजय है। रोग के कीटाणु कितने ही आकर्षक क्यों न हों, मृत्यु के संदेशवाहक होते हैं। उन पर पूरी निर्ममता से प्रहार किया जाना चाहिए। बुराई के प्रति यही वह दृष्टिकोण है जिसे गोस्वामीजी ने अपने महाकाव्य में स्वीकार किया है। वे संक्षेप में रावण के व्यक्तित्व के सभी अंगों पर प्रकाश डालते हैं, फिर भी वे रावण को जनमानस के किसी कोने में प्रतिष्ठित नहीं देखना चाहते।
मानस चिंतन तृतीय खण्ड का यह चतुर्थ संस्करण है। इसका प्रथम संस्करण सन् 1973 में प्रकाशित हुआ था। तब से अब तक पाठकों की एक पीढ़ी बदल चुकी है। पर सुखद बात यह है कि पाठकों की रूचि में निरन्तरता बनी हुई है। व्यक्तिपरक होने के स्थान पर वस्तुपरक आंकलन का यह श्रेष्ठ दृष्टान्त माना जा सकता है।
‘‘रामायण ट्रस्ट’ अयोध्या इस कार्य में तत्पर है अत: सभी ट्रस्टी और सेवकगण आशीर्वाद के पात्र हैं।
मुझे पूरा विश्वास है प्रस्तुत ग्रन्थ का चतुर्थ संस्करण भी पाठकों को प्रेरणा देगा।
वर्तमान युगसन्दर्भ को दृष्टिगत रखकर विचार करने पर गोस्वामी का कार्य सर्वथा उपयुक्त जान पड़ता है। जिन कवियों अथवा लेखकों ने अपने लेखन का मुख्य उद्देश्य यथार्थ का नग्न रूप प्रस्तुत करना मान लिया, उनको यथार्थवादी कलाकार के रूप में व्यक्तिगत प्रतिष्ठा भले ही प्राप्त हुई हो, पर समाज पर उनका घातक प्रभाव पड़ा। नग्नता का अपना आकर्षण तो होता ही है, पर उस नग्न चित्र से साधारण दर्शक पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस तथ्य की उपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए। भले ही पाश्चात्य देशों में कला अथवा काव्य के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण को अत्यधिक महत्व दिया गया हो, परन्तु भारतीय दृष्टिकोण इस विषय में सर्वथा भिन्न है।
बुराई का ऐसा चित्रण जो लोगों के अंत:करण पर ऐसी छाप छोड़े कि एक बार बुरा बनने को मन मचल उठे, समाज के लिए किसी भी प्रकार कल्याणकारी नहीं हो सकता। बुराई और पाप को एक स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में लोगों के सामने नहीं प्रस्तुत किया जाना चाहिए, क्योंकि उसका चटपटापन ऐसे व्यक्तियों को, जिनके अंत:करण में पहले से ही बुराई के प्रति आकर्षण विद्यमान है, कुपथ्य की ओर प्रेरित करता है। इसी मनोवृत्ति की झाँकी हमें उन जनश्रुतियें से मिल जाती है जो डाकू और लुटेरों के विषय में प्रचलित हो जाती हैं। प्रत्येक बुरे व्यक्ति के साथ कुछ ऐसी घटनाएँ जोड़ दी जाती हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि वह डाकू या लुटेरा होता हुआ भी कितना सच्चरित्र, उदार या पुजारी है। ऐसी धारणाएँ इस प्रकार के लोगों के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती हैं। इसके द्वारा वे जनसहानुभूति प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं और जब खलनायक को नायक जैसी या उससे भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए तब लोगों के मन में खलनायक बनने की वृत्ति का उदय होना स्वाभाविक है।
