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उपन्यास >> न आने वाला कल

न आने वाला कल

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4420
आईएसबीएन :9788170283096

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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...

न आनेवाला कल

 

त्यागपत्र देने का निश्चय मैंने अचानक ही किया था। उसी तरह जैसे एक दिन अचानक शादी करने का निश्चय कर लिया था। मगर स्कूल में किसी को इस पर विश्वास नहीं था।
मुझे कई दिनों से अपने अन्दर बहुत गर्मी महसूस हो रही थी। छः हज़ार नौ सौ फुट की ऊँचाई, शुरू नवम्बर के दिन, फिर भी नसों में एक आग-सी तपती रहती थी। सूखे होंठों की पपड़ियाँ रोज़ छील-छील कर उतारता था, पर सुबह सोकर उठने तक वैसी ही पपड़ियाँ फिर जम जाती थीं। कई बार सोचा था कि जाकर कर्नल बत्रा को दिखा लूँ, लेकिन इस ख्याल से टाल दिया था कि वह फिर से बात को हँसी में न उड़ा दे। उस बार सात महीने पहले, जब रात को सोते में मुझे अपनी साँस घुटती महसूस होने लगी थी, तो वह दिल और फेफड़ों की पूरी जाँच करने के बाद मुस्करा दिया था। बोला था, ‘‘तुम्हें बीमारी असल में कुछ नहीं है। अगर है तो सिर्फ इतनी ही कि तुम अपने को बीमार माने रहना चाहते हो। इसका इलाज भी सिर्फ एक ही है। खूब घूमा करो, डटकर खाया करो और सोने से पहले चुटकलों की कोई किताब पढ़ा करो।’’

मुझे इस पर बहुत गुस्सा आया था। उस गुस्से में ही मैंने रात को देर-देर तक जागकर अपने को ठीक कर लिया था। स्कूल से त्यागपत्र देने की बात मैंने उस बार भी सोची थी। पर तब मैं अपने से निश्चित कर सकने की स्थिति में नहीं था। जब तक शोभा घर में थी, मैं अपने निर्णय से सब कुछ करने की बात करता हुआ भी वास्तव में हर निर्णय उस पर छोड़े रहता था। यह एक तरह का खेल था जो मैं अपने साथ खेलता था, अपना स्वाभिमान बनाए रखने के लिए। वह क्या चाहेगी, पहले से ही सोचकर उसे अपनी इच्छा के रूप में चला देने की कोशिश करता था। शोभा इस खेल को समझती न हो, ऐसा नहीं था। वह बल्कि यह कहकर इसका मजा भी लेती थी, ‘‘मुझे पता था तुम यही चाहोगे। छः महीने साथ रहकर इतना तो मैं तुम्हें जान ही गई हूँ।’’ यूँ हो सकता है वह सचमुच ऐसा ही सोचती हो। मैं उसे उत्तर न देकर बात बदल देता था। मन में बहुत कुढ़न पैदा होती थी, तो उसे अपने स्वाभिमान की कीमत समझकर सह जाता था।

पहले कभी मुझे वैसी गर्मी महसूस नहीं हुआ करती थी। यह नई बीमारी कुछ महीनों से ही शुरू हुई थी। शायद खून में कुछ नुक्स पड़ गया था। खून और खाल का रिश्ता ठीक नहीं रहा था। वरना यह क्यों होता कि हाथ पैर तो ठण्ड से ठिठुरते रहें और गला हर वक्त सूखा और चिपचिपा बना रहे ? पहली नवम्बर को सीजन की पहली बर्फ गिरी थी। लेकिन उस रात भी मुझे दो-तीन बार उठकर पानी पीना पड़ा। प्यास की वजह से नहीं, गले को ठण्डक पहुँचाने के लिए। फिर भी ठण्डक पहुँची नहीं थी। अन्दर जैसे रेगिस्तान भर गया था जो सारा पानी सोखकर फिर वैसा का वैसा हो जाता था।

त्यागपत्र मैंने इतवार की रात को सोने से पहले लिखा था। दिन भर हम लोग त्रिशूली में थे। कई दिन पहले से तय था कि इतवार को सुबह से शाम तक वहाँ रहेंगे। पर शाम तक से मेरा मतलब था शाम के चार बजे तक। यह सभी को पता था कि हमें इतवार को भी पूरे दिन की छुट्टी नहीं होती। पाँच बजे चेपल में पहुँचना ज़रूरी होता है। फिर भी उन लोगों का हठ था कि अँधेरा होने तक वहीं रेहेंगे। उससे पहले मुझे अकेले को भी नहीं लौटने देंगे। ठर्रा पी-पीकर यह हालत हो गई थी सबकी कि कोई भी उनमें से बात सुनने की की स्थिति में नहीं था। मैंने काफी कोशिश की उन्हें समझाने की, पर वे समझने में नहीं आए। बस हँसते रहे और नशे की भावुकता में इसकी उसकी दुहाई देते रहे। आखिर थोड़ी बदमज़गी हो गई। क्योंकि मैं इसके बावजूद वहाँ से चला आया। डिंग डांग डिंग डांग----चेपल की घण्टियाँ बजनी शुरू हुई थीं कि अन्दर अपनी सीट पर पहुँच गया। उन लोगों को शायद लगा कि मैं बहुत डरपोक हूँ। अपनी नौकरी पर किसी तरह की आँच नहीं आने देना चाहता। मगर असल वजह मैं ही जानता था। मैं अगले दिन मिस्टर व्हिसलर के सामने अपनी सफाई देने के लिए हाजिर नहीं होना चाहता था। मुझे चेपल में जाने से चिढ़ थी, लेकिन इतनी ही चिढ़ लड़कों की कापियाँ जाँचने से भी थी। फिर भी एक-एक कापी मैं इतनी सावधानी से जाँचता था कि कभी एक बार भी मिस्टर व्हिसलर को इस पर टिप्पणी करने का मौका मैंने नहीं दिया था। कारण यहाँ भी वही था जो शोभा के साथ था। मैं ऐसी कोई स्थिति नहीं आने देना चाहता था अन्दर से यह मानकर चलना और बात थी कि मैं एक मजबूरी में दूसरे की शर्तों पर जी रहा हूँ। मगर उन शर्तों पर जीने के लिए मजबूर किया जाना बिलकुल दूसरी बात थी।

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