इतिहास में ऐसे पात्रों का अभाव नहीं है जो खलनायक होते हुए भी नायक से कम लोकप्रियता नहीं प्राप्त करते। ऐसे ही पात्रों में एक महारथी कर्ण के गौरव की गाथा जिस रूप में प्रस्तुत की गई है वह अधिकांश पाठकों के मन में अद्भुत श्रद्धा का सृजन करती है। उसका शौर्य, धैर्य और दानशीलता सभी कुछ अद्वितीय जान पड़ती है और ऐसा लगने लगता है कि जैसे ‘महाभारत’ के उदात्त नायक अर्जुन के अपेक्षा कर्ण का चरित्र श्रेष्ठ है। फिर भी भगवान् श्री कृष्ण कर्ण के नहीं अर्जुन के साथ हैं और वे अर्जुन को कर्ण के वध के लिए प्रेरित करते हैं। उनका हृदय कर्ण की उन विशेषताओं से द्रवित नहीं होता जिन्हें पढ़ कर अधिकांश व्यक्ति भावाभिभूति हो जाते हैं। युद्ध क्षेत्र में वे ऐसे समय कर्ण पर प्रहार का आदेश देते हैं, जब उसके रथ का पहिया कीचड़ में फँस चुका था और वह धनुषबाण रखकर रथचक्र को निकालने का प्रयास कर रहा था। यद्यपि अर्जुन हिचकिचाता है, पर श्री कृष्ण निर्मम भाव से प्रहार का आदेश देते हैं।
कृष्ण में किसी प्रकार का अंतर्द्वंद्व नहीं है। वे जानते हैं कि कर्ण कितना भी आकर्षक क्यों न हों, वह अपने समस्त सद्गुणों के साथ दुर्योधन के प्रति समर्पित है। उसकी विजय स्वयं उसकी विजय न होकर करके दुर्योधन की विजय है। रोग के कीटाणु कितने ही आकर्षक क्यों न हों, मृत्यु के संदेशवाहक होते हैं। उन पर पूरी निर्ममता से प्रहार किया जाना चाहिए। बुराई के प्रति यही वह दृष्टिकोण है जिसे गोस्वामीजी ने अपने महाकाव्य में स्वीकार किया है। वे संक्षेप में रावण के व्यक्तित्व के सभी अंगों पर प्रकाश डालते हैं, फिर भी वे रावण को जनमानस के किसी कोने में प्रतिष्ठित नहीं देखना चाहते।
मानस चिंतन तृतीय खण्ड का यह चतुर्थ संस्करण है। इसका प्रथम संस्करण सन् 1973 में प्रकाशित हुआ था। तब से अब तक पाठकों की एक पीढ़ी बदल चुकी है। पर सुखद बात यह है कि पाठकों की रूचि में निरन्तरता बनी हुई है। व्यक्तिपरक होने के स्थान पर वस्तुपरक आंकलन का यह श्रेष्ठ दृष्टान्त माना जा सकता है।
‘‘रामायण ट्रस्ट’ अयोध्या इस कार्य में तत्पर है अत: सभी ट्रस्टी और सेवकगण आशीर्वाद के पात्र हैं।
मुझे पूरा विश्वास है प्रस्तुत ग्रन्थ का चतुर्थ संस्करण भी पाठकों को प्रेरणा देगा।
रामकिंकर
श्री गणेशाय नम:
‘‘श्री राम: शरणं मम’’
‘‘श्री राम: शरणं मम’’
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा
जैसे ‘शिव तांडव’ की मंगलमयी बेला में, डमरु के नाद
से
व्याकरण के चौदह सूत्रों का सृजन हुआ, जैसे विष्णु पार्षद श्री गरूड़ जी
महाराज के पंखों से सामवेद की ऋचाएं प्रस्फुटित होती हैं, वैसे ही यह कहना
अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रामभक्ति में तदाकार, उनके सगुण सरोवर में
चिरन्तन रमें हुए ‘‘परम पूज्य श्री रामकिंकर जी
महाराज’’ के श्रीमुख से भगवत्कथा के दिव्य शब्दमय
विग्रह का
अवतरण होता है। जैसे वेदवाणी सनातन है, वैसे ही परम पूज्य रामकिंकर जी
महाराज के द्वारा व्याख्यायिति मानस का प्रत्येक सूत्र,
‘‘मंत्र’ रूप ग्रहण कर, तत्व, दर्शन,
सिद्धान्त,
शास्त्रों की कोशिकाओं को अनन्तकाल तक अनुप्राणित करता रहेगा, यह भी सनातन
सत्य है।
श्री रामचरितमानस तथा परम पूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं। उनके ही शब्दों में-
श्री रामचरितमानस तथा परम पूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं। उनके ही शब्दों में-
‘‘मानस तो मेरा श्वास है।’’
जैसे वायु का स्पन्दन ही मनुष्य को जीवनी शक्ति प्रदान करता है, चाहे कोई
भी अवस्था हो, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति या तुरीय, परम पूज्य महाराज श्री
के रोम-रोम को रामचरित मानस अनुप्राणित करता है। वैसे तो मानस का गायन
हमारे देश की प्राचीन परम्परा रही है, पर इस वाचिक परम्परा में परम पूज्य
महाराज श्री का जो विशिष्ट योगदान है, वह है उनकी मौलिक आध्यात्मिक
दृष्टि, मानों वे इस आध्यात्मिक सम्पदा के
‘‘कुबेर’’ हैं। मानस की मधुर
चौपाई और सरल प्रतीत
होनेवाले छन्दों के अन्तराल में छिपे हुए गूढ़ रहस्य, निहित आध्यात्मिक
सूत्र एवं गंभीर सिद्धान्तों की खोजपूर्ण व्याख्या इस युग में मात्र आप ही
की देन है। उन मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनियों की तरह, जो अपनी निर्विकल्प समाधि
में अवस्थित होकर उस अपौरुषेय शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार करते थे, जब परम
पूज्य महाराज श्री व्यास आसन पर विराजमान होकर, उस विराट से एकाकार हो
जाते हैं तो उनकी ‘‘ऋतम्भरा
प्रज्ञा’’ में वह
निर्गुण निराकार अपरिच्छिन्न ब्रह्म, अन्यन्त सुन्दर साकार रूप ग्रहण कर,
प्रगट हो जाता है, जिसकी शब्दमयी झाँकी, मात्र उन्हीं को नहीं बल्कि
सम्पूर्ण श्रोता समाज को एक साथ कृतकृत्य बना देती है। परम पूज्य महाराज
जी की जिव्हा पर विराजमान सरस्वती मानों उस दिव्य
‘‘कथावतरण’’ की बेला में गद्गद्
होकर, नृत्य करने
लगती है, अपनी नित्य नई नृत्य कला से उपस्थित जिज्ञासुओं को अपने
प्रेम-पाश में बाँध लेती है।
उनकी अनुभूति-प्रसूत वाणी से जब शास्त्र और सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है, तब बड़े-से-बड़े सन्त, साहित्यकार एवं विद्वान चकित हो जाते है। उनके चिन्तन में तत्व की गंभीरता और भाव की सरसता का अद्भुत सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। क्लिष्टतम विषय का प्रतिपादन वे इतनी सरलता एवं रोचकतापूर्ण शैली में करते हैं, मानों ईश्वर की उन्हें यह विशिष्ट देन है। जहाँ अन्य कथावचक तत्व का स्पर्श करके कथा का विस्तार करते हैं, वहीं परम पूज्य महाराज श्री, कथा का माध्यम बनाकर तत्व का विस्तार करते हैं। निर्विवाद रूप से सबको चमत्कृत करनेवाली उनकी इस अनूठी कथन शैली के कारण ही एक महानतम् विरक्त सन्त ने आपके लिए यह भावोद्गार प्रकट किए- ‘‘पण्डितजी तो रामायण बन गए’’।
निश्चित रूप से इससे अधिक उपयुक्त एवं प्रामाणिक व्याख्या परम पूज्य महाराज श्री की और कोई भी नहीं हो सकती।
उनकी अनुभूति-प्रसूत वाणी से जब शास्त्र और सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है, तब बड़े-से-बड़े सन्त, साहित्यकार एवं विद्वान चकित हो जाते है। उनके चिन्तन में तत्व की गंभीरता और भाव की सरसता का अद्भुत सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। क्लिष्टतम विषय का प्रतिपादन वे इतनी सरलता एवं रोचकतापूर्ण शैली में करते हैं, मानों ईश्वर की उन्हें यह विशिष्ट देन है। जहाँ अन्य कथावचक तत्व का स्पर्श करके कथा का विस्तार करते हैं, वहीं परम पूज्य महाराज श्री, कथा का माध्यम बनाकर तत्व का विस्तार करते हैं। निर्विवाद रूप से सबको चमत्कृत करनेवाली उनकी इस अनूठी कथन शैली के कारण ही एक महानतम् विरक्त सन्त ने आपके लिए यह भावोद्गार प्रकट किए- ‘‘पण्डितजी तो रामायण बन गए’’।
निश्चित रूप से इससे अधिक उपयुक्त एवं प्रामाणिक व्याख्या परम पूज्य महाराज श्री की और कोई भी नहीं हो सकती।
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